जब भी दिल्ली के एशिया मानव अधिकार केंद्र का बुलेटिन (ACHR Review) मिलता है तो अक्सर मन में इस केंद्र के ज़िम्मेदार श्री सुहास चकमा की सराहना करने की इच्छा होती है. मानव अधिकारों की बात हो तो भारत के आसपास के सभी देशों के बारे में निर्भीक हो कर लिखते हैं. अपने बुलेटिन के नये अंक में उन्होंने भारत में मानव अधिकारों पर होने वाले प्रहारों की बात की है.
जब किसी देश के कानून से बाहर निकल कर लोग अपने हाथों में कानून ले लेते हैं और अगर उस देश में कानून की रक्षा करने की समर्थता या इच्छा नहीं होती तो धीरे धीरे यह बात सारे समाज को डसती है. यह बात वह ग्वाटेमाला और कोलोम्बिया के उदाहरण के साथ बताते हैं जहाँ की सरकारों ने अपने शत्रुओं के लड़ने के लिए कानून छोड़ कर कानून के बाहर निजी सैंनाओं का सहारा लिया और यही सैनाएँ काबू से बाहर निकल कर अत्याचार, खून, बदमाशी का खुला खेल खेलने लगीं.
उनका कहना है कि कलकत्ता में नंदीग्राम में सीपीआई मार्कसवादी दल द्वारा अपने गुँडों के सहारे लोगों को कुचलना जो जबरदस्ती जमीन छौने जाने का विरोध कर रहे थे, उड़ीसा सरकार द्वारा पोस्को स्टील प्लाँट का विरोध करने वालों का दमन, केरल में सीपीआई मार्कसवादी दल के लोगों द्वारा मुन्नार के आदिवासियों पर हमला, भारत में इस दिशा में बढ़ती प्रवृति का संकेत देती है और कहते हैं कि अगर सरकार इसपर रोक नहीं लगायेगी तो इसके परिणाम घातक होंगे.
सच बात है कि आज भारत में जिसमें थोड़ा सा भी दम हो, चाहे वह शिवसैनिक हों जो किसी फ़िल्म या पुस्तक या चित्र का विरोध कर रहे हों, चाहे वह रूढ़िवादी मुस्लमान हों जो किसी लेखिका का विरोध कर रहे हों, या सिख हों जो अपने धर्म का मजाक उड़ाने वाले की बात कर रहे हों, कानून क्या होता है यह नहीं जानना चाहते, सीधा दंगाफसाद तोड़फोड़ शुरु कर देते हैं, मरने मारने की धमकी देते हैं, जिसका मन करता है वह अपनी धार्मिक भावना को ठेस लगने का झँडा पकड़ कर खड़ा हो जाता है, और सरकार उन गुण्डागर्दी करने वालों के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाती, बल्कि उनका साथी बन कर लेखों, चित्रकारों, विचारकों पर मुकदमा कर ठोक देती है कि तुमने हमारे देश की शाँती को बिगाड़ा है, आग भड़कायी है. यह सभी जानते हैं कि किसी जिले के कमिशनर में अगर दम है तो अपने इलाके में दँगा फसाद होने नहीं देता, उसे सख्ती से रोक देता है पर अधिकाँश भारत में यह हिम्मत चुक गयी है.
तुरंत लाभ के लिए, चुनावों का सोच कर या गठबँधन का सोच कर या अन्य फायदे के लिए, सभी अपने मुँह आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं, चाहे वह काँग्रेस हो या बीजेपी या फ़िर कम्युनिस्ट पार्टी वाले. विकास, विदेशी अंदाज के बने माल, जगप्रसिद्ध ब्राँड की चाह, से अधिकतर लोगों की आँखें शायद चुँधिया गयीं हैं जो किसी को भी इस विकास में रुकावट बनता देखती हैं उसे मसल कर कुचल देती हैं या फ़िर उसे कुचलता देख कर भी अनदेखा कर देती हैं.
****
आज एक फ़िल्मी समाचार देखा जो राम गोपाल वर्मा की नयी फिल्म "सरकार राज" की बात कर रहा था जिसमें अमिताभ बच्चन, अभिशेख और एश्वर्य राय तीनों काम रहे हैं. उसमें लिखा है कि शायद यह फ़िल्म नंदीग्राम में हुए हादसे पर बनी है और नंदीग्राम में क्या हादसा हुआ उस पर लिखा है कि नंदीग्राम में एक बड़ा बाँध बन रहा है जिसका वहाँ के लोग विरोध कर रहे हैं.
गुरुवार, दिसंबर 13, 2007
सोमवार, दिसंबर 03, 2007
दुनिया मुर्गीखाना
कामेरून के कामगार यूनियन के बरनार्ड न्जोंगा (Berbnard Njonga) ने मुर्गी युद्ध का पहला दौर जीता है और दुनिया में भूमँडलिकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों के लिए उदाहरण बन गये हैं कि छोटे से गरीब देश का छोटा सा आदमी भी अगर चाहे तो बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों को पछाड़ सकता है. यह कहानी पढ़ी जर्मन पत्रिका डेर श्पीगल (Der Spiegel) में.
न्जोंगा की लड़ाई को समझने के लिए विश्व मुर्गा व्यापार के पीछे छिपी आर्थिक और सामाजिक जड़ों को समझना पड़ेगा. यह जड़ें शुरु होती हैं उत्री अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में जहाँ मुर्गी का माँस खाने का शौक तो है पर मुर्गी के शरीर के हर भाग की माँग बराबर नहीं है. यूरोप और अमरीका में सुपरमार्किट में मुर्गी की छाती का माँस सबसे अधिक बिकता है, तो बाकी बिना बिके हिस्सों का क्या किया जाये? मुर्गी का माँस बेचने वालों को केवल छाती के माँस बेचने से ही बहुत फायदा हो जाता है इसलिए वे मुर्गी के बचे हुए हिस्सों को कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार हैं. इसलिए मुर्गी की विभिन्न हिस्सों को बाजार में उनकी माँग के हिसाब से विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है, यानि पँजे वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों का रास्ता पकड़ते हैं और टाँगे अफ्रीका जाती हैं.
यही हुआ कामेरुन में, जब दो तीन साल पहले उनकी सुपरमार्किट में यूरोप से सस्ती मु्रगी की टाँगे बिकने लगीं, रातों रात कामेरुन के मुर्गी उत्पादको की बिक्री कम हो गयी. लोगों ने बैंक से पैसा उधार ले कर मुर्गी पालने के फार्म लगाये थे, पर उनकी मुर्गियों की कीमत विदेश से आयात किये माँस से अधिक थी तो लोग उनका मँहगा माँस क्यों खरीदते?
कामेरून की राजधानी याउँडे के एक मु्र्गी फार्म वाले के कहने पर न्जोंगा ने इस बात की जाँच शुरु की यह समझने के लिए यह माँस कहाँ से आता है, किसका फायदा हो रहा है. पहले कस्टम वालों को घूस दे कर उन्होंने कागज निकलवाये और देखा कि 70 प्रतिशत आयात होलैंड की एक कम्पनी से हो रहा था. फ़िर उन्हें शक हुआ कि इतनी दूर से यह माँस कैसे लाया जाता है, क्या इसे हमेशा ठँडी जगह रखने की सहूलियतें हैं और क्या माँस में कुछ खराबी तो नहीं. इसके लिए उन्होंने माँस की एक स्थानीय लेबोरेटरी से जाँच करायी, हालाँकि लेबोरेटरी वालों ने पूरी रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया क्योंकि इस आयात के पीछे कुछ नेता थे, फ़िर भी न्याँगा यह जानने में सफल रहे कि उस माँस में बेक्टीरिया की मात्रा अधिक थी.
