मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

लेखक का संसारः लाल्टू

जनवरी 2008 में हैदराबाद में जाने माने हिंदी लेखक और कवि लाल्टू से मुलाकात हुई. उस बातचीत के कुछ अंश जो मैंने रिकार्ड किये थे, वह प्रस्तुत हैं.

मैं कविता क्यों लिखता हूँ?
बहुत पहले दैनिक भास्कर का एक चंडीगढ़ संस्करण होता था; वहाँ हमारे एक मित्र थे अरुण आदित्य. उन्होंने एक विषेशांक निकाला था कि हम लोग कविता क्यों लिखते हैं. बहुत से लोगों से उन्होंने यह प्रश्न पूछा था. मैंने इस बात पर सोचा तो मुझे लगा कि हम कविताएँ इस लिए लिखते हैं क्योंकि हम जीवन से प्यार करते हैं, हम प्रकृति से प्यार करते हैं, हम आदमी से प्यार करते हैं और प्यार ही हमारे लिए विद्रोह का एक स्वरूप है. मुझे लगता है कि आधुनिकता के जिस संकट में हम लोग फँसे हुए हैं जहाँ जीवन कहीं कई तहों में, कई सतहों में, अनगिनत संकटों में उलझा हुआ है, ऐसे माहौल में प्यार ही ऐसी चीज़ है जो सबसे ज़्यादा संकट में है. किसी तरह, जो दूसरों के प्रति हमारे अंदर जो प्यार की भावना है, उसको अभिव्यक्त कर पायें यह हमारी कविताओं में कोशिश होती है. जब हम किसी राजनीतिक विषय पर भी लिखते हैं, मूलतः हमारे अंदर एक ऐसा शख्स चीख रहा है, जिसे लगातार प्यार की ज़रुरत है, जो दूसरों से प्यार बाँटना चाहता है, और एक बेहतर संसार, एक बेहतर जीवन अपने लिए और दूसरों के लिए बनाना चाहता है. मुझे लगता है कि कविता में हमारी यही कोशिश होती है, चाहे अनचाहे जैसे भी हो. ऐसा नहीं कि हम कुछ जान कर लिखते हैं, हम तो जैसा माहौल है वैसा लिखते हैं. चाहे वह निजी माहौल हो या सामूहिक माहौल, जैसी मन में भावनाएँ होती हैं, जब कुछ लिखने का मन होता है, वही लिखते हैं.



लेखन पर प्रभाव
मैं बचपन से कलकत्ता में पला बड़ा हुआ हूँ, बँगला में बहुत पढ़ा है. पिता जी पंजाबी थे तो पंजाबी भाषा में भी बहुत पढ़ा है. इसके अलावा हमेशा अँग्रेज़ी बोलता और पढ़ता रहा तो विश्व साहित्य का भी बहुत प्रभाव है.

मुझे लगता है कि हिंदी में अन्य लोग जो लिख रहे हैं, मेरे लिखने में उनसे कुछ अलग बात है और मैंने अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की है. औरों का प्रभाव तो है ही पर वह समय समय पर बदलता रहा है. जैसे जब मैं अमरीका में था तो ब्लेक अमरीकी पोयट्री से बहुत प्रभावित था. आज तक मेरे प्रिय कवियो में निक्की ज्योवानी और दूसरे कुछ ब्लेक पोयटस् हैं. फ़िक्शन लिखने वालों में एलिस वाकर का प्रभाव पड़ा, उनकी महान कृतियों में 'मिस' मैगज़ीन में छपी कहानियों के संग्रह "फाईन लाईनस" में उनकी एक कहानी थी "एडवाँसिंग लूना और आईडा बी. वेल्स"; अगर मैं तमाम कहानियों को याद करूँ तो कहूँगा कि वह कहानी है जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है. उन्होंने बाद में इसी कहानी पर एक उपन्यास भी लिखा था जो कहानी का वृहद रूप था. इसी तरह टोनी मोरिसन की रचनाएँ हैं और लैंग्स्टन ह्यूज़ की पोयट्री.

