चार साल पहले, ११ सितंबर २००१ के न्यू योर्क पर हुए हमले की आज बरसी है. जब ऐसी कोई घटना होती है, तो याद रहता है कि जब यह समाचार मिला था, उस दिन, उस समय हम कहाँ थे, क्या कर रहे थे. उस दिन मैं लेबनान जा रहा था, सुबह बोलोनिया से उड़ान ले कर मिलान पहूँचा था और बेरुत की उड़ान का इंतज़ार कर रहा था, जब किसी से सुना. हवाई अड्डे पर ही एक टीवी पर उन न भूलने वाली छवियों को देखा. आस पास हवाई अड्डे पर दुकाने बंद होने लगी और हमारी उड़ान भी रद्द हो गयी. सारा दिन हवाई अड्डे में बिता कर, रात को घर लौटा था.
पर उस दिन चिंता अपनी उड़ान की नहीं, माँ की हो रही थी, जो उसी सुबह वाशिंगटन पहुँच रहीं थीं. उनकी उड़ान को केनेडा में कहीं भेज दिया गया था और दो तीन दिन तक हमें पता नहीं चल पाया था कि वे कहाँ हैं.
कल टीवी पर ११ सितंबर पर बनी वह फिल्म देखी जिसमें विभिन्न देशों के फिल्म निर्देशकों के बनायीं छोटी छोटी कई फिल्मे हैं. उनमें, मीरा नायर की फिल्म जिसमें वह पाकिस्तानी लड़के सलीम की कहानी है, भी है. मुझे वह फिल्म अच्छी लगी जिसमें गाँव की शिक्षका छोटे बच्चौं को यह समाचार समझाने की कोशिश करके, उनसे एक मिनट का मौन रखवाती है. पर मेरे लिए सबसे अच्छी फिल्म उस गूँगी बहरी फ्राँसिसी लड़की की है जो न्यू योर्क के इशारों की भाषा के अनुवादक लड़के के साथ रहती है.
कल के चिट्ठे की टिप्पड़ियों ने सोवने का सामान दिया है. विषेशकर, रमण की भारतीय पारिवारिक सम्बंधों के बारे में टिप्पड़ीं. हमारे दादा, नाना, मामा, चाचा जैसे रिश्ते पश्चिम देशों में कम महत्वपूर्ण होते हैं ? पर रमण और भी नयी दिशाओं में बात को बढ़ा रहे हैं. जैसे रेलगाड़ी के बदले में लोहपथगामिनी जैसे शब्दों का बनाना या फिर ऐसे शब्द ढ़ूँढ़ना जो अंग्रेजी में हैं और हिंदी में नहीं जैसे teenager. पुण्य और धर्म के जो उदाहरण स्वामी जी ने दिये हैं वे शायद हिंदु धर्म विचारों की वजह से हैं और मोक्ष, निर्वाण, आदि अन्य शब्दों की ओर ले जाते हैं.
आज की तस्वीरें कुछ साल पहले की न्यू योर्क यात्रा से - ट्विन टोवर्स की ऊपरी मंजिल से एक दृष्य और टोवर्स के नीचे हाल में एक शादीः
सोमवार, सितंबर 12, 2005
रविवार, सितंबर 11, 2005
आवारापन
मैं सोच रहा था कि "आवारापन" शब्द का अंग्रेज़ी में क्या अनुवाद होगा ? आवारा, आवारापन, आवारागर्दी, आवारगी जैसे शब्द एक विषेश रहने, सोचने, बात करने, जीवन बिताने की बात करते हैं जो हमारी उत्तर भारतीय और शायद पाकिस्तानी सभ्यता से जुड़े हैं जिनके लिए अंग्रेज़ी में समान एक शब्द नहीं हैं. सुना है कि आईसलैंड में विभिन्न तरह की बर्फ के बारे में सात या आठ शब्द हैं क्योंकि उनकी सभ्यता में बर्फ का बहुत महत्व है, जबकि हिंदी में बरफ का महत्व कम है. हालाँकि हिम जैसे शब्द भी हैं पर आम भाषा में हम लोग खाने वाली बर्फ (ice) हो या आसमान से गिरने वाली बर्फ हो (snow), हमारे लिए तो वह बस बर्फ है.