इस सब जानकारी के आधार पर न्यांगा ने साथियों के साथ मिल कर पर्चे छपवाये और जनता में बाँटने लगे, सभाएँ की और लोगों को बताया कि किस तरह से कुछ लोग अपने लाभ के लिए इस माँस का आयात करवा रहे थे जिसमें बीमारियाँ फैलने की भी आशंकाएँ थीं. कोई न्जोंगा की बातों को गलत नहीं कह सकता था क्योंकि उसके पास सारे सबूत थे. जब इस बारे में जन असंतोष बढ़ा तो राष्ट्रपति को कहना ही पड़ा कि यह आयात बंद कर दिया जायेगा और आयातित माँस पर कर लगया गया जिससे उसकी कीमत स्थानीय माँस से अधिक हो गयी और न्जोंगा यह मुर्गी युद्ध जीत गये. बड़े कामरुन के बड़े नेताओं के साथ हारने वाला यूरोप भी है जो सब कुछ जान कर भी अपने उत्पादकों और कृषकों को बढ़ावा देता है कि अपने उत्पादन कम कीमत पर गरीब देशों में भेज कर वहाँ की आर्थिक स्थिति में तूफान मचा दें.
न्जोंगा की लड़ाई को समझने के लिए विश्व मुर्गा व्यापार के पीछे छिपी आर्थिक और सामाजिक जड़ों को समझना पड़ेगा. यह जड़ें शुरु होती हैं उत्री अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में जहाँ मुर्गी का माँस खाने का शौक तो है पर मुर्गी के शरीर के हर भाग की माँग बराबर नहीं है. यूरोप और अमरीका में सुपरमार्किट में मुर्गी की छाती का माँस सबसे अधिक बिकता है, तो बाकी बिना बिके हिस्सों का क्या किया जाये? मुर्गी का माँस बेचने वालों को केवल छाती के माँस बेचने से ही बहुत फायदा हो जाता है इसलिए वे मुर्गी के बचे हुए हिस्सों को कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार हैं. इसलिए मुर्गी की विभिन्न हिस्सों को बाजार में उनकी माँग के हिसाब से विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है, यानि पँजे वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों का रास्ता पकड़ते हैं और टाँगे अफ्रीका जाती हैं.
यही हुआ कामेरुन में, जब दो तीन साल पहले उनकी सुपरमार्किट में यूरोप से सस्ती मु्रगी की टाँगे बिकने लगीं, रातों रात कामेरुन के मुर्गी उत्पादको की बिक्री कम हो गयी. लोगों ने बैंक से पैसा उधार ले कर मुर्गी पालने के फार्म लगाये थे, पर उनकी मुर्गियों की कीमत विदेश से आयात किये माँस से अधिक थी तो लोग उनका मँहगा माँस क्यों खरीदते?
कामेरून की राजधानी याउँडे के एक मु्र्गी फार्म वाले के कहने पर न्जोंगा ने इस बात की जाँच शुरु की यह समझने के लिए यह माँस कहाँ से आता है, किसका फायदा हो रहा है. पहले कस्टम वालों को घूस दे कर उन्होंने कागज निकलवाये और देखा कि 70 प्रतिशत आयात होलैंड की एक कम्पनी से हो रहा था. फ़िर उन्हें शक हुआ कि इतनी दूर से यह माँस कैसे लाया जाता है, क्या इसे हमेशा ठँडी जगह रखने की सहूलियतें हैं और क्या माँस में कुछ खराबी तो नहीं. इसके लिए उन्होंने माँस की एक स्थानीय लेबोरेटरी से जाँच करायी, हालाँकि लेबोरेटरी वालों ने पूरी रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया क्योंकि इस आयात के पीछे कुछ नेता थे, फ़िर भी न्याँगा यह जानने में सफल रहे कि उस माँस में बेक्टीरिया की मात्रा अधिक थी.
इस सब जानकारी के आधार पर न्यांगा ने साथियों के साथ मिल कर पर्चे छपवाये और जनता में बाँटने लगे, सभाएँ की और लोगों को बताया कि किस तरह से कुछ लोग अपने लाभ के लिए इस माँस का आयात करवा रहे थे जिसमें बीमारियाँ फैलने की भी आशंकाएँ थीं. कोई न्जोंगा की बातों को गलत नहीं कह सकता था क्योंकि उसके पास सारे सबूत थे. जब इस बारे में जन असंतोष बढ़ा तो राष्ट्रपति को कहना ही पड़ा कि यह आयात बंद कर दिया जायेगा और आयातित माँस पर कर लगया गया जिससे उसकी कीमत स्थानीय माँस से अधिक हो गयी और न्जोंगा यह मुर्गी युद्ध जीत गये. बड़े कामरुन के बड़े नेताओं के साथ हारने वाला यूरोप भी है जो सब कुछ जान कर भी अपने उत्पादकों और कृषकों को बढ़ावा देता है कि अपने उत्पादन कम कीमत पर गरीब देशों में भेज कर वहाँ की आर्थिक स्थिति में तूफान मचा दें.
मंगलवार, नवंबर 27, 2007
पँखहीन मानव
हिंदी की मासिक पत्रिका हँस में पंकज बिष्ट की नयी लम्बी कहानी "पँखोंवाली नाव" पढ़ी, जो तीन भागों में प्रकाशित हुई है. कहानी का मु्ख्य पात्र है अनुपम, एक समलैंगिक युवक. हिंदी कथानकों में इस तरह के हाशिये से बाहर रहने वाले जीवनों के बारे में बहुत कम लिखा जाता है.
हिंदी लेखन आम तौर से यौन सम्बंधों के बारे में भी कम बात करता है. अग्रेजी साहित्य में यौन सम्बंधों के बारे में जिस तरह से स्पष्ट रुप से बात हो सकती है, हिंदी में उस तरह की बात लिखना अश्लीलता या फ़िर भौंडापन माने जाते हैं. इस तरह की सोच, यौन सम्बंध और यौन आचरण, जो जीवन अनुभव का अभिन्न अंग हैं, गम्भीर हिंदी लेखन में अनछुए से रह जाते हैं. यौन सम्बंधों और आचरण के बारे में लिखा कुछ मिल भी जाये, इस तरह की बात को समलैंगिकता के संदर्भ में सोचा भी नहीं जा सकता.
पंकज जी अपनी इस कहानी से दोनों लक्ष्मण रेखाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और मेरे विचार में यह सराहनीय बात है.
दलित जीवनों के बारे में लिखने का हक किसे है, इस बहस में एक तरफ से कहा जाता है कि दलित स्वयं ही अपने जीवन के बारे में लिख सकते हैं क्योंकि उनका लेखन अपने जीवन के अनुभव से निकलता है और उनका इस बारे में लिखना अधिक प्रमाणिक होता है. दूसरी ओर बात है कल्पना शक्ति की, लेखक को हर बात को अपने जीवन में अनुभव हो यह जरूरी नहीं, वे कहते हैं. अगर ये बात होती तो कोई कभी खून और चोरी के, या इतिहास के बारे में लिख ही न पाता. पर जब कोई लेखक अपनी कल्पना से किसी विषय में लिखता है तो यह प्रश्न उठता है कि लेखक को यह सब बातें कैसे मालूम हुईं, केवल इस विषय में पढ़ कर या फ़िर महाश्य स्वयं भी शायद .. क्या दलित जीवन के बारे में लिखने वाले लेखकों के बारे में इस तरह की बात उठती थी यह मुझे मालूम नहीं, पर अगर आप समलैंगिकता के बारे में लिखें तो शायद उठ सकती है?