बाद में वापस आ कर मैंने बँगला में रवींद्रनाथ को दोबारा पढ़ा. जब हम बच्चे थे तो हर बात उतनी गहराई से समझ नहीं आती थी. सत्यजीत राय की फ़िल्मों के ज़रिये भी मैंने उपन्यासकार और कहानीकार रवींद्रनाथ को ढूँढ़ा है. उनके "घरे बाईरे" से सत्यजित राय की फ़िल्म देख कर जितना प्रभावित हुआ, कालिज के दिनों में जब यह उपन्यास पढ़ा था तब इतना प्रभावित नहीं हुआ था. कालिज में थे तो गोर्की की "माँ" पढ़ी थी उससे बहुत प्रभावित हुआ था. बाद में दूसरे रूसी उपन्यासकारों में से सोल्ज़ेनित्ज़िन के "अगस्त १९१४" ने बहुत प्रभावित किया था. बाद में ऐसे लोग भी पढ़े जिनका उतना अधिक नाम नहीं लिया जाता जैसे फाज़िल इस्कांदेर जो अबखाज़िया के थे या रसूल हमजातोव "मेरा दागिस्तान" अब सब लोग जानते हैं.

लाल्टू से पूरा साक्षात्कार आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

रविवार, अप्रैल 27, 2008

नहीं उदास नहीं

"बस ये चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं. सहर भी है रात भी है, दोपहर भी मिली लेकिन, हमने शाम चुनी है. नहीं उदास नहीं." जाने क्यों बार बार यही शब्द मन में बार बार लौट आते हैं. मन में एक तस्वीर उभरती है, छत वाले बंद कमरे में कैद घुघी, इधर से उधर पँख फड़फड़ाती हुई, रोशनदान के शीशे से टकराती, चारपाई के नीचे छुप जाती है. जब थक कर हाथ में आती है तो उसके दिल की धड़कन महसूस होती है. धक धक, धक धक.

नहीं उदासी नहीं, बस चुप्पी सी है. बात नहीं करो कोई. नहीं सुनना कोई गाना. नहीं देखनी कोई फ़िल्म. किताब के अक्षर पढ़े तो जाते हैं पर समझ नहीं आते. बार बार आँखें शब्दों को देखती हैं और सामने कोई और चेहरे आ जाते हैं.

बाग में अकेला बैठा लड़का, हाथ में मोबाईल फ़ोन को टक टकी लगाये देख रहा है. मानो मन ही मन उसे घँटी बजाने के लिए प्रार्थना कर रहा हो. कुत्ते के साथ घूमने निकला जोड़ा भी मोबाईल पर ही लगा है. युवक अपने मोबाईल पर किसी से बात कर रहा है, उसकी साथी अपने मोबाईल पर किसी और के साथ बात कर रही है. रोमेयो नाम है उनके कुत्ते का. रोमेयो याने रोमियो, रोमियो जूलियट वाला. इतालवी भाषा में रोमियो को रोमेयो ही कहते हैं. आप्रेशन हुआ है रोमेयो का, अण्डकोष निकाल दिये गये हैं उसके. इससे झँझट कम होता है. न तो कुत्ता अन्य कुत्तों से कोई झगड़ा करता है, न ही कुत्तियों के पीछे भागता है. यानि इस रोमेयो की कभी कोई जूलियट नहीं होगी.

होर्स चेस्टनट के पेड़ों के नीचे वाले बैंच पर एक वृद्ध बैठा है. हर तरफ़ फ़ूल खिले हैं. जैसे "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे" का खेत हो जहाँ शाहरुख खान गिटार बजाता है और घर से भागी भागी, काजोल वहाँ पहुँच जाती है. पर यहाँ सिर्फ फ़ूल हैं, कोई गिटार नहीं, न ही कोई खेतों के बीच प्रेमी से मिलने भाग रहा है. बस मोबाईल पर बात करने वाली चुप्पी है, जो बातों की दरारों में से झाँकती है.

अगर कोई समय वाली मशीन हो जिससे घड़ी की सूईयाँ पीछे कर सकते हों तो अपने अतीत के किस क्षण में जाना चाहूँगा? अचानक ही यह बात मन में आती है. जीवन पल पल के छोटे छोटे निणयों पर बना है, ऐसे करो, वैसे करो. पगडँडियाँ हैं, अचानक दोराहे पर पहुँच जाती हैं, इधर जाओ या उधर. बीस साल पहले उस दिन ऐसा करने की बजाय वैसा कर देता तो आज कहाँ होता, क्या कर रहा होता? और अगर आज वापस जा सकूँ तो क्या वह दूसरा रास्ता लेने की हिम्मत होगी? पर क्या इस राह को चुनने पर कहाँ आया था, क्या यह बात याद रहेगी? और अगर याद नहीं रहेगी तो क्या वही पश्चाताप मन को तंग नहीं करेगा कि ऐसा करने की बजाय वैसा करता?