इसी बात से विचार आया ऐसे हिंदी शब्दों को पहचानने का जिनके लिऐ अंग्रेज़ी में समान एक शब्द नहीं है, बल्कि जिन्हें समझाने के लिए अंग्रेज़ी में दो या अधिक शब्दों की आवश्यकता पड़े. भारतीय वस्त्रों से जुड़े शब्द जैसे धोती, साड़ी, पगड़ी, सलवार, पल्ला, आँचल, आदि शब्द कुछ ऐसे ही हैं. त्योहारों से जुड़े शब्द यानि दिवाली, होली, रामनवमी, आदि भी कुछ ऐसे ही हैं. खाने से जुड़े कई शब्द जैसे रोटी, पराँठा, मसाला, कड़ाई, सिल, बट्टा जैसे शब्द भी ऐसे ही हैं.
ऐसे और शब्द कौन से हैं ?
आज की तस्वीरें हैं हेलसिंकी के आधुनिक कला म्यूज़ियम से, जिनमें अफ्रीकी परमपरागत पौशाकें दिखायीं गयीं हैं. आजकल कहीं कोई बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सभा होती है, अफ्रीका नेता ऐसी पौशाकें पहनते हैं, कुछ वैसे ही जैसे हम लोग कर्ता, पजामा या अचकन पहन सकते हैं. अपनी परमपरागत पौशाकों से हम यूरोप और अमरीका से अपनी स्वतंत्रता और भिन्नता दिखाते हैं. म्यूज़ियम की यह प्रदर्शनी दिखाती है कैसे हमारी परमपरागत पहचान नकली ढ़ंग से भी बनायी जा सकती है, जैसे यह परमपरागत अफ्रीकी पौशाकें जो ३०० साल पहले डच और अंग्रेज लोग एन्डोनेसिया और भारत से अफ्रीका ले कर गये.
इसी बात से विचार आया ऐसे हिंदी शब्दों को पहचानने का जिनके लिऐ अंग्रेज़ी में समान एक शब्द नहीं है, बल्कि जिन्हें समझाने के लिए अंग्रेज़ी में दो या अधिक शब्दों की आवश्यकता पड़े. भारतीय वस्त्रों से जुड़े शब्द जैसे धोती, साड़ी, पगड़ी, सलवार, पल्ला, आँचल, आदि शब्द कुछ ऐसे ही हैं. त्योहारों से जुड़े शब्द यानि दिवाली, होली, रामनवमी, आदि भी कुछ ऐसे ही हैं. खाने से जुड़े कई शब्द जैसे रोटी, पराँठा, मसाला, कड़ाई, सिल, बट्टा जैसे शब्द भी ऐसे ही हैं.
ऐसे और शब्द कौन से हैं ?
आज की तस्वीरें हैं हेलसिंकी के आधुनिक कला म्यूज़ियम से, जिनमें अफ्रीकी परमपरागत पौशाकें दिखायीं गयीं हैं. आजकल कहीं कोई बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सभा होती है, अफ्रीका नेता ऐसी पौशाकें पहनते हैं, कुछ वैसे ही जैसे हम लोग कर्ता, पजामा या अचकन पहन सकते हैं. अपनी परमपरागत पौशाकों से हम यूरोप और अमरीका से अपनी स्वतंत्रता और भिन्नता दिखाते हैं. म्यूज़ियम की यह प्रदर्शनी दिखाती है कैसे हमारी परमपरागत पहचान नकली ढ़ंग से भी बनायी जा सकती है, जैसे यह परमपरागत अफ्रीकी पौशाकें जो ३०० साल पहले डच और अंग्रेज लोग एन्डोनेसिया और भारत से अफ्रीका ले कर गये.
शनिवार, सितंबर 10, 2005
ग्रीशम बोलोनिया में
कल जाह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय आये और हम भी उन्हे देखने सुनने गये. करीब एक हजार साल पुराना "सांता लूचिया हाल" जो हैरी पोटर फिल्मों का डाइनिंग हाल जैसा लगा है, ठसाठस भरा था, खड़े होने की जगह नहीं थी. ग्रीशम ने अपने नये उपन्यास "द बरोकर" (The Broker) के बारे में बात की, अपने फिल्मकार होने के अनुभव के बारे में बताया, अपने बेसबाल के कोच होने के अनुभव के बारे में कहा, अमरीकी राष्ट्रपति बुश, न्यू ओरलिओन्स के कटरीना तूफान और अमरीका में "फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन" की बढ़ती हुई कमी आदि बातों पर अपने विचार प्रकट किये.
जो सवाल मैं उठाना चाहता था, आलोचकों का उन्हें साहित्यकार न मानने का, वह भी उठा. ग्रीशम गुस्से से बोले, "आलोचक जायें भाड़ में, मैं उनकी कुछ परवाह नहीं करता. जनप्रिय लेखन क्या होता है, उन्हें नहीं मालूम. पहले आलोचना करते थे कि मेरी हर किताब का एक जैसा फारमूला होता है, अब उन्हें यह एतराज है कि मैं फारमूला छोड़ कर भिन्न क्यों लिख रहा हूँ." यानि की भीतर भीतर से, आलोचकों के प्रति उनमें गुस्सा है हालाँकि वे परवाह न करने की कहते हैं.