शायद यही वजह है कि पंकज की कथा का समलैंगिक नायक अनुपम स्वयं अपनी आवाज़ में अपनी कहानी नहीं सुनाता, बल्कि उसकी कहानी सुनाता है उसका मित्र विक्रम, जो अनुपम को मित्र मानता है पर साथ ही अनुपम के अपने प्रति आकर्षण से डरता है और स्पष्ट कर देना चाहता है कि उसमें स्वयं में कोई समलैंगिक भावना नहीं:
इस तरह के विषयों पर हिंदी में लिखना आसान नहीं, और यह सब बातें विदेशी प्रभाव का नतीजा हैं, इसीलिए इन्हें केवल अँग्रेजी में ही कह सकते हैं? पंकज जी की कथा के पात्र भी बहुत सी बातें केवल अंग्रेजी में कहते हैं. पर शायद इसकी वजह यह भी है कि इस बारे में बात कम होती है, और जब हो सकेगी तो शायद उसके कहने और समझने के लिए हिंदी के शब्द भी मिल जायेंगे.
हिंदी लेखन आम तौर से यौन सम्बंधों के बारे में भी कम बात करता है. अग्रेजी साहित्य में यौन सम्बंधों के बारे में जिस तरह से स्पष्ट रुप से बात हो सकती है, हिंदी में उस तरह की बात लिखना अश्लीलता या फ़िर भौंडापन माने जाते हैं. इस तरह की सोच, यौन सम्बंध और यौन आचरण, जो जीवन अनुभव का अभिन्न अंग हैं, गम्भीर हिंदी लेखन में अनछुए से रह जाते हैं. यौन सम्बंधों और आचरण के बारे में लिखा कुछ मिल भी जाये, इस तरह की बात को समलैंगिकता के संदर्भ में सोचा भी नहीं जा सकता.
पंकज जी अपनी इस कहानी से दोनों लक्ष्मण रेखाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और मेरे विचार में यह सराहनीय बात है.
दलित जीवनों के बारे में लिखने का हक किसे है, इस बहस में एक तरफ से कहा जाता है कि दलित स्वयं ही अपने जीवन के बारे में लिख सकते हैं क्योंकि उनका लेखन अपने जीवन के अनुभव से निकलता है और उनका इस बारे में लिखना अधिक प्रमाणिक होता है. दूसरी ओर बात है कल्पना शक्ति की, लेखक को हर बात को अपने जीवन में अनुभव हो यह जरूरी नहीं, वे कहते हैं. अगर ये बात होती तो कोई कभी खून और चोरी के, या इतिहास के बारे में लिख ही न पाता. पर जब कोई लेखक अपनी कल्पना से किसी विषय में लिखता है तो यह प्रश्न उठता है कि लेखक को यह सब बातें कैसे मालूम हुईं, केवल इस विषय में पढ़ कर या फ़िर महाश्य स्वयं भी शायद .. क्या दलित जीवन के बारे में लिखने वाले लेखकों के बारे में इस तरह की बात उठती थी यह मुझे मालूम नहीं, पर अगर आप समलैंगिकता के बारे में लिखें तो शायद उठ सकती है?
शायद यही वजह है कि पंकज की कथा का समलैंगिक नायक अनुपम स्वयं अपनी आवाज़ में अपनी कहानी नहीं सुनाता, बल्कि उसकी कहानी सुनाता है उसका मित्र विक्रम, जो अनुपम को मित्र मानता है पर साथ ही अनुपम के अपने प्रति आकर्षण से डरता है और स्पष्ट कर देना चाहता है कि उसमें स्वयं में कोई समलैंगिक भावना नहीं:
उसके शरीर से उठती पसीने की गंध से उबकाई महसूस होने लगी. किसी विदेशी डीओडरेंट ने इसे और विकृत कर रखा था. पुरुष शरीर की गंध से इस तरह की वितृष्णा मुझे शायद ही उससे पहले कभी हुई हो. यह श्रम के पसीने की नहीं बल्कि वासना और विकृति की गंध थी. और यह विकृत हिंस्र दुर्गंध मुझे कई दिनों तक परेशान करती रही.अगर पात्र समलैंगिक है तो उसकी जीवन कथा में अलग अलग लोगों से प्रेम सम्बंधों की बात होगी, अपमान और शोषण की बात होगी, हिंसा की बात होगी, एडस या अन्य बीमारियाँ होगी, तिरस्कार और ठुकराये जाने की बात होगी, नशे और बेलगाम जीवन की बात होगी, नौकरी बदलने की विवशता होगी ही. अगर हिंदी में इस बारे में कम लिखा गया है तो नया लग सकता है पर इसमें नया क्या है? समलैंगिक जीवनों का सत्य यही तो होता है? मुझे लगता है कि समलैंगिक जीवनों का यह सत्य केवल विषमलैंगिकों द्वारा देखा हुआ सच है और समलैंगिक जीवनों के अन्य सच भी हो सकते हैं जिन्हें समझना या कहना हमें नहीं आया?
इस तरह के विषयों पर हिंदी में लिखना आसान नहीं, और यह सब बातें विदेशी प्रभाव का नतीजा हैं, इसीलिए इन्हें केवल अँग्रेजी में ही कह सकते हैं? पंकज जी की कथा के पात्र भी बहुत सी बातें केवल अंग्रेजी में कहते हैं. पर शायद इसकी वजह यह भी है कि इस बारे में बात कम होती है, और जब हो सकेगी तो शायद उसके कहने और समझने के लिए हिंदी के शब्द भी मिल जायेंगे.
सोमवार, नवंबर 26, 2007
भारतीय मित्र
प्रियंकर ने बताया था कि उनके एक पुलिसवाले मित्र यहाँ इटली में एक कोर्स के सिलसिले में आ रहे हैं. नाम है महेन्द्र कुमार पूनिया और आईपीएस अफसर होने के साथ साथ कवि भी हैं. तो कुछ अजीब सा लगा.
पहले कभी पुलिस में काम करने वाले किसी को नहीं जानने का मौका मिला था. बचपन का एक साथी इन्जीनियर की पढ़ाई के बाद वायु सेना में भरती हुआ था तो मुझे लगा था कि वह बदल गया हो और जब छुट्टियों में घर आता तो उससे बहुत बहस होती. मुझे लगता कि उसे अपने से भिन्न बात सुनने की आदत ही न हो, बस "यस सर, यस सर" की आदत हो. शायद उस याद का प्रभाव था कि पुलिसवाला शब्द को सुन कर कविता का विचार तो बिल्कुल नहीं आता मन में.
कल संदेश भेजा महेंन्द्र ने कि उनका गुट रोम से वापस विचेंजा जाते हुए हमारे शहर बोलोनिया में यहाँ के स्थानीय पुलिस की मेस में खाना के लिए कुछ देर रुकेगा और यह मिलने का अच्छा मौका होगा. तो कल रात को बेटे को कहा कि वह मेरे साथ चले क्योंकि रात को वैसे ही गाड़ी चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा यह कि, वह पुलिस मेस हमारे घर से बिल्कुल दूसरे कोने में है और उस इलाके की मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं.
महेंद्र से मिलना बहुत अच्छा लगा. दिखने में वह पुलिसवाले कम कवि ही अधिक दिखते हैं. उन्होंने कुछ अपनी कविताएँ भी पढ़ने को दीं. उनमें से एक कविता "कश्मीर" की कुछ पंक्तियाँ हैं:
क्या चिनार के पेड़ पर
एक भी पत्ता नहीं है
बलात्कृत दोशीजा का तन ढकने को?
क्यों झुक गया है
पोपलर का आकाश में तना हुआ शीश?
क्यों रो रहे हैं विलो
झेलम के किनारे सिर झुकाए हुए?
क्यों सारी की सारी काँगलिड़याँ
ठण्डी हो गयीं हो हैं
और शीतल घाटियाँ आग उगल रही हैं?