एक बार जाने कहीं पढ़ा था समानान्तर विश्वों के बारे में. एक यही विश्व नहीं जहाँ मैं रह रहा हूँ. और भी दुनिया हैं जहाँ दूसरे मैं रहते हैं, जिन्होंने पगडण्डी के दोराहे पर दूसरा रास्ता चुना था. सोच कर हँसी आती है कि क्या फायदा इस तरह के समानान्तर विश्वों का, अगर जाने किसी विश्व में एक दूसरा मैं इस समय यही सोच रहा हो, "बस चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं"?

एक बार एक पार्टी में बरनादेत मिली थी. लाल वाईन पी थी, पर खाया कुछ नहीं था, सिर कुछ घूम सा रहा था. वह साथ वाली कुर्सी पर बैठी थी. बोली कि वह पेरिस की रहने वाली थी और कार्ल रोजर के दर्शन विचारों में विश्वास करती थी. बोली, "हमारे मन में हमारा पश्चाताप छुपा है, अपनी गलतियों का. अपने आप को हम क्षमा नहीं कर पाते, यही कारण है हमारे दुखों का." मेरे मन में कोई पश्चाताप नहीं, मैंने हँस कर कहा तो उसने भौंहें उठा कर मेरी ओर देखा. थोड़ी देर में ही भूल गया था कि हम कहाँ बैठे थे, आसपास और कौन बैठा था, बस केवल वह थी और मैं था, और उसे मन खोल कर अतीत सुना रहा था.

अगर समय की मशीन हो तो अतीत के किस पल में वापस जाना चाहूँगा? सुखद पल में वापस जाना चाहूँगा या दुख के पल में? किसको गुस्से में क्या कहा था, किसको अनजाने में दुख पहुँचाया था, किससे ईश्या में बोला था? हो सके तो सब गलत शब्द, गलत बातें वापस ले लूँगा या फ़िर इस बार भी क्षण के ज़्वार में अतीत वैसा ही रहेगा, बदल नहीं पायेगा?

वह रात जिस जब पापा को दिल का दौरा पड़ा था, उस रात को वापस जाना चाहूँगा? जिन दिनों जानकी देवी में मैदान में दीदी के साथ घूमते थे और बातें नहीं चुकती थीं उन दिनों में वापस जाना चाहूँगा? जिस दिन मित्र ने आत्महत्या के विचार के बारे में बताया था उस दिन वापस जाना चाहूँगा?

समय एक गोल चक्कर है, अतीत, भविष्य सब बार बार आते हैं, सभी समानान्तर हैं. किसी समानान्तर विश्व में अभी भी दीदी के साथ मैदान में घूम रहा हूँ. एक दूसरे विश्व में पापा से लिपट जाता हूँ. एक अन्य विश्व में मित्र से कहता हूँ कि आज की रात मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूँगा.

"बस ये चुप सी लगी है, नहीं उदास नहीं. सहर भी है रात भी है, दोपहर भी मिली लेकिन, हमने शाम चुनी है. नहीं उदास नहीं." जाने क्यों बार बार यही शब्द मन में बार बार लौट आते हैं.

शुक्रवार, अप्रैल 25, 2008

चाँदनी चौक से सनफ्राँसिस्को

कोई ऐसे शहर भी होते हैं जहाँ जा कर बहुत से दूसरे शहरों की याद आती रहती है. या फ़िर शायद यह यायावर की नियति है कि जितना अधिक घूमोगे, उतना ही पाओगे कि हर जगह में पुरानी यादें उतनी अधिक उभरेंगीं. कुछ ऐसा ही लगा इटली के उत्तरी पश्चिम तट पर बसे शहर जेनोवा जा कर.

पिछले तीन चार सालों से, जब से डिजिटल कैमरे से तस्वीरें लेने का शौक पाला है, शहरों में घूमने का मेरा तरीका ही बदल गया है. काम के सिलसिले में यात्राएँ तो पिछले बीस साल से लगातार चल रहीं हैं पर पहले कहीं जाता तो अधिकतर काम से ही काम रखता, बाहर घूमने कम ही जाता. कई बार ऐसा हुआ कि नये देश में जा कर भी, केवल हवाई अड्डे से होटल तक या सभा स्थल तक जाने का रास्ता देखा, और कुछ नहीं देखा. अब तस्वीरें खींचने का इतना शौक है कि हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे काम से थोड़ी सी भी फुरसत मिले तो कुछ न कुछ देखने का कार्यक्रम बने.

