हमारी संस्कृति में "इज्जत" का स्थान सर्वप्रथम है, कुछ भी हो जाये, इज्जत को बचा रखना चाहिये. इस इज्जत के बहुत से पक्ष हो सकते हैं, जिनमें से स्त्री के शरीर से जुड़े परिवार की इज्जत के प्रश्न सबसे प्रमुख हैं. बचपन में सुनी रानी पद्मनी की कहानी यही सिखाती है कि स्त्री की इज्जत उसके पति, उसके परिवार में है और बाहर का पुरुष उसके शरीर को छू ले तो उसकी इज्जत चली जायेगी. पराये मर्द के हाथ पड़ने से अच्छा है कि वह मर जाये. इसलिए जौहर या सती उसे पूजनीय बनाते हैं.
मानव के लिए जीवन का महत्व सबसे अधिक है, पैसे, इज्जत, खेल तमाशा, सबसे अधिक. पर यह नियम केवल पुरुष पर लागू होता है, क्योंकि इज्जत उसके शरीर में नहीं रहती. उसके शरीर को कोई भी देख ले, वह कितनी औरतों के साथ सहवास करे, उससे इसकी इज्जत बढ़ती है. उसकी पत्नी मरे तो और वह सती होने के सोचे, उसे सब पागल कहेंगे.
औरत और मर्द शरीरों के लिए इस तरह भिन्न सामाजिक नियम बना कर, हर समाज और तबका, अपनी इज्जत के मापदंड तैयार करता है. मुस्लिम समाज में इसका अर्थ बुरका बन जाता है, पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी प्रदेश में बेटियों और बहनों को "इज्जत बचाने" के लिए मारना, खून का जुर्म नहीं माना जाता. यानि परिवार की मर्जी के विरुद्ध किसी अन्य युवक से प्यार करने वाली लड़की को जान से मारना जुर्म नहीं है. भारत में बहुत से हिंदू परिवारों में इसका अर्थ है, लम्बा घूँघट रखो, सिर ढ़को, शरीर को ठीक से ढ़को, वगैरा. डिग्री का फर्क है, पर भीतर बात एक ही है.
कल पाकिस्तानी फिल्म निर्देशिका सबीहा सुमर की फिल्म "खामोश पानी" देखी तो यही सोच रहा था. फिल्म को देख कर विभिन्न बातें मन में आ रही थीं और बहुत सी बातों के बारे में मेरे अपने विचार कुछ स्पष्ट नहीं हैं. जैसे यह औरत शरीर की इज्जत की बात. आज तर्क के बूते पर सोच कर सोचता हूँ कि शरीर की इज्जत, जीवन के मूल्य से बड़ी नहीं हो सकती पर बचपन से सीखे सांस्कृतिक विचार इतनी आसानी से नहीं दबते या बदलते. बहुत बार पढ़ा था कि भारत विभाजन के समय बहुत से हिंदू और सिख परिवारों ने "इज्जत बचाने" के लिए बेटियों, बहनों, पत्नियों को कूँए में जान देना या जहर खा कर मरना बेहतर समझा, तो कभी यह गलत नहीं लगा, कभी यह नहीं सोचा, औरत की ही इज्जत क्यों खतरे में होती है और कौन निर्धारित करता है कि उसका मर जाना ही बेहतर है ?
"खामोश पानी" यही सवाल पूछती है. उसकी नायिका आयेशा सिख लड़की थी, जो कूँए में नहीं कूदी, जो पाकिस्तान मैं ही रह गयी और मुसलमान परिवार में मुसलमान बन कर जियी. सालों बाद जब उसका भारत में रहने वाला भाई उससे मिलने की कोशिश करता है और उसे पिता के बीमार होने की बात कहता है, वह यही पूछती है, इज्जत के नाम पर घर की सभी औरतों को कूँए में मरवा देने के बाद, क्यों उसे अपने ऐसे पिता या भाई की परवाह हो ?
शनिवार, दिसंबर 17, 2005
शुक्रवार, दिसंबर 16, 2005
उत्तर विषेशज्ञ
पत्रिकाओं में "दुखयारी मौसियाँ" (Agony Aunts) होती हैं जिन्हें आप पत्र लिख कर अपने दुखों के उत्तर माँगते हैं. हर विषय की विषेशज्ञ होती हैं यह दुखियारी मौसियाँ, हर तरह के प्रश्न पूछ सकते हैं. चाहे उत्तर देने वाला पुरुष ही हो, उसे आँटी बुलाना ही ठीक समझा जाता है, शायद क्योंकि अंकल जी इतने बुद्धिमान उत्तर नहीं दे सकते ?
"मेरी शादी नहीं हो रही, मेरी नाक बहुत छोटी है उससे मुझमें हीनता की भावना आ रही है. मुझे लगता है नाक मेरी मर्दानगी की निशानी है और कोई लड़की मेरी तरफ कभी प्यार से नहीं देखेगी. मैं आत्महत्या की सोच रहा हूँ, अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देंगी तो मेरे पास कोई और चारा नहीं होगा सिवाय इसके कि मैं कुतुब मीनार से कूद जाऊँ."