एक अन्य सवाल का उत्तर देते हुए बोले "पिछले पंद्रह सालों में मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूँ. २० करोड़ के करीब मेरी किताबें बिकी हैं और मुझे दुनिया का सबसे अधिक बिकने वाला लेखक कहते थे, जब तक हैरी पोटर नहीं आ गया ..."
पर उनकी सब बातों से अधिक तालियाँ तभी बजी जब उन्होंने हमारे शहर बोलोनिया के बारे में कहा. बोले, "पिछले साल जुलाई में पहली बार बोलोनिया आया. शहर को जानता नहीं था, पर इटली मुझे बहुत अच्छा लगता है, पहले भी कई बार आ चुका था अन्य मशहूर शहर देखने. मुझे एक ऐसे छोटे शहर की तलाश थी, जहाँ मेरा जासूस नायक छुप सके. जब मैंने नाज़ी और फासिस्ट शासन के खिलाफ लड़ने वाले शहीद हुए जवानों की फोटो से भरी दीवार देखी, उसने मेरे मन को छू लिया और मुझे इस शहर से प्यार सा हो गया."
आज की तस्वीरों में ग्रीशम और उन्हें सम्मान देते बोलोनिया के मेयस, श्री कोफेरातीः
जो सवाल मैं उठाना चाहता था, आलोचकों का उन्हें साहित्यकार न मानने का, वह भी उठा. ग्रीशम गुस्से से बोले, "आलोचक जायें भाड़ में, मैं उनकी कुछ परवाह नहीं करता. जनप्रिय लेखन क्या होता है, उन्हें नहीं मालूम. पहले आलोचना करते थे कि मेरी हर किताब का एक जैसा फारमूला होता है, अब उन्हें यह एतराज है कि मैं फारमूला छोड़ कर भिन्न क्यों लिख रहा हूँ." यानि की भीतर भीतर से, आलोचकों के प्रति उनमें गुस्सा है हालाँकि वे परवाह न करने की कहते हैं.
एक अन्य सवाल का उत्तर देते हुए बोले "पिछले पंद्रह सालों में मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूँ. २० करोड़ के करीब मेरी किताबें बिकी हैं और मुझे दुनिया का सबसे अधिक बिकने वाला लेखक कहते थे, जब तक हैरी पोटर नहीं आ गया ..."
पर उनकी सब बातों से अधिक तालियाँ तभी बजी जब उन्होंने हमारे शहर बोलोनिया के बारे में कहा. बोले, "पिछले साल जुलाई में पहली बार बोलोनिया आया. शहर को जानता नहीं था, पर इटली मुझे बहुत अच्छा लगता है, पहले भी कई बार आ चुका था अन्य मशहूर शहर देखने. मुझे एक ऐसे छोटे शहर की तलाश थी, जहाँ मेरा जासूस नायक छुप सके. जब मैंने नाज़ी और फासिस्ट शासन के खिलाफ लड़ने वाले शहीद हुए जवानों की फोटो से भरी दीवार देखी, उसने मेरे मन को छू लिया और मुझे इस शहर से प्यार सा हो गया."
आज की तस्वीरों में ग्रीशम और उन्हें सम्मान देते बोलोनिया के मेयस, श्री कोफेरातीः
शुक्रवार, सितंबर 09, 2005
दावत हो तो ऐसी
यह बात मुझे जितेंद्र के अझेल खाने की बात से याद आयी. मैं अक्सर यात्रा पर विभिन्न देशों में जाता हूँ. कई बार ओफिशियल खाना होता है जिसमे साथ में कोई मंत्री जी या मेयर या बड़े अधिकारी होते हैं, जिनके सामने कई बार ऐसी हालत हो जाती है कि न खाते बनता है, न उगलते. ऐसी घटनाओं का सबसे बड़ा फायदा यह है कि फिर जब कहीं गप्प बाजी हो तो मुझे सुनाने के लिए बढ़िया किस्सा मिल जाता है.