महेंद्र से सिलीगुड़ी की कुछ बातें करके बचपन के दिनों की याद ताजा करली जब सिलीगुड़ी और अलीपुरद्वार की ओर गर्मियों की छुट्टियों में मौसी के पास जाते थे. महेंद्र ने मिलवाया अपने एक साथी सत्यानारायण सबत से हैं तो उड़िया, पर रहते हैं वाराणसी में और उत्तरप्रदेश में काम कर रहे हैं. सत्यनारायण जी भी लेखक हैं, मानव अधिकार पर लिखते हैं और इस सिलसिले में मानव अधिकार कमिशन का पुरस्कार भी पा चुके हैं.
दोनो लेखकों से बात करने का अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि खाने के बाद तुरंत उन्हें यात्रा पर निकलना था. मौका मिला कि भारत से आये बाकी दल से भी नमस्ते कहने का मौका मिले. दल में 13 लोग हैं जिनमें तीन महिलाएँ भी हैं. कोई हिमाचल से, कोई तमिलनाड से, कोई मध्य प्रदेश से, कोई उत्तरप्रदेश से, सारे भारत के विभिन्न कोनों से आये यह पुलिस और सुरक्षा के विभिन्न विभागों के लोग यहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ के शाँति मिशन के सिलसिले में कोर्स करने आये हैं. उनमें से कई लोग पहले भी शाँति मिशन में कोसोवो, बोसनिया जैसी जगहों पर काम कर चुके हैं.
जब वे लोग बस में बैठने लगे तो विदा कहते हुए मन में थोड़ा सा दुख सा, भारत से इतने लोग आये थे अगर सब को ठीक से जानने समझने का मौका मिलता तो कितना अच्छा होता!
प्रस्तुत हैं कल रात की इस मुलाकात की दो तस्वीरें. पहली तस्वीर में बायें से हैं सत्यनारायण, मैं, महेंद्र और मेरा बेटा मारको तुषार. दूसरी तस्वीर में भारतीय दल के कुछ लोग.
पहले कभी पुलिस में काम करने वाले किसी को नहीं जानने का मौका मिला था. बचपन का एक साथी इन्जीनियर की पढ़ाई के बाद वायु सेना में भरती हुआ था तो मुझे लगा था कि वह बदल गया हो और जब छुट्टियों में घर आता तो उससे बहुत बहस होती. मुझे लगता कि उसे अपने से भिन्न बात सुनने की आदत ही न हो, बस "यस सर, यस सर" की आदत हो. शायद उस याद का प्रभाव था कि पुलिसवाला शब्द को सुन कर कविता का विचार तो बिल्कुल नहीं आता मन में.
कल संदेश भेजा महेंन्द्र ने कि उनका गुट रोम से वापस विचेंजा जाते हुए हमारे शहर बोलोनिया में यहाँ के स्थानीय पुलिस की मेस में खाना के लिए कुछ देर रुकेगा और यह मिलने का अच्छा मौका होगा. तो कल रात को बेटे को कहा कि वह मेरे साथ चले क्योंकि रात को वैसे ही गाड़ी चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा यह कि, वह पुलिस मेस हमारे घर से बिल्कुल दूसरे कोने में है और उस इलाके की मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं.
महेंद्र से मिलना बहुत अच्छा लगा. दिखने में वह पुलिसवाले कम कवि ही अधिक दिखते हैं. उन्होंने कुछ अपनी कविताएँ भी पढ़ने को दीं. उनमें से एक कविता "कश्मीर" की कुछ पंक्तियाँ हैं:
क्या चिनार के पेड़ पर
एक भी पत्ता नहीं है
बलात्कृत दोशीजा का तन ढकने को?
क्यों झुक गया है
पोपलर का आकाश में तना हुआ शीश?
क्यों रो रहे हैं विलो
झेलम के किनारे सिर झुकाए हुए?
क्यों सारी की सारी काँगलिड़याँ
ठण्डी हो गयीं हो हैं
और शीतल घाटियाँ आग उगल रही हैं?
महेंद्र से सिलीगुड़ी की कुछ बातें करके बचपन के दिनों की याद ताजा करली जब सिलीगुड़ी और अलीपुरद्वार की ओर गर्मियों की छुट्टियों में मौसी के पास जाते थे. महेंद्र ने मिलवाया अपने एक साथी सत्यानारायण सबत से हैं तो उड़िया, पर रहते हैं वाराणसी में और उत्तरप्रदेश में काम कर रहे हैं. सत्यनारायण जी भी लेखक हैं, मानव अधिकार पर लिखते हैं और इस सिलसिले में मानव अधिकार कमिशन का पुरस्कार भी पा चुके हैं.
दोनो लेखकों से बात करने का अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि खाने के बाद तुरंत उन्हें यात्रा पर निकलना था. मौका मिला कि भारत से आये बाकी दल से भी नमस्ते कहने का मौका मिले. दल में 13 लोग हैं जिनमें तीन महिलाएँ भी हैं. कोई हिमाचल से, कोई तमिलनाड से, कोई मध्य प्रदेश से, कोई उत्तरप्रदेश से, सारे भारत के विभिन्न कोनों से आये यह पुलिस और सुरक्षा के विभिन्न विभागों के लोग यहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ के शाँति मिशन के सिलसिले में कोर्स करने आये हैं. उनमें से कई लोग पहले भी शाँति मिशन में कोसोवो, बोसनिया जैसी जगहों पर काम कर चुके हैं.
जब वे लोग बस में बैठने लगे तो विदा कहते हुए मन में थोड़ा सा दुख सा, भारत से इतने लोग आये थे अगर सब को ठीक से जानने समझने का मौका मिलता तो कितना अच्छा होता!
प्रस्तुत हैं कल रात की इस मुलाकात की दो तस्वीरें. पहली तस्वीर में बायें से हैं सत्यनारायण, मैं, महेंद्र और मेरा बेटा मारको तुषार. दूसरी तस्वीर में भारतीय दल के कुछ लोग.
बुधवार, नवंबर 21, 2007
लागा फेफड़ों मे दाग बचायें कैसे
आज के जीवन में प्रदूषण का कितना असर है इसे बड़े शहरों मे रहने वाले अच्छी तरह जानते हैं. घर से बाहर निकलो बस इसी से सब कपड़े मैले हो जाते हैं. बीस साल पहले जब दिल्ली में काम करता था तो लगता था कि प्रदूषण की वजह से साँस की तकलीफ़ वाले लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही थी. जब दीवाली आती तो सभी दमे के मरीज कोशिश में लग जाते कि इस बार बढ़ते प्रदूषण की मार से कैसे बचा जाये. लोग घर के दरवाजों को गीले कपड़ों से बंद कर के बाहर की हवा को भीतर आने से रोकते, किसी के पास साधन होते तो वह दीवाली के दिनों में दिल्ली से बाहर चला जाता. दिल्ली छोड़ने के बाद जब भी वापस भारत जाता तो लगता कि दिल्ली का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. केवल पिछले कुछ सालों से जब से सभी टैक्सी, बसों और आटो को जीपीएल का उपयोग करने को बाध्य किया गया तो प्रदूषण कुछ कम हुआ लगता है पर कारों की और अन्य वाहनों की सँख्या बढ़ती जाती है तो प्रदूषण को तो बढ़ना ही है.