इसका उत्तर मिलता है, "शादी बहुत झंझट की चीज़ है, आप शुक्र कीजिये कि आप इससे बचे हुए हैं. मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है, इसके बारे में? मेरे पहले ही दो तलाक हो चुके हैं और तीसरे की तैयारी में हूँ. अगर फिर भी आप आत्महत्या की सोचें तो मेरी सलाह होगी कि आप कुतुब मीनार के बारे में भूल जाईये. एक तो उसका टिकट बहुत महँगा है और दूसरे वहाँ से गिरने पर मरने की भी कोई गारंटी नहीं है."
खैर हमने कहाँ सोचा था कि एक दिन हमें भी दुखियारी मौसी बनने का मौका मिलेगा, पर पिछले कुछ महीनों से ऐसा ही हो रहा है. अपने इतालवी के "कल्पना" के अतंरजाल पृष्ठों की वजह से बहुत से इतालवी लोग हमें भारत विषेशज्ञ समझते हैं और प्रश्न पूछते हैं.
एक युवती को इंदौर के एक लड़के से प्यार हो गया है तो वह पूछतीं हैं कि भारत यात्रा के समय अपनी होने वाली सास ससुर के लिए क्या तौहफा ले जा सकती हैं ?
एक और यवती कहतीं हैं कि उनके एक भारतीय मित्र ने उन्हें अपने विवाह में बुलाया है, पर वह उसके घर पर नहीं ठहरना चाहती, तो पूछती हैं कि अगर वह मित्र को स्पष्ट कह दूँ तो क्या वह बुरा मान जायेगा ?
एक और युवती पूछतीं हैं कि उन्हें सत्यजित राय की फिल्मों में दिलचस्पी है, वह इन फिल्मों की इतालवी सबटाईटल्स वाली डीवीडी कहाँ से पा सकती हैं ?
आप ने गौर किया होगा कि यह सब प्रश्न युवतियाँ ही पूछती हैं, अभी तक कोई पुरुष कोई सवाल ले कर नहीं आया है. सोच रहा हूँ कि अपना एक अस्सिटेंट रखूँ, जो सब बातों के ठीक ठीक उत्तर ढ़ूँढ़ेगा.
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आज जून के बोलोनिया के ग्रीष्म फैस्टीवल से दो तस्वीरें:
"मेरी शादी नहीं हो रही, मेरी नाक बहुत छोटी है उससे मुझमें हीनता की भावना आ रही है. मुझे लगता है नाक मेरी मर्दानगी की निशानी है और कोई लड़की मेरी तरफ कभी प्यार से नहीं देखेगी. मैं आत्महत्या की सोच रहा हूँ, अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देंगी तो मेरे पास कोई और चारा नहीं होगा सिवाय इसके कि मैं कुतुब मीनार से कूद जाऊँ."
इसका उत्तर मिलता है, "शादी बहुत झंझट की चीज़ है, आप शुक्र कीजिये कि आप इससे बचे हुए हैं. मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है, इसके बारे में? मेरे पहले ही दो तलाक हो चुके हैं और तीसरे की तैयारी में हूँ. अगर फिर भी आप आत्महत्या की सोचें तो मेरी सलाह होगी कि आप कुतुब मीनार के बारे में भूल जाईये. एक तो उसका टिकट बहुत महँगा है और दूसरे वहाँ से गिरने पर मरने की भी कोई गारंटी नहीं है."
खैर हमने कहाँ सोचा था कि एक दिन हमें भी दुखियारी मौसी बनने का मौका मिलेगा, पर पिछले कुछ महीनों से ऐसा ही हो रहा है. अपने इतालवी के "कल्पना" के अतंरजाल पृष्ठों की वजह से बहुत से इतालवी लोग हमें भारत विषेशज्ञ समझते हैं और प्रश्न पूछते हैं.
एक युवती को इंदौर के एक लड़के से प्यार हो गया है तो वह पूछतीं हैं कि भारत यात्रा के समय अपनी होने वाली सास ससुर के लिए क्या तौहफा ले जा सकती हैं ?
एक और यवती कहतीं हैं कि उनके एक भारतीय मित्र ने उन्हें अपने विवाह में बुलाया है, पर वह उसके घर पर नहीं ठहरना चाहती, तो पूछती हैं कि अगर वह मित्र को स्पष्ट कह दूँ तो क्या वह बुरा मान जायेगा ?
एक और युवती पूछतीं हैं कि उन्हें सत्यजित राय की फिल्मों में दिलचस्पी है, वह इन फिल्मों की इतालवी सबटाईटल्स वाली डीवीडी कहाँ से पा सकती हैं ?
आप ने गौर किया होगा कि यह सब प्रश्न युवतियाँ ही पूछती हैं, अभी तक कोई पुरुष कोई सवाल ले कर नहीं आया है. सोच रहा हूँ कि अपना एक अस्सिटेंट रखूँ, जो सब बातों के ठीक ठीक उत्तर ढ़ूँढ़ेगा.