जिस दावत के बारे में सुना रहा हूँ वह १९९३ या ९४ की है. मैं विश्व स्वास्थ्य संघ की ओर से चीन मे गया था. देश के दक्षिण पश्चिम के राज्य ग्वीझू में अनशान के झरनों के पास एक छोटे से शहर में थे, जहाँ के मेयर ने हमें शाम की दावत का निमंत्रण दिया. यहाँ एक अल्पसाख्यिँक जनजाति के लोग रहते हैं. दावत के लिए एक छोटा सा नीचा गोल मेज़ था जिसके आसपास हम सब लोग घुटनों पर बैठे. मेरे बाँयीं तरफ मेयर जी थे. खाने का मुख्य भोज था एक मीट वाला सूप जिसे एक बड़े बर्तन में बीच में रखा गया. मेयर जी को मेरी बहुत चिंता थी, हाथ से चबर चबर मीट इत्यादि खा रहे थे, कोई अच्छा टुकड़ा दिखता तो उसे उन्हीं हाथों से उठा कर मेरी प्लेट में रख देते, और मुस्कुरा कर मुझे उसे चखने के लिए कहते और मेरी तरफ देखते रहते जब तक मैं उसे खाता नहीं.
सभी लोग मीट की हड्डियाँ निकाल फैंकने के चैम्पियन थे. मेज़ पर हड्डियाँ एकत्र करने के लिए कोई प्लेट नहीं थी, सभी लोग थोड़ा सा सिर घुमा कर, पीछे की तरफ हड्डियाँ थूक या फैंक रहे थे. पीछे हमारे आसपास कब्रीस्तान सा बन रहा था. जितनी बार मेयर जी पीछे मुड़ कर हड्डी फैंकते, कुछ थूक और हड्डियाँ मेरे जूतों पर गिरतीं.
खुद को बहुत कोसा कि कोई बहाना क्यों नहीं बनाया इस झंझट से बचने के लिए. पर अभी झंझट समाप्त नहीं हुआ था, जब नया पकवान आया. भुनी हूई मधुमक्खियाँ. उन्हो्ने मधुमक्खी को पूरा का पूरा, पँख समेत, ले कर भुना या तला था. देख कर बहुत जी घबराया पर सच कहुँ तो खाने में इतनी अजीब नहीं थीं, मुँह मे रखते ही घुल सी जाती थीं. दो तीन ही खायीं. मेरे साथ चीन स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से सरकारी अनुवादक थे, उन्होंने ही मेरी जान बचायी, कहा कि हमें देर हो रही है और मेयर जी के चुंगल से निकाल लाये. वह स्वयं भी बेजिंग के रहने वाले थे और शायद जनजातियों के यहाँ खाये जाने वाले ऐसे पकवानों के आदि नहीं थे. आज भी उस दावत के बारे में सोचूँ तो भूख गुम हो जाती है.
आज की तस्वीरें दक्षिण पश्चिम चीन की जनजातियों की हैं.
जिस दावत के बारे में सुना रहा हूँ वह १९९३ या ९४ की है. मैं विश्व स्वास्थ्य संघ की ओर से चीन मे गया था. देश के दक्षिण पश्चिम के राज्य ग्वीझू में अनशान के झरनों के पास एक छोटे से शहर में थे, जहाँ के मेयर ने हमें शाम की दावत का निमंत्रण दिया. यहाँ एक अल्पसाख्यिँक जनजाति के लोग रहते हैं. दावत के लिए एक छोटा सा नीचा गोल मेज़ था जिसके आसपास हम सब लोग घुटनों पर बैठे. मेरे बाँयीं तरफ मेयर जी थे. खाने का मुख्य भोज था एक मीट वाला सूप जिसे एक बड़े बर्तन में बीच में रखा गया. मेयर जी को मेरी बहुत चिंता थी, हाथ से चबर चबर मीट इत्यादि खा रहे थे, कोई अच्छा टुकड़ा दिखता तो उसे उन्हीं हाथों से उठा कर मेरी प्लेट में रख देते, और मुस्कुरा कर मुझे उसे चखने के लिए कहते और मेरी तरफ देखते रहते जब तक मैं उसे खाता नहीं.
सभी लोग मीट की हड्डियाँ निकाल फैंकने के चैम्पियन थे. मेज़ पर हड्डियाँ एकत्र करने के लिए कोई प्लेट नहीं थी, सभी लोग थोड़ा सा सिर घुमा कर, पीछे की तरफ हड्डियाँ थूक या फैंक रहे थे. पीछे हमारे आसपास कब्रीस्तान सा बन रहा था. जितनी बार मेयर जी पीछे मुड़ कर हड्डी फैंकते, कुछ थूक और हड्डियाँ मेरे जूतों पर गिरतीं.