दो दिन पहले यहाँ बोलोनिया में भारत के आन्ध्र प्रदेश के गुँटूर शहर से मेयर श्री कन्ना नागाराजू आये. गुँटूर तथा बोलोनिया के बीच प्रदूषण कम करने का एक प्रजोक्ट चल रहा है, उसी सिलसिले में नागाराजू जी यहाँ आये हैं. वह गुँटूर में सामान्य प्रदूषण से कैसे लड़ रहे हैं इसके बारे में मैं उनका भाषण सुनने गया. 27 वर्षीय नागाराजू दो साल पहले मेयर बने, और शायद भारत में या विश्व में वह सबसे कम उम्र के मेयर हैं. मकेनिकल एनजींयर में बीटेक पास नागाराजू का कहना था कि उन्होंने गुँटूर में प्रदूषण को कम करने के लिए बहुत कुछ किया है जैसे कि पीने की पानी की जाँच ताकि घरों में स्वच्छ पानी दिया जाये, घर घर से कूड़ा इक्ट्ठा करने का नया तरीका, यातायात को सरल करने के तरीके और शहर में पेड़ों और हरियाली को बढ़ावा, नये बाग इत्यादि. उनके कहने से लगा कि गुँटूर शहर ने बहुत तरक्की की है. (तस्वीर में नागाराजु)
नागाराजू जी के कहने में कितनी सच्चाई है और कितनी राजनीतिक भाषणबाजी यह तो गुँटूर में रहने वाले ही बता सकते हैं, हालाँकि मुझे लगता है कि आज विकास और प्रदूषण दोनों साथ साथ कदम कदम मिला कर चलते हैं. गरीबों के साथ काम करने वाले कुछ मित्रों और साथियों को इस तरह के विकास के विरुद्ध बात करते सुना है पर मुझे नहीं लगता कि आज कोई यह मानेगा कि अपना सादा सरल जीवन जिसमें सदियों की चली आ रही परम्पराएँ बनी हैं, उसको बना कर रखने के लिए उद्योगिक विकास को रोकना चाहिये. यह कोशिश करना कि विकास इस तरह का हो जिसमें गरीब, कम पढ़े लिखे, दलित और अल्पसँख्यकों को भी विकसित होने का मौका मिले, यही आज सबसे बड़े सँघर्ष की बात है.
साथ ही यह चाहना कि विकास इस तरह का हो जिससे प्रदूषण न बढ़े भी महत्वपूर्ण है पर यह कहाँ तक हो पायेगा?
*****
एक नयी वेबसाईट बनी है कारमा डोट काम जहाँ दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट के बारे में जानकारी दी गयी है. दुनिया के पचास सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट में से 7 अमरीका में हैं, 2 जर्मनी में, 5 दक्षिण कोरिया में, 15 चीन में और 4 भारत में.
भारत के सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले पावर प्लाँट हैं - वाराणसी के पास विंध्याचल प्लाँट जो प्रदूषण में दुनिया में छठे नम्बर पर है, उत्तरी आँध्रप्रदेश में रामागुंडम प्लाँट जो दुनिया में तीसवें स्थान पर है, तमिलनाडू में नेयवेली जो दुनिया में छत्तीसवें स्थान पर है और उत्तरी उड़ीसा में तलछेर जो दुनिया में सेंतिसवे स्थान पर है.
अच्छे कारखाने जहाँ बिजली का उत्पादन अधिक हो और प्रदूषण न के बराबार, अधिकतर पश्चिमी योरोप में हैं और कुछ एक अमरीका में. भारत में इस तरह का कोई पावर प्लाँट नहीं है.
पिछले सात सालों में विकास के साथ साथ भारत में कार्बन डाईओक्साईड की मात्रा बढ़ी है. सन 2000 में यह मात्रा थी करीब 46 करोड़ टन, आज यह मात्रा है 58 करोड़ टन और विकास की इसी दर पर भविष्य में यह मात्रा बढ़ कर हो जायेगी 148 करोड़ टन. यानि अगर आप अभी प्रदूषण का रोना रो रहे हैं तो भविष्य में यह तीन गुना बढ़ जायेगा क्योंकि विकास चाहिये तो प्रदूषण तो होगा ही और साँस की बीमारियाँ भी.
चीन में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 126 करोड़ टन, आज है 268 करोड़ टन और इसी दर से विकास होता रहा तो भविष्य में हो जायेगी 427 करोड़ टन. यानि भविष्य में चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश होगा. इसी प्रदूषण से हम अंदाजा लगा सकता हैं कि भारत चीन से कितना पीछे है.
चीन की तो इतनी जनसँख्या है पर अमरीका जिसकी जनसँख्या चीन से चार या पाँच गुना कम है आज दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण करने वाला देश है. अमरीका की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 276 करोड़, आज है 303 करोड़ और भविष्य में हो जायेगी 368 करोड़. इन सबके मुकाबले में अफ्रीका सबसे दुनिया में प्रदूषण करने में सबसे पीछे है. पूरे अफ्रीका महाद्वीप की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 27 करोड़, आज है 34 करोड़ और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 48 करोड़.
पर क्या हमें यही विकास चाहिये जिससे जीवन बीमारियों से भर जाये? या फ़िर प्रदूषण की वजह से वातावरण और मौसम सब बदल जायें?
पर योरोप को देखें तो लगता है कि प्रदूषण कम करके भी विकास सँभव है. पूरे यूरोप में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में 157 करोड़ टन थी, आज है 178 करोड़ टन और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 248 करोड़ टन.
जब कोई कहता है कि दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, समुद्रों का स्तर ऊपर जा रहा है, दुनिया को भारत और चीन के विकास से खतरा है तो मुझे गुस्सा आता है. जो देश आज सबसे अधिक प्रदूषण करते हैं वही उपदेश दे रहे हैं कि भारत और चीन को विकास की गति कम कर देनी चाहिये या विभिन्न तरह का विकास खोजना चाहिये. पर फ़िर लोगों का प्रदूषण से क्या हाल होगा यह सोच कर लगता है भारतीय वैज्ञानिकों को नये तरीके खोजने होंगे जिनसे ऊर्जा तो मिले पर प्रदूषण कम हो. विकसित देशों ने अपने विकास और समृद्धी की नीव अपनी तकनीकी को कोपीराईट के पीछे छुपा कर उससे पैसा कमा कर बनायी है, क्या भारत ऐसा कर पायेगा कि कम प्रदूषण करने वाली नयी तकनीकों का आविष्कार करे और उनसे अन्य विकासशील देशों की सहायता करे ताकि अन्य देश भी उन तकनीकों का फायदा उठा सकें?
यह तो केवल सपने हैं, पर अगर आप को प्रदूषण के विषय में दिलचस्पी है तो कारमा की वेबसाईट को अवश्य देखियेगा.
दो दिन पहले यहाँ बोलोनिया में भारत के आन्ध्र प्रदेश के गुँटूर शहर से मेयर श्री कन्ना नागाराजू आये. गुँटूर तथा बोलोनिया के बीच प्रदूषण कम करने का एक प्रजोक्ट चल रहा है, उसी सिलसिले में नागाराजू जी यहाँ आये हैं. वह गुँटूर में सामान्य प्रदूषण से कैसे लड़ रहे हैं इसके बारे में मैं उनका भाषण सुनने गया. 27 वर्षीय नागाराजू दो साल पहले मेयर बने, और शायद भारत में या विश्व में वह सबसे कम उम्र के मेयर हैं. मकेनिकल एनजींयर में बीटेक पास नागाराजू का कहना था कि उन्होंने गुँटूर में प्रदूषण को कम करने के लिए बहुत कुछ किया है जैसे कि पीने की पानी की जाँच ताकि घरों में स्वच्छ पानी दिया जाये, घर घर से कूड़ा इक्ट्ठा करने का नया तरीका, यातायात को सरल करने के तरीके और शहर में पेड़ों और हरियाली को बढ़ावा, नये बाग इत्यादि. उनके कहने से लगा कि गुँटूर शहर ने बहुत तरक्की की है. (तस्वीर में नागाराजु)
नागाराजू जी के कहने में कितनी सच्चाई है और कितनी राजनीतिक भाषणबाजी यह तो गुँटूर में रहने वाले ही बता सकते हैं, हालाँकि मुझे लगता है कि आज विकास और प्रदूषण दोनों साथ साथ कदम कदम मिला कर चलते हैं. गरीबों के साथ काम करने वाले कुछ मित्रों और साथियों को इस तरह के विकास के विरुद्ध बात करते सुना है पर मुझे नहीं लगता कि आज कोई यह मानेगा कि अपना सादा सरल जीवन जिसमें सदियों की चली आ रही परम्पराएँ बनी हैं, उसको बना कर रखने के लिए उद्योगिक विकास को रोकना चाहिये. यह कोशिश करना कि विकास इस तरह का हो जिसमें गरीब, कम पढ़े लिखे, दलित और अल्पसँख्यकों को भी विकसित होने का मौका मिले, यही आज सबसे बड़े सँघर्ष की बात है.