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आज जून के बोलोनिया के ग्रीष्म फैस्टीवल से दो तस्वीरें:
गुरुवार, दिसंबर 15, 2005
पिंटर की आग
सन २००५ का साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार अंग्रेजी नाटककार, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता हेरोल्ड पिंटर को मिला है. मुझे आम तौर पर नाटक पढ़ने में दिलचस्पी नहीं है, कभी विजय तेंदुलकर या मोहन राकेश का कुछ पढ़ा था, पर हेरोल्ड पिंटर का कोई नाटक न पढ़ा था न देखा था. उन्हें पहली बार देखा और सुना दिसम्बर २००४, करीब एक साल पहले जब उन्होंने बीबीसी के कार्यक्रम "हार्डटाक" में कहा कि श्री बुश और श्री ब्लेयर दोनो को युद्ध अत्याचार का अपराधी मान कर उन पर मुकदमा करना चाहिये. वे बहुत अच्छा बोलते हैं और केवल भावुकता की ही बातें या भाईचारे और न्याय की किताबी बातें करते हों, ऐसा नहीं, वह अपनी बात को साबित करने के लिए स्पष्ट विचार, तर्क और प्रमाण के साथ बात करते हैं. अगर आप चाहें तो उनका वह साक्षात्कार देख सकते हैं.
नोबल पुरस्कार लेते समय भी उनका भाषण कम दमदार नहीं था. इस भाषण में एक तरफ तो उन्होंने अपने लेखन के तरीके की झलक दिखाई, तो दूसरी तरफ अपने राजनीतिक कार्यकर्ता होना का सक्षम परिचय दिया है. अपने नाटकों के चरित्रों के बारे में वह कहते हैं कि चरित्र एक बार बनने के बाद अपना स्वतंत्र जीवन ले लेते हैं और लेखक के बस में नहीं रहते बल्कि अपनी नियती स्वयं ढ़ूँढ़ते हैं.
पर असली आग है उनके भाषण में - अमरीकी विदेश नीति और उसके द्वारा बड़े बहुदेशी कोरपोरेशनों के सम्राज्य को स्थापित करने के खिलाफ़. वह कहते हें कि कम्यूनिस्ट शासन और सोवियत रुस में हुए अत्याचारों के बारे में तो बहुत बहस हुई है पर दुनिया में क्रूरता से अपने मुनाफे के पीछे लाखों मासूम लोगों के जान लेने के लिए अमरीकी योगदान का न तो ठीक से ज्ञान है और न इस पर ठीक से शोध हुआ है. यह भाषण पढ़ कर देखिये, तब बताईये कि आप को उनके विचार कैसे लगे.
*****
मैं मानता हूँ कि पिंटर जी ने जरुर अच्छा ही लिखा होगा और ऊपर दिये गये विवरण से स्पष्ट है कि मैं उनका प्रशंसक हूँ लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्य का नोबल पुरस्कार यूरोपीय भाषाओं की तरफ पक्षपात करता है. भारत की भाषाओं की इसमें पूरी अवहेलना की जाती है. वरना दलित, पीड़ित जन पर लिखने वाली और उनके साथ कदम से कदम मिला कर काम करने वाली महाश्वेता देवी जैसे लेखक को क्यों भूल जाते लोग? क्यों उनका और उनके जैसे अनेक लेखकों के बारे में भारत से बाहर बहुत कम लोग जानते हैं ?
******
किसी भी यात्रा के दौरान, शाम को, रात को, खाली समय में हिंदी लिखने का मौका मिल जाता है. इस बार लंदन यात्रा के दौरान मैंने पापा की दो अधूरी कहानियों को क्मप्यूटर पर लिखा. अधूरी कहानी पढ़ने में आनंद नहीं आता पर मुझे उन्हें लिखना जरुर अच्छा लगा.
आज की तस्वीरें लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम सेः
नोबल पुरस्कार लेते समय भी उनका भाषण कम दमदार नहीं था. इस भाषण में एक तरफ तो उन्होंने अपने लेखन के तरीके की झलक दिखाई, तो दूसरी तरफ अपने राजनीतिक कार्यकर्ता होना का सक्षम परिचय दिया है. अपने नाटकों के चरित्रों के बारे में वह कहते हैं कि चरित्र एक बार बनने के बाद अपना स्वतंत्र जीवन ले लेते हैं और लेखक के बस में नहीं रहते बल्कि अपनी नियती स्वयं ढ़ूँढ़ते हैं.
पर असली आग है उनके भाषण में - अमरीकी विदेश नीति और उसके द्वारा बड़े बहुदेशी कोरपोरेशनों के सम्राज्य को स्थापित करने के खिलाफ़. वह कहते हें कि कम्यूनिस्ट शासन और सोवियत रुस में हुए अत्याचारों के बारे में तो बहुत बहस हुई है पर दुनिया में क्रूरता से अपने मुनाफे के पीछे लाखों मासूम लोगों के जान लेने के लिए अमरीकी योगदान का न तो ठीक से ज्ञान है और न इस पर ठीक से शोध हुआ है. यह भाषण पढ़ कर देखिये, तब बताईये कि आप को उनके विचार कैसे लगे.
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मैं मानता हूँ कि पिंटर जी ने जरुर अच्छा ही लिखा होगा और ऊपर दिये गये विवरण से स्पष्ट है कि मैं उनका प्रशंसक हूँ लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्य का नोबल पुरस्कार यूरोपीय भाषाओं की तरफ पक्षपात करता है. भारत की भाषाओं की इसमें पूरी अवहेलना की जाती है. वरना दलित, पीड़ित जन पर लिखने वाली और उनके साथ कदम से कदम मिला कर काम करने वाली महाश्वेता देवी जैसे लेखक को क्यों भूल जाते लोग? क्यों उनका और उनके जैसे अनेक लेखकों के बारे में भारत से बाहर बहुत कम लोग जानते हैं ?