खुद को बहुत कोसा कि कोई बहाना क्यों नहीं बनाया इस झंझट से बचने के लिए. पर अभी झंझट समाप्त नहीं हुआ था, जब नया पकवान आया. भुनी हूई मधुमक्खियाँ. उन्हो्ने मधुमक्खी को पूरा का पूरा, पँख समेत, ले कर भुना या तला था. देख कर बहुत जी घबराया पर सच कहुँ तो खाने में इतनी अजीब नहीं थीं, मुँह मे रखते ही घुल सी जाती थीं. दो तीन ही खायीं. मेरे साथ चीन स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से सरकारी अनुवादक थे, उन्होंने ही मेरी जान बचायी, कहा कि हमें देर हो रही है और मेयर जी के चुंगल से निकाल लाये. वह स्वयं भी बेजिंग के रहने वाले थे और शायद जनजातियों के यहाँ खाये जाने वाले ऐसे पकवानों के आदि नहीं थे. आज भी उस दावत के बारे में सोचूँ तो भूख गुम हो जाती है.
आज की तस्वीरें दक्षिण पश्चिम चीन की जनजातियों की हैं.
गुरुवार, सितंबर 08, 2005
लेखक या साहित्यकार
कल अमरीकी लेखक जोह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय में आने वाले हैं. उनकी नयी किताब, "द बरोकर" (The Broker), की कहानी हमारे शहर बोलोनिया में ही बनायी गयी है. लोग सोच रहे हैं कि शायद ग्रीशम की यह किताब पढ़ कर, हमारे शहर में कुछ अधिक पर्यटक आयेंगे. यहाँ रोम, वेनिस, फ्लोरेंस आदि शहरों के सामने, बेचारी बोलोनिया को कोई नहीं पूछता.
अगर मैं कोई सवाल पूछ सकूँ श्रीमान ग्रीशम से, तो वो यह होगा, "जब आलोचक आप को जनप्रिय लेखक कहते हैं पर आपको साहित्यकार नहीं मानते तो आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?" उन्होंने इस तरह के आलोचनाओं के बाद, कुछ गम्भीर तरीके से भी लिखने की कोशिश की है, जैसे "यैलो हाऊस" (Yellow House), पर उनके ऐसे उपन्यासों को न तो सफलता मिली और न ही आलोचनों ने अपनी राय बदली. मैंने स्वयं भी, उनकी कई किताबें खूब मजे से पढ़ीं पर उनका गम्भीर "साहित्य" मुझसे नहीं पढ़ा गया.
इसी बारे में सोच रहा हूँ, क्या फर्क है आम लेखक में और साहित्यकार में ? मेरी दो प्रिय लेखिकाओं, शिवानी और आशापूर्णा देवी, को बहुत साल तक आलोचक आम लेखक, या "रसोई लेखिकाँए" कहते रहे. बचपन में मेरे स्कूल में हिंदी के एक बहुत बिकने वाले लेखक का पुत्र पढ़ता था, उन लेखक का नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद दत्त भारती जी या ऐसा ही कुछ था. लेकिन अगर घर में कोई उनकी किताब पढ़ते हुए देख लेता तो कहता, "क्या कूड़ा पढ़ रहो हो". बचपन में पढ़ी गुलशन नंदा जैसे लेखकों की किताबें या फिर जासूसी उपन्यास इसी श्रेणीं में गिने जाते थे, कूड़ा. पर उन्हें पढ़ने में बहुत आनंद आता था.
तो सोच रहा था, किस बात से आम लेखन का साहित्य से भेद किया जा सकता है ? भाषा के उपयोग से ? याने साधारण लेखन सरल, आसानी से समझ आने वाली भाषा का प्रयोग करते हैं, पर साहित्यकार की भाषा अधिक कठिन होती है ? यह अंतर मुझे कुछ ठीक नहीं लगता, क्योंकि मेरे विचार में कई साहित्यकार हैं जो आसान भाषा का प्रयोग करते हैं. शायद लिखने की गहराई से साहित्यता को मापने का कोई नाता था ? या कथा के विषय से ? या लेखक किस तरह से कथा का विकास करता है ? या फिर आलोचक के अपने विचारों से ? बहुत सोच कर भी कोई सरल नियम जिससे यह आसानी से कहा जाये कि यह साहित्य है और यह साधारण लेखन है, मुझे समझ में नहीं आया. शायद मरने के बाद आम लेखक का साहित्यकार बनना अधिक आसान है.