साथ ही यह चाहना कि विकास इस तरह का हो जिससे प्रदूषण न बढ़े भी महत्वपूर्ण है पर यह कहाँ तक हो पायेगा?
*****
एक नयी वेबसाईट बनी है कारमा डोट काम जहाँ दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट के बारे में जानकारी दी गयी है. दुनिया के पचास सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट में से 7 अमरीका में हैं, 2 जर्मनी में, 5 दक्षिण कोरिया में, 15 चीन में और 4 भारत में.
भारत के सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले पावर प्लाँट हैं - वाराणसी के पास विंध्याचल प्लाँट जो प्रदूषण में दुनिया में छठे नम्बर पर है, उत्तरी आँध्रप्रदेश में रामागुंडम प्लाँट जो दुनिया में तीसवें स्थान पर है, तमिलनाडू में नेयवेली जो दुनिया में छत्तीसवें स्थान पर है और उत्तरी उड़ीसा में तलछेर जो दुनिया में सेंतिसवे स्थान पर है.
अच्छे कारखाने जहाँ बिजली का उत्पादन अधिक हो और प्रदूषण न के बराबार, अधिकतर पश्चिमी योरोप में हैं और कुछ एक अमरीका में. भारत में इस तरह का कोई पावर प्लाँट नहीं है.
पिछले सात सालों में विकास के साथ साथ भारत में कार्बन डाईओक्साईड की मात्रा बढ़ी है. सन 2000 में यह मात्रा थी करीब 46 करोड़ टन, आज यह मात्रा है 58 करोड़ टन और विकास की इसी दर पर भविष्य में यह मात्रा बढ़ कर हो जायेगी 148 करोड़ टन. यानि अगर आप अभी प्रदूषण का रोना रो रहे हैं तो भविष्य में यह तीन गुना बढ़ जायेगा क्योंकि विकास चाहिये तो प्रदूषण तो होगा ही और साँस की बीमारियाँ भी.
चीन में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 126 करोड़ टन, आज है 268 करोड़ टन और इसी दर से विकास होता रहा तो भविष्य में हो जायेगी 427 करोड़ टन. यानि भविष्य में चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश होगा. इसी प्रदूषण से हम अंदाजा लगा सकता हैं कि भारत चीन से कितना पीछे है.
चीन की तो इतनी जनसँख्या है पर अमरीका जिसकी जनसँख्या चीन से चार या पाँच गुना कम है आज दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण करने वाला देश है. अमरीका की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 276 करोड़, आज है 303 करोड़ और भविष्य में हो जायेगी 368 करोड़. इन सबके मुकाबले में अफ्रीका सबसे दुनिया में प्रदूषण करने में सबसे पीछे है. पूरे अफ्रीका महाद्वीप की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 27 करोड़, आज है 34 करोड़ और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 48 करोड़.
पर क्या हमें यही विकास चाहिये जिससे जीवन बीमारियों से भर जाये? या फ़िर प्रदूषण की वजह से वातावरण और मौसम सब बदल जायें?
पर योरोप को देखें तो लगता है कि प्रदूषण कम करके भी विकास सँभव है. पूरे यूरोप में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में 157 करोड़ टन थी, आज है 178 करोड़ टन और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 248 करोड़ टन.
जब कोई कहता है कि दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, समुद्रों का स्तर ऊपर जा रहा है, दुनिया को भारत और चीन के विकास से खतरा है तो मुझे गुस्सा आता है. जो देश आज सबसे अधिक प्रदूषण करते हैं वही उपदेश दे रहे हैं कि भारत और चीन को विकास की गति कम कर देनी चाहिये या विभिन्न तरह का विकास खोजना चाहिये. पर फ़िर लोगों का प्रदूषण से क्या हाल होगा यह सोच कर लगता है भारतीय वैज्ञानिकों को नये तरीके खोजने होंगे जिनसे ऊर्जा तो मिले पर प्रदूषण कम हो. विकसित देशों ने अपने विकास और समृद्धी की नीव अपनी तकनीकी को कोपीराईट के पीछे छुपा कर उससे पैसा कमा कर बनायी है, क्या भारत ऐसा कर पायेगा कि कम प्रदूषण करने वाली नयी तकनीकों का आविष्कार करे और उनसे अन्य विकासशील देशों की सहायता करे ताकि अन्य देश भी उन तकनीकों का फायदा उठा सकें?
यह तो केवल सपने हैं, पर अगर आप को प्रदूषण के विषय में दिलचस्पी है तो कारमा की वेबसाईट को अवश्य देखियेगा.
मंगलवार, नवंबर 20, 2007
अंगों की फसल की कटाई
एक मित्र ने जब डाफोह यानि डाक्टर अगेंस्ट फोर्सड हारवेस्टिंग (Doctors Against Forced Harvesting) के बारे में बताया तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. जिस हारवेस्टिंग यानि फसल कटाई की बात वे कर रहे हैं वे मानव अंगो की है. इस एसोसियेशन में काम करने वाले वे डाक्टर हैं जो कहते हैं कि वे पैसे कमाने के लिए लोगों के अंग जबरदस्ती निकाले जाने के विरुद्ध हैं. उनका कहना है कि चीन में यह हो रहा है कि जेल में बंद कैदी या अस्पताल में दाखिल गरीब लोगों के जबरदस्ती गुर्दे या अन्य भाग निकाल कर जरुरतमंद मरीजों को ट्राँसप्लाँट के लिए बेचे जाते हैं.
कोई कोई डाक्टर जो शायद मानसिक रुप से बीमार हो, पैसा कमाने के लिए इस तरह का काम कर सकता हो पर यह बात इतनी अधिक फैली हो यह मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे लगता है कि आजकल चीन के विरुद्ध वैसे ही बहुत प्रचार हो रहा है, उस देश की तरक्की से सारे विकसित जगत में डर सा फैल गया है और कुछ भी बात हो चीन के विरुद्ध ही बोला जाता है चाहे वह प्रदूषित रंग से बने खिलौने हों या अफ्रीका में बने चीने कारखाने. तो क्या डाफोह का यह कहना भी विकसित देशों में बसे चीन के विरुद्ध पूर्वाग्रहों का चिन्ह है और इसमें सचाई नहीं है?
अपने किसे प्रियजन की बीमारी पर उसे अपने शरीर का वह अंग देना जिसके बिना भी जी सकते हैं, चाहे वह गुर्दा हो या हड्डी की मज्जा यह तो अक्सर होता है. अपने प्रियजन की मृत्यु पर, विषेशकर जब मृत्यु जवानी में हुई हो, उसके शरीर के अंगो का दान करना यह मानवता की निशानी है. मेरे पर्स में भी एक कार्ड है जिसपर मेरे हस्ताक्षर हैं और जो मेरी अकस्मात मृत्यु पर अस्पताल को मेरे अंगदान करने की अनुमति देता है. अंगदान के विरुद्ध बहुत से लोगों के मन में धार्मिक कारणों से पूर्वाग्रह होते हैं कि शरीर का कोई अंग दे दिया तो जाने परलोक में व्यक्ति पर क्या असर हो या जब उसका पुर्नजन्म हो तो वह अपाहिज न पैदा हो, पर धीरे धीरे यह चेतना जाग रही है कि शरीर को तो जलाने या गाड़ने से नष्ट होना है, जबकि अंगदान करके आप अपने प्रियजन के शरीर को जीवित रहने का मौका दे रहे हैं. मेरा अपना विश्वास भगवत् गीता के पाठ में है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है और जब शरीर पुराना हो जाता है आत्मा उसे त्याग देती है इसलिए मैं चाहता हूँ कि अगर मेरा पुराना वस्त्र किसी के काम आ सकता है तो अवश्य आये.