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किसी भी यात्रा के दौरान, शाम को, रात को, खाली समय में हिंदी लिखने का मौका मिल जाता है. इस बार लंदन यात्रा के दौरान मैंने पापा की दो अधूरी कहानियों को क्मप्यूटर पर लिखा. अधूरी कहानी पढ़ने में आनंद नहीं आता पर मुझे उन्हें लिखना जरुर अच्छा लगा.
आज की तस्वीरें लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम सेः
बुधवार, दिसंबर 14, 2005
सबसे बड़ी चिंता
बेटे के विवाह की तारीख करीब आ रही है. २५ दिसम्बर को तीन सप्ताह के लिए भारत जाना है. सबसे बड़ी चिता है कि ब्रांदो का क्या होगा ? ब्रांदो यानि हमारा कुत्ता.
है तो वह भोंदू, घर में आये किसी मेहमान पर नहीं भौंकता, बहुत छोटे बच्चों को छोड़ कर. हमें समझ नहीं आया कि क्यों वह छोटे बच्चों को देख कर कभी कभी भौंकने लगता है ? ऐसे में उन बच्चों के आहित माता पिता को मैं कहता हूँ कि छोटे बच्चे अक्सर इसकी पूँछ खींचते हैं इसलिए यह उनसे डरता है!
एक सप्ताह का था जब वह हमारे घर में आया था. उस समय हमारे घर में एक बिल्ला भी था, श्रीमान मारलोन उर्फ माऊँ. जब कुत्ता आया तो उसे मारलोन का साथी बनाने के लिए हमें ब्रांदो नाम रखने में बिल्कुल हिचकिचाहट नहीं हुई. तब से वह हम सब का लाड़ला है. बहुत आज्ञाकारी है, कुछ भी कहो तो तुरंत करता है. कभी कभी बाग में सैर करते समय किसी एक रास्ते से जाने या न जाने पर अड़ जाता है और पैर जमा लेता है, हिलाने से नहीं हिलता (तब हम उसे अंगद जी बुलाते हैं). अगर बरसात हो रही हो और सैर पर जाने के लिए उसे रेनकोट पहनाया जाये तो नीचे मुँह करके काँपने सा लगता है (तब हम कहते हें कि यह तो सीता मैया है जो कह रहीं हैं, धरती फट जा ताकि हम तुझमें समा जायें!).
पर उसके प्रेम की सबसे बड़ी हकदार है मेरी पत्नी, जिसके घर से बाहर कहीं जाने पर वह बिना लैला का मजनू बन जाता है और अपना अधिकतर समय दरवाजे के पास उसके वापस आने की आस में मुँह बना कर बैठा रहता है. अगर पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाये, तो दो दिनों में ही बेचारा कमजोर सा हो जाता है. इस बार भारत यात्रा में तीनों लोग उसे अकेला छोड़ कर चले जायेंगे तो क्या होगा, इसकी चिंता हम सबको परेशान कर रही है.
वे तीन सप्ताह उसे हमारी साली साहिबा के घर पर रहना है, जिन्हें वह अच्छी तरह से जानता है, पर वे भी कुछ डर रहीं हैं कि बेचारा परिवार के बिना कैसे रहेगा. जब जायेगा तो अपने साथ अपनी पुरानी चद्दर, मेरी पत्नी का पुराना स्वेटर, आदि ले कर जायेगा. आप शायद हँसें कि कुत्ते के बारे में इतना परेशान होना पागलपन है पर हमारे लिए तो वही इस शुभ अवसर पर हमारी सबसे बड़ी चिंता है.
आज कि तस्वीरों में ब्रांदो और हम लोगः
है तो वह भोंदू, घर में आये किसी मेहमान पर नहीं भौंकता, बहुत छोटे बच्चों को छोड़ कर. हमें समझ नहीं आया कि क्यों वह छोटे बच्चों को देख कर कभी कभी भौंकने लगता है ? ऐसे में उन बच्चों के आहित माता पिता को मैं कहता हूँ कि छोटे बच्चे अक्सर इसकी पूँछ खींचते हैं इसलिए यह उनसे डरता है!
एक सप्ताह का था जब वह हमारे घर में आया था. उस समय हमारे घर में एक बिल्ला भी था, श्रीमान मारलोन उर्फ माऊँ. जब कुत्ता आया तो उसे मारलोन का साथी बनाने के लिए हमें ब्रांदो नाम रखने में बिल्कुल हिचकिचाहट नहीं हुई. तब से वह हम सब का लाड़ला है. बहुत आज्ञाकारी है, कुछ भी कहो तो तुरंत करता है. कभी कभी बाग में सैर करते समय किसी एक रास्ते से जाने या न जाने पर अड़ जाता है और पैर जमा लेता है, हिलाने से नहीं हिलता (तब हम उसे अंगद जी बुलाते हैं). अगर बरसात हो रही हो और सैर पर जाने के लिए उसे रेनकोट पहनाया जाये तो नीचे मुँह करके काँपने सा लगता है (तब हम कहते हें कि यह तो सीता मैया है जो कह रहीं हैं, धरती फट जा ताकि हम तुझमें समा जायें!).