आज हमारे शहर बोलोनिया की दो तस्वीरे
अगर मैं कोई सवाल पूछ सकूँ श्रीमान ग्रीशम से, तो वो यह होगा, "जब आलोचक आप को जनप्रिय लेखक कहते हैं पर आपको साहित्यकार नहीं मानते तो आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?" उन्होंने इस तरह के आलोचनाओं के बाद, कुछ गम्भीर तरीके से भी लिखने की कोशिश की है, जैसे "यैलो हाऊस" (Yellow House), पर उनके ऐसे उपन्यासों को न तो सफलता मिली और न ही आलोचनों ने अपनी राय बदली. मैंने स्वयं भी, उनकी कई किताबें खूब मजे से पढ़ीं पर उनका गम्भीर "साहित्य" मुझसे नहीं पढ़ा गया.
इसी बारे में सोच रहा हूँ, क्या फर्क है आम लेखक में और साहित्यकार में ? मेरी दो प्रिय लेखिकाओं, शिवानी और आशापूर्णा देवी, को बहुत साल तक आलोचक आम लेखक, या "रसोई लेखिकाँए" कहते रहे. बचपन में मेरे स्कूल में हिंदी के एक बहुत बिकने वाले लेखक का पुत्र पढ़ता था, उन लेखक का नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद दत्त भारती जी या ऐसा ही कुछ था. लेकिन अगर घर में कोई उनकी किताब पढ़ते हुए देख लेता तो कहता, "क्या कूड़ा पढ़ रहो हो". बचपन में पढ़ी गुलशन नंदा जैसे लेखकों की किताबें या फिर जासूसी उपन्यास इसी श्रेणीं में गिने जाते थे, कूड़ा. पर उन्हें पढ़ने में बहुत आनंद आता था.
तो सोच रहा था, किस बात से आम लेखन का साहित्य से भेद किया जा सकता है ? भाषा के उपयोग से ? याने साधारण लेखन सरल, आसानी से समझ आने वाली भाषा का प्रयोग करते हैं, पर साहित्यकार की भाषा अधिक कठिन होती है ? यह अंतर मुझे कुछ ठीक नहीं लगता, क्योंकि मेरे विचार में कई साहित्यकार हैं जो आसान भाषा का प्रयोग करते हैं. शायद लिखने की गहराई से साहित्यता को मापने का कोई नाता था ? या कथा के विषय से ? या लेखक किस तरह से कथा का विकास करता है ? या फिर आलोचक के अपने विचारों से ? बहुत सोच कर भी कोई सरल नियम जिससे यह आसानी से कहा जाये कि यह साहित्य है और यह साधारण लेखन है, मुझे समझ में नहीं आया. शायद मरने के बाद आम लेखक का साहित्यकार बनना अधिक आसान है.
आज हमारे शहर बोलोनिया की दो तस्वीरे
बुधवार, सितंबर 07, 2005
उन्हें क्या मिला ?
कल सुबह का चिट्ठा कुछ भावावेश में लिखा था. शाम को दुबारा पढ़ा तो लगा कि अपनी बात को ठीक से नहीं व्यक्त्त कर पाया. अनूप, जितेंद्र और नितिन के चिट्ठों की बात की पर उनके लिंक भी नहीं दिये. असल में सब कुछ अनूप के मेरे पन्ने में लिखे बाजपेयी सर के बारे में पढ़ कर शुरु हुआ. अनूप ने बहुत अच्छा लिखा है, और दिल से लिखा है. पढ़ कर सोच रहा था कि मेरा किसी शिक्षक से ऐसा संबध नहीं बना, पर अगर यह सोचूँ कि किससे मुझे क्या मिला, तो कई नाम और चेहरे याद आ जाते हैं.
मिडिल स्कूल के हिंदी के गुरु जी, प्रीमेडिकल के दौरान भौतिकी के गुरु और मेडिकल कालिज से निकलने के बाद, कर्मभूमि मे काम कर रहे गुरु जिनके साथ काम करने का मौका मिला. फिर सोचा उनके बारे में जो बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे, लगता था कि उन्हें किस्मत ने हमें तंग करने के लिए ही हमारे जीवन में भेजा हो. पर उनसे भी कुछ सीखने का मौका मिला और ऐसे ही एक नापसंद से गुरु की वजह से ही मेरा जीवन बदल गया. यह सब सोचा शाम को, बाग में कुत्ते के साथ सैर करते हुए.
पर फिर सोचा कि बजाय यह सोचने के मुझे क्या मिला, उन्हें क्या मिला अच्छे गुरु बन कर ? अपने एक गुरु जी के लाचारी के अंतिम दिनों की बात याद आ गयी. सारा जीवन इमानदारी और आदर्शों का जीता जागता उदाहरण थे और उनकी बहुत सी बातें मेरा हिस्सा बन गयीं हैं. यही क्षोभ और ग्लानी थे मेरे कल के चिट्ठे में, सबसे पहले स्वयं से फिर उस समाज से, जहाँ ऐसे लोग गरीबी और लाचारी मे मरते हैं. गुस्सा था उनके बच्चों पर जो पढ़ लिख कर, अच्छे पदों पर हो कर भी, उन्हें इस लाचारी में अकेला छोड़ गये थे.