पर अगर अंग दान मानवता की निशानी है तो किसी गरीब के शरीर से उसकी गरीबी का फायदा उठा कर अंग खरीदना या जबरदस्ती उसके शरीर से अंग निकालना दानवता की निशानी है. डाक्टर जिसने मानवता की कसम खाई हो वह इस तरह के काम करे यह मुझे विश्वास नहीं होता. कोई इक्का दुक्का हो, जो मानसिक रुप से बीमार हो और इस तरह का काम करे यह मान सकता हूँ, पर डाफोह का कहना है कि चीन में यह बड़े पैमाने पर हुआ है और होता है.
भारत से भी कभी कभी कुछ छुटपुट समाचार मिलते हैं कि गरीब ने बेटी के विवाह के लिए पैसा जोड़ने के लिए अपना गुर्दा बेचना का अखबार में इश्तहार दिया. कुछ इसी तरह की बात एक फ़िल्म में भी देखी थी, पर क्या ऐसा हमारे देश में भी हो सकता है?
*****
इटली की पुलिस जिसे काराबिन्येरी (carabinieri) कहते हैं, उनके बारे में यहाँ बहुत चुटकले होते हैं, वैसा ही एक चुटकला हैः
एक अंगों के ट्राँसप्लाँट करने वाले की दुकान पर बोर्ड लगा था, "आईन्स्टाईन का दिमाग 1000 रुपये, चर्चिल का दिमाग 700 रुपये, मार्कस का दिमाग 400 रुपये, इटालवी काराबिन्येरे का दिमाग 1500 रुपये" तो उसे देख कर व्यक्ति दुकान में गया और पूछा, "भला काराबिन्येरे के दिमाग में ऐसी क्या बात है कि उसे इतना मँहगा बेचा जा रहा है?"
दुकानदार ने उत्तर दिया, "क्योंकि वह दिमाग बिल्कुल नया है, उसका कुछ प्रयोग नहीं किया गया तो कीमत तो ज्यादा होगी ही!"
कोई कोई डाक्टर जो शायद मानसिक रुप से बीमार हो, पैसा कमाने के लिए इस तरह का काम कर सकता हो पर यह बात इतनी अधिक फैली हो यह मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे लगता है कि आजकल चीन के विरुद्ध वैसे ही बहुत प्रचार हो रहा है, उस देश की तरक्की से सारे विकसित जगत में डर सा फैल गया है और कुछ भी बात हो चीन के विरुद्ध ही बोला जाता है चाहे वह प्रदूषित रंग से बने खिलौने हों या अफ्रीका में बने चीने कारखाने. तो क्या डाफोह का यह कहना भी विकसित देशों में बसे चीन के विरुद्ध पूर्वाग्रहों का चिन्ह है और इसमें सचाई नहीं है?
अपने किसे प्रियजन की बीमारी पर उसे अपने शरीर का वह अंग देना जिसके बिना भी जी सकते हैं, चाहे वह गुर्दा हो या हड्डी की मज्जा यह तो अक्सर होता है. अपने प्रियजन की मृत्यु पर, विषेशकर जब मृत्यु जवानी में हुई हो, उसके शरीर के अंगो का दान करना यह मानवता की निशानी है. मेरे पर्स में भी एक कार्ड है जिसपर मेरे हस्ताक्षर हैं और जो मेरी अकस्मात मृत्यु पर अस्पताल को मेरे अंगदान करने की अनुमति देता है. अंगदान के विरुद्ध बहुत से लोगों के मन में धार्मिक कारणों से पूर्वाग्रह होते हैं कि शरीर का कोई अंग दे दिया तो जाने परलोक में व्यक्ति पर क्या असर हो या जब उसका पुर्नजन्म हो तो वह अपाहिज न पैदा हो, पर धीरे धीरे यह चेतना जाग रही है कि शरीर को तो जलाने या गाड़ने से नष्ट होना है, जबकि अंगदान करके आप अपने प्रियजन के शरीर को जीवित रहने का मौका दे रहे हैं. मेरा अपना विश्वास भगवत् गीता के पाठ में है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है और जब शरीर पुराना हो जाता है आत्मा उसे त्याग देती है इसलिए मैं चाहता हूँ कि अगर मेरा पुराना वस्त्र किसी के काम आ सकता है तो अवश्य आये.
पर अगर अंग दान मानवता की निशानी है तो किसी गरीब के शरीर से उसकी गरीबी का फायदा उठा कर अंग खरीदना या जबरदस्ती उसके शरीर से अंग निकालना दानवता की निशानी है. डाक्टर जिसने मानवता की कसम खाई हो वह इस तरह के काम करे यह मुझे विश्वास नहीं होता. कोई इक्का दुक्का हो, जो मानसिक रुप से बीमार हो और इस तरह का काम करे यह मान सकता हूँ, पर डाफोह का कहना है कि चीन में यह बड़े पैमाने पर हुआ है और होता है.
भारत से भी कभी कभी कुछ छुटपुट समाचार मिलते हैं कि गरीब ने बेटी के विवाह के लिए पैसा जोड़ने के लिए अपना गुर्दा बेचना का अखबार में इश्तहार दिया. कुछ इसी तरह की बात एक फ़िल्म में भी देखी थी, पर क्या ऐसा हमारे देश में भी हो सकता है?
*****
इटली की पुलिस जिसे काराबिन्येरी (carabinieri) कहते हैं, उनके बारे में यहाँ बहुत चुटकले होते हैं, वैसा ही एक चुटकला हैः
एक अंगों के ट्राँसप्लाँट करने वाले की दुकान पर बोर्ड लगा था, "आईन्स्टाईन का दिमाग 1000 रुपये, चर्चिल का दिमाग 700 रुपये, मार्कस का दिमाग 400 रुपये, इटालवी काराबिन्येरे का दिमाग 1500 रुपये" तो उसे देख कर व्यक्ति दुकान में गया और पूछा, "भला काराबिन्येरे के दिमाग में ऐसी क्या बात है कि उसे इतना मँहगा बेचा जा रहा है?"
दुकानदार ने उत्तर दिया, "क्योंकि वह दिमाग बिल्कुल नया है, उसका कुछ प्रयोग नहीं किया गया तो कीमत तो ज्यादा होगी ही!"
रविवार, नवंबर 18, 2007
भारतीय ईसाईयों में जाति भेद
इतालवी केथोलिक पत्रिका पोपोली के अक्टूबर अंक में फादर प्रकाश लुईस का लेख है जिसमें भारत में ईसाई धर्म कें जाति भेद की समस्या को उठाया गया है.
मेरा मानना है कि जाति भेद भारत की सबसे मूलभूत समस्याओं में से है और यह स्वीकार करना कि हमारे समाज में इंसानों से अमानवीय जाति भेद होता है इस सदियों पुराने शोषण से लड़ने का पहला कदम है. इस दृष्टि से मुझे फा. लुईस का लेख महत्वपूर्ण लगा. प्रस्तुत हैं उनके इस लेख के कुछ अंश, जिनका इतालवी से हिंदी में अनुवाद मेरा हैः
जहूर मेरे कश्मीरी मित्र कहते हैं कि भारत के मुसलमान भिन्न हैं अन्य सब देशों के मुसलमानों से, क्योंकि हमें अन्य धर्मों के साथ मिल कर रहना आता है. मुझे भारत के ईसाई समाज को करीब से देखने का मौका मिला है और मैं मानता हूँ कि भारतीय ईसाई भी बाकी सारी दुनिया के ईसाईयों से अलग हैं, उनमें विभिन्न धर्मों के साथ रहने की अपनी संवेदना है. पर इस सांझी भारतीयता का शायद यह भी अर्थ है कि चाहे हमारा धर्म कुछ भी हो, हम सबमें एक जैसी कुछ बुराईयाँ भी हैं जैसी कि जाति भेद?