पर उसके प्रेम की सबसे बड़ी हकदार है मेरी पत्नी, जिसके घर से बाहर कहीं जाने पर वह बिना लैला का मजनू बन जाता है और अपना अधिकतर समय दरवाजे के पास उसके वापस आने की आस में मुँह बना कर बैठा रहता है. अगर पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाये, तो दो दिनों में ही बेचारा कमजोर सा हो जाता है. इस बार भारत यात्रा में तीनों लोग उसे अकेला छोड़ कर चले जायेंगे तो क्या होगा, इसकी चिंता हम सबको परेशान कर रही है.
वे तीन सप्ताह उसे हमारी साली साहिबा के घर पर रहना है, जिन्हें वह अच्छी तरह से जानता है, पर वे भी कुछ डर रहीं हैं कि बेचारा परिवार के बिना कैसे रहेगा. जब जायेगा तो अपने साथ अपनी पुरानी चद्दर, मेरी पत्नी का पुराना स्वेटर, आदि ले कर जायेगा. आप शायद हँसें कि कुत्ते के बारे में इतना परेशान होना पागलपन है पर हमारे लिए तो वही इस शुभ अवसर पर हमारी सबसे बड़ी चिंता है.
आज कि तस्वीरों में ब्रांदो और हम लोगः
मंगलवार, दिसंबर 13, 2005
लंदन डायरी
दोपहर को कुछ और काम नहीं था तो साउथहाल की तरफ निकल गया. अगर भारत गये हुए कुछ समय हो गया हो तो, मुझे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के लोगों से भरे साउथहाल में आना बहुत अच्छा लगता है. कुछ खरीदना न भी हो तो दूकानों में हिंदी में बातचीत करने को मिलती है. हलकी हलकी बारिश हो रही थी और मैं छतरी नहीं ले कर गया था इसलिए अधिक नहीं घूमा. सड़क के किनारे फुटपाथ पर करोल बाग की तरह लोगों ने सड़क को घेर रखा है, जहाँ हर तरफ से भारतीय संगीत सुनाई देता है. सड़क पर यातायात का बुरा हाल है और कई कारों से तेज स्वर में भारतीय संगीत ही आता है.
मुझे लगता है कि हम भारतीयों को गाड़ी में बैठ कर कहीं भी जाने की बहुत जल्दी होती है. लंदन में अगर आप सड़क पार करना चाहें तो अधिकतर पैदल पारपथ की धारियों के पास गाड़ियाँ अपने आप रुक जाती हैं जब कि भारतीय गाड़ी चलाने वाले इस नियम का पालन करने में कुछ कमजोर लगते हैं. मैंने साउथहाल से कुछ डीवीडी खरीदीं और एक भारतीय रेस्टोरेंट में खाना खाया और वापस होटल लौट आया. अभी रात को बहुत कागज़ देखने हैं, उनसे नींद भी जल्दी आ जायेगी.
****
आज रात को सभा में आये सब लोग कोवेंट गार्डन में एक अफ्रीकी रेस्टोरेंट में खाना खाने गये. होटल से बस में बैठ कर चले. इन बीस सालों में जाने कितनी बार लंदन आया हूँ पर पहले कभी कोवेंट गार्डन नहीं गया था. जगह के नाम से मन में एक बाग की छवि थी लेकिन जब पहुँचे तो बहुत हैरानी हुई, आसपास बाग तो कोई नहीं था. कोवेंट गार्डन शहर के बीचों बीच सब्ज़ी और फ़ूलों की दूकानों की जगह है. वहाँ क्रिसमस के बाजारों और बच्चों के लगे खेलों से बहुत भीड़ भड़क्का था.
****
दोपहर को सोचा कि हैमरस्मिथ के करीब जो थेम्स नदी बहती है, उसके किनारे सैर की जाये. नदी के किनारे सैर के लिए एक विषेश रास्ता बना है जो अधिकतर नदी के साथ साथ चलता है पर बीच में कई जगह घूम कर घरों के बीच पहुँच जाता है. घूमते घूमते कई मील दूर निकल गया. रास्ते में नदी के इलावा कई बाग भी देखे, एक में लड़के फुटबाल और अमरीकी सोक्कर खेल रहे थे. जब थक गया तो सोचा, बीच में से निकल कर सीधा वापस होटल पहुँच जाऊँगा पर बीच का रास्ता सीधा नहीं निकला. कुछ ही देर में घरों के बीच अनजान रास्तों पर खो गया था. बहुत देर तक सोचा कि किसी सी पूछूँ नहीं, पर जब दो घंटे के बाद भी समझ नहीं पा रहा था कि कहाँ आ गया, तो आखिर पूछना ही पड़ा. मालूम पड़ा जहाँ जाना था उसके बिल्कुल उल्टा आ गया था तो वापस आने के लिए बस लेनी पड़ी.
****
अखबार में लिखा है कि कल लंदन से करीब ३० मील दूर पेट्रिल के बड़े भंडार में बहुत बड़ा विस्फोट हुआ और ७५ कि.मी. तक आसमान काले धूँए से भरा था. उसी से याद आया कि कल शाम को त्रफालगर स्कावयर में ओपेरा के भवन के पीछे बहुत काला घना बादल नज़र आ रहा था, शायद वह यही धूँआ था ? यहाँ तो हर बार कुछ न कुछ हो ही जाता है. मुझे तो घर वापस जाने की खुशी है!
प्रस्तुत हैं इसी यात्रा से दो तस्वीरें. अगर आप चाहें तो इस यात्रा की पूरी डायरी भी पढ़ सकते हैं.