अतुल ने लिखा है, "मेरे गुरुजी भी आम आदमी थे.उनके सामने तमाम मानवीय चुनौतियां थीं. वे ट्यूशन भी पढाते थे उन लड़कों को जो उनसे पढ़ने आते थे.उनकी पारिवारिक समस्यायें भी थीं .जिन्दगी बिता दी किराये के मकान में जब मकान बन पाया तो रहने के लिये वो नहीं थे.बडी़ लडकी विधवा हो गयी ४०-४५ की उमर में .यह् सदमा भी रहा.अपने छोटे बेटे के भविष्य को लेकर काफी चितित रहे.इन सारी आपा-धापी के बीच वे सदैव अपने मानस पुत्रों के उन्नयन के लिये निस्वार्थ् लगे रहे." यह समझता हूँ कि कठिनाईयाँ तो किसी भी जीवन में हो सकती हैं, चाहे आप शिक्षक हों या कुछ और. उन्हीं को याद करेंगे लोग जिसने सब कठिनाईयों के होते हुए अपने जीवक को औरों के जीवन सँवारने में लगाया हो.
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अमरिकी देश, गुयाना से, जहाँ ६० प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं.
मिडिल स्कूल के हिंदी के गुरु जी, प्रीमेडिकल के दौरान भौतिकी के गुरु और मेडिकल कालिज से निकलने के बाद, कर्मभूमि मे काम कर रहे गुरु जिनके साथ काम करने का मौका मिला. फिर सोचा उनके बारे में जो बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे, लगता था कि उन्हें किस्मत ने हमें तंग करने के लिए ही हमारे जीवन में भेजा हो. पर उनसे भी कुछ सीखने का मौका मिला और ऐसे ही एक नापसंद से गुरु की वजह से ही मेरा जीवन बदल गया. यह सब सोचा शाम को, बाग में कुत्ते के साथ सैर करते हुए.
पर फिर सोचा कि बजाय यह सोचने के मुझे क्या मिला, उन्हें क्या मिला अच्छे गुरु बन कर ? अपने एक गुरु जी के लाचारी के अंतिम दिनों की बात याद आ गयी. सारा जीवन इमानदारी और आदर्शों का जीता जागता उदाहरण थे और उनकी बहुत सी बातें मेरा हिस्सा बन गयीं हैं. यही क्षोभ और ग्लानी थे मेरे कल के चिट्ठे में, सबसे पहले स्वयं से फिर उस समाज से, जहाँ ऐसे लोग गरीबी और लाचारी मे मरते हैं. गुस्सा था उनके बच्चों पर जो पढ़ लिख कर, अच्छे पदों पर हो कर भी, उन्हें इस लाचारी में अकेला छोड़ गये थे.
अतुल ने लिखा है, "मेरे गुरुजी भी आम आदमी थे.उनके सामने तमाम मानवीय चुनौतियां थीं. वे ट्यूशन भी पढाते थे उन लड़कों को जो उनसे पढ़ने आते थे.उनकी पारिवारिक समस्यायें भी थीं .जिन्दगी बिता दी किराये के मकान में जब मकान बन पाया तो रहने के लिये वो नहीं थे.बडी़ लडकी विधवा हो गयी ४०-४५ की उमर में .यह् सदमा भी रहा.अपने छोटे बेटे के भविष्य को लेकर काफी चितित रहे.इन सारी आपा-धापी के बीच वे सदैव अपने मानस पुत्रों के उन्नयन के लिये निस्वार्थ् लगे रहे." यह समझता हूँ कि कठिनाईयाँ तो किसी भी जीवन में हो सकती हैं, चाहे आप शिक्षक हों या कुछ और. उन्हीं को याद करेंगे लोग जिसने सब कठिनाईयों के होते हुए अपने जीवक को औरों के जीवन सँवारने में लगाया हो.
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अमरिकी देश, गुयाना से, जहाँ ६० प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं.
मंगलवार, सितंबर 06, 2005
शिक्षकों की याद
एक वह दुनिया है जहाँ हम लोग सचमुच रहते हैं और फिर अन्य कई दुनिया हैं, सपनों की दुनिया जहाँ सब कुछ सुंदर और आदर्शों से भरा हो सकता है. शिक्षकों के बारे में अनूप, जीतेंद्र और नितिन के चिट्ठे देख कर ऐसा ही अचरज हो रहा था मुझे. शिक्षक दिवस और शिक्षकों को याद करना, यह लोग सचमुच की दुनिया के लोग हैं या फिर किसी काल्पनिक, आदर्शमय दुनिया में रहते हैं ?