पढ़े लिखे, अच्छी नौकरी करने वाले लोगों से जब मैं जाति और भेदभाव की बात सुनता हूँ तो मुझे ग्लानी भी होती है और क्षोभ भी. यह भेदभाव की जड़े हमारे दिलों में इतनी गहरी बैठीं हैं कि इनसे हम बार बार हार जाते हैं. दुर्भाग्य की बात है कि ईक्कीसिवीं सदी में भी कोई बड़ा हिंदू धर्म सुधारक नहीं हुआ जो इस बारे में खुल कर समस्त मानव जाति की समानता की बात कर सके और जाति भेद करने वालों को धर्म से बाहर घोषित कर सके. अगर अन्य धर्म वाले भी, चाहे वे मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई, बजाय अपने धर्म के मूल संदेश को मान कर अगर हिंदू धर्म के जातिभेद को अपनाते हैं तो शोषित लोगों के लिए बाहर आने का क्या रास्ता बचेगा? इसीलिए आशा है कि ईसाई धर्म में भी फा. लुईस जैसे लोगों के हाथ मजबूत होंगे और वह अपने समाज में बदलाव लायेंगे जिससे बाकी के धर्मों को भी प्रेरणा मिल सके.
मेरा मानना है कि जाति भेद भारत की सबसे मूलभूत समस्याओं में से है और यह स्वीकार करना कि हमारे समाज में इंसानों से अमानवीय जाति भेद होता है इस सदियों पुराने शोषण से लड़ने का पहला कदम है. इस दृष्टि से मुझे फा. लुईस का लेख महत्वपूर्ण लगा. प्रस्तुत हैं उनके इस लेख के कुछ अंश, जिनका इतालवी से हिंदी में अनुवाद मेरा हैः
भारत के 24 मिलियन यानि 2 करोड़ 40 लाख इसाईयों मे से करीब 70 प्रतिशत लोग दलित मूल के हैं. चूँकि सब सोचते हें कि सभी ईसाई समान होते हैं, धार्मिक संस्थाएँ, सरकार और समाज इस दलित ईसाईयों के साथ होने वाले भेदभाव को नहीं पहचानता. इस वजह से इस बात की गम्भीरता को ठीक से नहीं समझा जाता और भारत के बाहर इस बात की जानकारी नहीं है....सरकारी नीतियों से हिंदू, सिख तथा बुद्ध मूल के दलितों को मिलने वाले संरक्षण ईसाई दलित लोगों को नहीं मिलते. बाकी के दलित सोचते हैं कि ईसाई बनने वाले लोग दलित नहीं होते. कानून के लिए ईसाई होना और साथ ही दलित होना संभव नहीं है... ईसाई संस्थाओं में अगर दलितों की गिनती की जाये तो मिलगा कि उनमें दलित मूल के लोगों की उपस्थिति बहुत कम है. 1999 में किये गये एक सर्वेक्षण के हिसाब से ईसाई हाई स्कूलों मे दलित केवल 15.5 प्रतिशत थे और ईसाई कालिजों में केवल 10.5 प्रतिशत. यह शिक्षा संस्थाएँ अधिकतर ऊँची जाति के लोगों के काम आती हैं. ईसाईयों में जाति भेद नया नहीं है बल्कि हमेशा से रहा है. तिरुचिरापल्ली का केथेड्रल जिसका निर्माण 1840 में हुआ था, उसमें विभिन्न जातियों के ईसाई लोग अलग अलग बैठाये जाते थे. कई जगहों पर दलित ईसाईयों के अपने अलग गिरजाघर होते थे, कूछ अन्य जगहों पर वह लोग गिरजाघरों के बाहर खड़े हो कर प्रार्थना में भाग लेते थे. अगर गिरजाघर में घुस सकते थे तो उनके बैठने की जगह सबसे पीछे होती थी और प्रार्थना के अंत में पादरी के हाथ से क्मयूनियन का प्रसाद लेने वह अन्य सब लोगों के बाद ही जा सकते थे. चर्च के अधिकारी इन बातों को जानते थे पर बहुत समय तक इन बातों पर विचार विर्मश नहीं किया गया है. आज भी दलित ईसाईयों से पादरी बनने, कोई महत्वपूर्ण कार्य पद देने आदि में भेदभाव किया जाता है. तमिलनाडू में दलित ईसाई, राज्य के ईसाईयों के 75 प्रतिशत है पर दलित मूल के पादरी और नन केवल 3.8 प्रतिशत...विभिन्न जातियों के ईसाईयों के बीच में विवाह होना या केवल साथ बैठ कर खाना खाना तक संभव नहीं जैसे कि विभिन्न जाति के हिंदुओं के बीच होता है...हमें अपने धर्म में बदलाव लाना है ताकि उनकी मानव मर्यादा और गरिमा को स्वीकारा जाये, केवल अध्यात्मिक रूप में नहीं बल्कि जीवित मानव के रूप में उस धर्म के हिस्से की तरह जो बिना भेदभाव के समाज को बनाने की घोषणा करता है. जब तक हम लोग आपस में अपने शब्दों में और आचरण में सचमुच का समुदाय नहीं बनेंगे, हम कट्टरपंथियों के आरोप कि हम केवल धर्म बदवाना चाहते हैं का सामना नहीं कर सकते.
जहूर मेरे कश्मीरी मित्र कहते हैं कि भारत के मुसलमान भिन्न हैं अन्य सब देशों के मुसलमानों से, क्योंकि हमें अन्य धर्मों के साथ मिल कर रहना आता है. मुझे भारत के ईसाई समाज को करीब से देखने का मौका मिला है और मैं मानता हूँ कि भारतीय ईसाई भी बाकी सारी दुनिया के ईसाईयों से अलग हैं, उनमें विभिन्न धर्मों के साथ रहने की अपनी संवेदना है. पर इस सांझी भारतीयता का शायद यह भी अर्थ है कि चाहे हमारा धर्म कुछ भी हो, हम सबमें एक जैसी कुछ बुराईयाँ भी हैं जैसी कि जाति भेद?
पढ़े लिखे, अच्छी नौकरी करने वाले लोगों से जब मैं जाति और भेदभाव की बात सुनता हूँ तो मुझे ग्लानी भी होती है और क्षोभ भी. यह भेदभाव की जड़े हमारे दिलों में इतनी गहरी बैठीं हैं कि इनसे हम बार बार हार जाते हैं. दुर्भाग्य की बात है कि ईक्कीसिवीं सदी में भी कोई बड़ा हिंदू धर्म सुधारक नहीं हुआ जो इस बारे में खुल कर समस्त मानव जाति की समानता की बात कर सके और जाति भेद करने वालों को धर्म से बाहर घोषित कर सके. अगर अन्य धर्म वाले भी, चाहे वे मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई, बजाय अपने धर्म के मूल संदेश को मान कर अगर हिंदू धर्म के जातिभेद को अपनाते हैं तो शोषित लोगों के लिए बाहर आने का क्या रास्ता बचेगा? इसीलिए आशा है कि ईसाई धर्म में भी फा. लुईस जैसे लोगों के हाथ मजबूत होंगे और वह अपने समाज में बदलाव लायेंगे जिससे बाकी के धर्मों को भी प्रेरणा मिल सके.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...