मुझे लगता है कि हम भारतीयों को गाड़ी में बैठ कर कहीं भी जाने की बहुत जल्दी होती है. लंदन में अगर आप सड़क पार करना चाहें तो अधिकतर पैदल पारपथ की धारियों के पास गाड़ियाँ अपने आप रुक जाती हैं जब कि भारतीय गाड़ी चलाने वाले इस नियम का पालन करने में कुछ कमजोर लगते हैं. मैंने साउथहाल से कुछ डीवीडी खरीदीं और एक भारतीय रेस्टोरेंट में खाना खाया और वापस होटल लौट आया. अभी रात को बहुत कागज़ देखने हैं, उनसे नींद भी जल्दी आ जायेगी.
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आज रात को सभा में आये सब लोग कोवेंट गार्डन में एक अफ्रीकी रेस्टोरेंट में खाना खाने गये. होटल से बस में बैठ कर चले. इन बीस सालों में जाने कितनी बार लंदन आया हूँ पर पहले कभी कोवेंट गार्डन नहीं गया था. जगह के नाम से मन में एक बाग की छवि थी लेकिन जब पहुँचे तो बहुत हैरानी हुई, आसपास बाग तो कोई नहीं था. कोवेंट गार्डन शहर के बीचों बीच सब्ज़ी और फ़ूलों की दूकानों की जगह है. वहाँ क्रिसमस के बाजारों और बच्चों के लगे खेलों से बहुत भीड़ भड़क्का था.
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दोपहर को सोचा कि हैमरस्मिथ के करीब जो थेम्स नदी बहती है, उसके किनारे सैर की जाये. नदी के किनारे सैर के लिए एक विषेश रास्ता बना है जो अधिकतर नदी के साथ साथ चलता है पर बीच में कई जगह घूम कर घरों के बीच पहुँच जाता है. घूमते घूमते कई मील दूर निकल गया. रास्ते में नदी के इलावा कई बाग भी देखे, एक में लड़के फुटबाल और अमरीकी सोक्कर खेल रहे थे. जब थक गया तो सोचा, बीच में से निकल कर सीधा वापस होटल पहुँच जाऊँगा पर बीच का रास्ता सीधा नहीं निकला. कुछ ही देर में घरों के बीच अनजान रास्तों पर खो गया था. बहुत देर तक सोचा कि किसी सी पूछूँ नहीं, पर जब दो घंटे के बाद भी समझ नहीं पा रहा था कि कहाँ आ गया, तो आखिर पूछना ही पड़ा. मालूम पड़ा जहाँ जाना था उसके बिल्कुल उल्टा आ गया था तो वापस आने के लिए बस लेनी पड़ी.
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अखबार में लिखा है कि कल लंदन से करीब ३० मील दूर पेट्रिल के बड़े भंडार में बहुत बड़ा विस्फोट हुआ और ७५ कि.मी. तक आसमान काले धूँए से भरा था. उसी से याद आया कि कल शाम को त्रफालगर स्कावयर में ओपेरा के भवन के पीछे बहुत काला घना बादल नज़र आ रहा था, शायद वह यही धूँआ था ? यहाँ तो हर बार कुछ न कुछ हो ही जाता है. मुझे तो घर वापस जाने की खुशी है!
प्रस्तुत हैं इसी यात्रा से दो तस्वीरें. अगर आप चाहें तो इस यात्रा की पूरी डायरी भी पढ़ सकते हैं.
सोमवार, दिसंबर 05, 2005
चिंडिया चमकेगी ?
कांग्रेस से आर्थिक विभाग के सदस्य जयराम रमेश ने अपनी नयी पुस्तक में एक नया शब्द बनाया है जो आने वाले सालों में शायद बहुत लोकप्रिय और जाना पहचाना बन जाये. यह शब्द है चिंडिया, यानि चीन और इंडिया को मिला कर नयी उभरती विश्व की महाशक्ति जिससे आज की विश्वशक्तियों, अमरीका, यूरोप, जापान को चिंता होने लगी है.
कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले जब चीन के प्रधान मंत्री भारत यात्रा पर आया थे तो उन्होंने कहा कि चीन विश्व का हार्डवेयर बादशाह बनेगा और भारत सोफ्टवेयर की रानी. एक शरीर की हड्डी और माँस पेशियाँ देगा और दूसरा उन्हे चलाने के लिए दिमाग. यानि, चीन और भारत का भविष्य एक दूसरे के विरुद्ध सोचना नहीं होना चाहिये, बल्कि उनके परस्पर संबंधों की प्रेरणा होनी चाहिये, भारतीय अर्धनारीश्वर या चीनी यिन और यांग, साथ मिल कर वह इतने मजबूत हो जायें कि उनके सामने कोई अन्य न टिक पाये.