मैं तो सोचता था कि शिक्षकों के आदर की बात करना, कुछ मजाक सा है. कौन पूछता है और समाज में सचमुच कितना आदर है आज शिक्षकों का? क्या हममें से कोई चाहेगा कि हमारा बच्चा शिक्षक बने ? शायद मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि एक शिक्षिका का बेटा हूँ जो नगरपालिका के गरीब स्कूल में पढ़ाती थी.
बच्चे का भोला मन ही अपने गुरु जी के दिये ज्ञान और प्रेरणा का मान कर सकता है, पर जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं दुनिया के नियम सीख जाते हैं कि पैसे से औकात मापने वाली दुनिया में शिक्षकों का स्थान बहुत नीचा है.
अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु तो बहुत किस्मत से ही मिलते हैं. अच्छे गुरु के साथ आदर से बढ़ कर, पितामय स्नेह का रिश्ता बना पाना और भी कठिन है. ऐसे समाज में जहाँ पैसा ही पहला मापदंड है, आज आम स्कूलों में शिक्षक वही बनता है जिसे और कोई काम नहीं मिलता. ऐसे में शिक्षक का काम गर्व से नहीं, कुँठा से निभता है. कैसे और ट्यूशन करुँ, कैसे और पैसे बनाऊँ, यह चिंता होती है. उनमे से अगर कोई अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु हों भी तो बेवकूफ कहलाते हैं, आदर्शवादी बेवकूफ जिन्हे इस समाज के नियम और इसमे ठीक से रहना नहीं आया, न खुद कुछ बनाया खाया, न औरों को खाने दिया.
शायद यह बाद बहुत कड़वी लगे पर लिखते समय मेरी आँखों के सामने एक आदर्शवादी बूढ़े का चेहरा है, गाँधी पुरस्कार मिला था उन्हें आदर्शवाद के लिए, आखिरी दिनों में एकदम अकेले रह गये थे और उनके बच्चे उनके आदर्शवाद की हँसी उड़ाते थे. शिक्षक दिवस पर उन जैसे बेवकूफ आदर्शवादी शिक्षकों के लिए ही हैं आज की तस्वीरें.
मैं तो सोचता था कि शिक्षकों के आदर की बात करना, कुछ मजाक सा है. कौन पूछता है और समाज में सचमुच कितना आदर है आज शिक्षकों का? क्या हममें से कोई चाहेगा कि हमारा बच्चा शिक्षक बने ? शायद मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि एक शिक्षिका का बेटा हूँ जो नगरपालिका के गरीब स्कूल में पढ़ाती थी.
बच्चे का भोला मन ही अपने गुरु जी के दिये ज्ञान और प्रेरणा का मान कर सकता है, पर जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं दुनिया के नियम सीख जाते हैं कि पैसे से औकात मापने वाली दुनिया में शिक्षकों का स्थान बहुत नीचा है.
अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु तो बहुत किस्मत से ही मिलते हैं. अच्छे गुरु के साथ आदर से बढ़ कर, पितामय स्नेह का रिश्ता बना पाना और भी कठिन है. ऐसे समाज में जहाँ पैसा ही पहला मापदंड है, आज आम स्कूलों में शिक्षक वही बनता है जिसे और कोई काम नहीं मिलता. ऐसे में शिक्षक का काम गर्व से नहीं, कुँठा से निभता है. कैसे और ट्यूशन करुँ, कैसे और पैसे बनाऊँ, यह चिंता होती है. उनमे से अगर कोई अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु हों भी तो बेवकूफ कहलाते हैं, आदर्शवादी बेवकूफ जिन्हे इस समाज के नियम और इसमे ठीक से रहना नहीं आया, न खुद कुछ बनाया खाया, न औरों को खाने दिया.
शायद यह बाद बहुत कड़वी लगे पर लिखते समय मेरी आँखों के सामने एक आदर्शवादी बूढ़े का चेहरा है, गाँधी पुरस्कार मिला था उन्हें आदर्शवाद के लिए, आखिरी दिनों में एकदम अकेले रह गये थे और उनके बच्चे उनके आदर्शवाद की हँसी उड़ाते थे. शिक्षक दिवस पर उन जैसे बेवकूफ आदर्शवादी शिक्षकों के लिए ही हैं आज की तस्वीरें.
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