इसी से विश्व महाशक्तियों के नीतिज्ञ इस समस्या का विवेचन कर रहे हें और इससे निपटने के मंसूबे बना रहे हैं. इतालवी पत्रिका लीमुस जो अंग्रेजी में भी इक पत्रिका निकालती है "हार्टलैंड", ने अपना एक पूरा अंक "चिंडिया" पर ही रखा है. चीनी इरादों के खिलाफ एक भारत और अमरीका की जोड़ी बनायी जाये का सुझाव बहुत लेखक और नीतिज्ञ देते हैं, विषेशकर अमरीका को. कहते हें कि भारत और अमरीका तो मनमोहन देसाई की फिल्म के बचपन में बिछुड़े अमर और एनथनी हैं जिन्हें अब मिल जाना चाहिये. दूसरी ओर कुछ लेख भारत और चीन के बीच बढ़ते राजनीतिक, अर्थिक संबंधों को देख कर कहते हें कि रुस के साथ मिल कर इन देशों ने अपना रास्ता अलग बनाना शुरु कर दिया है, और प्रगति और विकास की राह पर से इनका पीछे हटना कठिन है.
इस पत्रिका के विंडिया अंक को आप अंतरजाल पर मुफ्त पढ़ सकते हैं. अन्य लेखों के अतिरिक्त, मुझे इसमें श्री कें.पी एस.गिल का लेख जो सांप्रदायिक दंगो के ऊपर है, दिलचस्प लगा.
******
पिछले कुछ दिनों से मुझे ब्लागर.कोम पर संदेश और तस्वीर चढ़ाने में दिक्कत हो रही है. आज इसीलिए कोई तस्वीर नहीं जोड़ पाया. जाने क्या हो जाता है अचानक, बीच बीच में ! कल मुझे विदेश यात्रा पर ८ दिन के जाना है. शायद वापस आने तक यह ठीक हो जाये !
कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले जब चीन के प्रधान मंत्री भारत यात्रा पर आया थे तो उन्होंने कहा कि चीन विश्व का हार्डवेयर बादशाह बनेगा और भारत सोफ्टवेयर की रानी. एक शरीर की हड्डी और माँस पेशियाँ देगा और दूसरा उन्हे चलाने के लिए दिमाग. यानि, चीन और भारत का भविष्य एक दूसरे के विरुद्ध सोचना नहीं होना चाहिये, बल्कि उनके परस्पर संबंधों की प्रेरणा होनी चाहिये, भारतीय अर्धनारीश्वर या चीनी यिन और यांग, साथ मिल कर वह इतने मजबूत हो जायें कि उनके सामने कोई अन्य न टिक पाये.
इसी से विश्व महाशक्तियों के नीतिज्ञ इस समस्या का विवेचन कर रहे हें और इससे निपटने के मंसूबे बना रहे हैं. इतालवी पत्रिका लीमुस जो अंग्रेजी में भी इक पत्रिका निकालती है "हार्टलैंड", ने अपना एक पूरा अंक "चिंडिया" पर ही रखा है. चीनी इरादों के खिलाफ एक भारत और अमरीका की जोड़ी बनायी जाये का सुझाव बहुत लेखक और नीतिज्ञ देते हैं, विषेशकर अमरीका को. कहते हें कि भारत और अमरीका तो मनमोहन देसाई की फिल्म के बचपन में बिछुड़े अमर और एनथनी हैं जिन्हें अब मिल जाना चाहिये. दूसरी ओर कुछ लेख भारत और चीन के बीच बढ़ते राजनीतिक, अर्थिक संबंधों को देख कर कहते हें कि रुस के साथ मिल कर इन देशों ने अपना रास्ता अलग बनाना शुरु कर दिया है, और प्रगति और विकास की राह पर से इनका पीछे हटना कठिन है.
इस पत्रिका के विंडिया अंक को आप अंतरजाल पर मुफ्त पढ़ सकते हैं. अन्य लेखों के अतिरिक्त, मुझे इसमें श्री कें.पी एस.गिल का लेख जो सांप्रदायिक दंगो के ऊपर है, दिलचस्प लगा.
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पिछले कुछ दिनों से मुझे ब्लागर.कोम पर संदेश और तस्वीर चढ़ाने में दिक्कत हो रही है. आज इसीलिए कोई तस्वीर नहीं जोड़ पाया. जाने क्या हो जाता है अचानक, बीच बीच में ! कल मुझे विदेश यात्रा पर ८ दिन के जाना है. शायद वापस आने तक यह ठीक हो जाये !
गुरुवार, दिसंबर 01, 2005
साईकल छाप
मुझे अपनी पहली साईकल मिली जब मैं आठवीं कक्षा में पहुँचा. मेरा विद्यालय अंग्रेजों के जमाने का था. कहते थे कि अंग्रेजों के जमाने में सर्दियों में कक्षाएँ दिल्ली में लगतीं और गर्मियों में शिमला में. बिरला मंदिर से जुड़ा हुए विद्यालय का नाम ऐसा कि विद्यालय शब्द उस के साथ ठीक नहीं बैठता, हारकोर्ट बटलर स्कूल. अन्य विद्यालयों के बच्चे हमें छेड़ने के लिए बटलर यानि खानसामा बुलाते. श्रीमान बटलर जी १९१८ में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए थे और उनके नाम से कई संस्थाएँ बनी हैं. बेचारी हिंदी और बेचारा भारत वर्ष, आज से पचास पहले भी अंग्रेजी बोलने और कोनवेंट स्कूलों में पढ़ने का ही रोब था इसलिए जब किसी को स्कूल का नाम बताते, अच्छा असर पड़ता था.
खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का, न यह डर कि तेज कार चलाने वाले आप को नीचे गिरा दें.
तब मन में कभी यह भाव नहीं आया कि साईकल चलाना हमारे सम्मान या शान को कम करता है. तब भी वेस्पा और लेम्बरेटा होते तो थे पर इतने कम कि उनके लिए लोगों में लालच नहीं बना था. स्कूल के बाद कोलिज जाना शुरु किया तो भी साईकल से ही जाते. पर जब कोलिज से निकले तो जमाना बदल चुका था. बजाज और चेतक जैसे स्कूटर बाजार में आ रहे थे. बहुत महीने पहले उनकी बुकिंग करानी पड़ती, तब जा कर मिलते. लगा जैसे अचानक साईकल चलाना हीन बन गया हो, गरीबी की निशानी, स्कूटर न खरीद पाने की निशानी. हमारी साईकल भी रख दी गयी और कुछ दिन खाली रहने के बाद, मां के विद्यालय का माली उसे ले गया.
कुछ और दस सालों के बाद दुनिया फिर बदली. बाजार में मारुती आयी थी और मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ और ऊपर बढ़ीं. गाड़ी होनी चाहिये साहब, वरना जीवन में क्या रुतबा है. हमारा बजाज भी गया और उसकी जगह आयी नयी मारुती. अब शायद दिल्ली जाऊँ तो साइकल पर चढ़ने की हिम्मत नहीं होगी. लगता है कि वहाँ का सबसे प्रमुख यातायात नियम है, "जिसका जोर उसी का अधिकार". शायद साइकल वाले भी पैदल चलने वालों पर धौंस जमाते हों, पर स्कूटर और कारों के सामने बेचारे साईकल वाले बहुत सावधान रहते हैं.
और आज इटली में ? नयी दुनिया और नये विचार. एक तरफ बढ़ता वजन और रक्तचाप, हर कोई यही सलाह देता है कि व्यायाम कीजिये और वजन कम कीजिये. दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जानकारी और समझ बढ़ी है. साईकल से बढ़िया इलाज क्या मिलता. गर्मियों में काम पर जाने के लिए साईकल पर ही जाता हूँ, आठ किलोमीटर का ही तो रास्ता है, जिसका बहुत सा भाग बागों और खेतों के बीच में गुजरता है. किसी लाल बत्ती पर एक के पीछे एक लगी गाड़ियों की कतार को देखता हूँ, हर गाड़ी में लोग गुस्से वाले चेहरे लिए बैठे होते हैं, तो मन को बहुत खुशी होती है, उनके बीच में से सीटी बजाते हुए गुजरते हुए फट से निकल जाने में ! साईकल छाप हूँ मैं और इसका गर्व है मुझे.
आज की तस्वीर भी बटलर स्कूल के साथियों की याद में.
खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का, न यह डर कि तेज कार चलाने वाले आप को नीचे गिरा दें.
तब मन में कभी यह भाव नहीं आया कि साईकल चलाना हमारे सम्मान या शान को कम करता है. तब भी वेस्पा और लेम्बरेटा होते तो थे पर इतने कम कि उनके लिए लोगों में लालच नहीं बना था. स्कूल के बाद कोलिज जाना शुरु किया तो भी साईकल से ही जाते. पर जब कोलिज से निकले तो जमाना बदल चुका था. बजाज और चेतक जैसे स्कूटर बाजार में आ रहे थे. बहुत महीने पहले उनकी बुकिंग करानी पड़ती, तब जा कर मिलते. लगा जैसे अचानक साईकल चलाना हीन बन गया हो, गरीबी की निशानी, स्कूटर न खरीद पाने की निशानी. हमारी साईकल भी रख दी गयी और कुछ दिन खाली रहने के बाद, मां के विद्यालय का माली उसे ले गया.
कुछ और दस सालों के बाद दुनिया फिर बदली. बाजार में मारुती आयी थी और मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ और ऊपर बढ़ीं. गाड़ी होनी चाहिये साहब, वरना जीवन में क्या रुतबा है. हमारा बजाज भी गया और उसकी जगह आयी नयी मारुती. अब शायद दिल्ली जाऊँ तो साइकल पर चढ़ने की हिम्मत नहीं होगी. लगता है कि वहाँ का सबसे प्रमुख यातायात नियम है, "जिसका जोर उसी का अधिकार". शायद साइकल वाले भी पैदल चलने वालों पर धौंस जमाते हों, पर स्कूटर और कारों के सामने बेचारे साईकल वाले बहुत सावधान रहते हैं.
और आज इटली में ? नयी दुनिया और नये विचार. एक तरफ बढ़ता वजन और रक्तचाप, हर कोई यही सलाह देता है कि व्यायाम कीजिये और वजन कम कीजिये. दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जानकारी और समझ बढ़ी है. साईकल से बढ़िया इलाज क्या मिलता. गर्मियों में काम पर जाने के लिए साईकल पर ही जाता हूँ, आठ किलोमीटर का ही तो रास्ता है, जिसका बहुत सा भाग बागों और खेतों के बीच में गुजरता है. किसी लाल बत्ती पर एक के पीछे एक लगी गाड़ियों की कतार को देखता हूँ, हर गाड़ी में लोग गुस्से वाले चेहरे लिए बैठे होते हैं, तो मन को बहुत खुशी होती है, उनके बीच में से सीटी बजाते हुए गुजरते हुए फट से निकल जाने में ! साईकल छाप हूँ मैं और इसका गर्व है मुझे.
आज की तस्वीर भी बटलर स्कूल के साथियों की याद में.
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