जेनोवा पहले चार पाँच बार जा चुका था पर शहर के बारे में कुछ नहीं मालूम था, न ही कोई जगह देखी थी. इस बार तीन दिन का ठहरने का कार्यक्रम था, कानफ्रैंस थी भी सागर तट पर पुराने बंदरगाह पर, जैसे ही कुछ समय खाली मिलता तुरंत बाहर घूमने निकल जाता.

जेनोवा का पुराना बंदरगाह देख कर दक्षिण अफ्रीका में केपटाऊन के पोर्ट की याद आ गयी. जेनोवा का इतिहास है कि यह बहुत सदियों तक स्वतंत्र गणतंत्र था और अपने नावों, जहाज़ों की ताकत से व्यापार बना कर अमीर देश था. यह सन 1850 के आसपास इटली देश का हिस्सा बना जब इटली के सरदार पटेल यानी गरिबाल्दी ने छोटी रियासतों में बँटे देश को जोड़ा था. जेनोवा की बंदरगाह पर यूरोप का सुप्रसिद्ध मछलीघर यानी एक्वारियम है जिसमें आप डोल्फिन, शार्क, आदि बड़ी मछलियाँ तो देख ही सकते हैं साथ साथ मादागास्कार और केरिबयन सागरों की रंगबिरंगी मछलियों को भी देख सकते हैं.





















एक्वारियम के पास ही उष्म प्रदेशों के जँगल के पेड़ पौधे और जीव जंतु दिखाने वाला बायोस्फीयर, और ऊँचाई से शहर का विहगम दृष्य दिखाने वाला बीगो और रोमन पोलांस्की की फ़िल्म पायरेटस के लिए बनाई गये जहाज नेप्च्यून जैसी देखने वाली चीज़ें भी हैं.















जेनोवा की सड़कों पर बने भव्य मकान वेनिस के मकानों जैसे लगते हैं, जो जेनोवा की तरह जहाज़ों के बल पर बना व्यापारी गणतंत्र देश था. यहाँ के रहने वालों में से शायद सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम है क्रिस्टोफर कोलोम्बस का. नक्काशीदार, मूर्तियों से सजी हवेलियाँ हैं जो बहुत सुंदर हैं. जेनोवा पहाड़ियों का शहर है, और ऊँची नीची पहाड़ियों पर बने घरो में अक्सर पुल जैसी सीढ़ियाँ दिखती हैं जिनसे लोग सड़क पर ऊपर या नीचे उतर सकते हैं. पहाड़ियों के बीच में बनी ऊँची नीची सड़कें सेनफ्राँसिस्को की याद दिलाती हैं.












शहर में घूमते हुए ध्यान आया कि बहुत से घरों पर नक्काशी या मूर्तियाँ नहीं बल्कि चित्रकारी से काम हुआ है. इस तरह की दीवारों पर चित्रकारी पहले भी कई जगह देखी है पर जिस तरह कि जेनोवा में दिखती है उस तरह की कहीं नहीं देखी. दूर से बिल्कुल नक्काशी ही लगती है पर वह केवल देखने का धोखा है. सोचा कि शायद कुछ कम पैसे वालों लोगों ने बजाय नक्काशी और मूर्तियाँ बनवाने के चित्रकारी करवाई हो, फ़िर मन में विचार आया कि अगर घर पर नक्काशी हुई हो या मुर्तियाँ आदि बनी हों तो उनको बदलवाना आसान नहीं होगा जबकि अगर आप के घर पर चित्रकारी हुई हो तो कुछ सालों बाद आप उस पर नयी चित्रकारी करवा सकते हैं, इस तरह से आप का घर हमेशा नया लगेगा. क्या असली कारण है इस तरह की चित्रकारी का, और मेरा इस तरह सोचना कहाँ तक ठीक हो सकता है, यह तो नहीं मालूम.












बंदरगाह के सामने वाला पुराना शहर तंग गलियों से भरा है. देखा तो लगा कि चाँदनी चौक पहुँच गया हूँ, हालाँकि चाँदनी चौक के मुकाबले में यहाँ सफ़ाई अधिक है. उन गलियों में कई बार घुसा पर हर बार रास्ता खो बैठा. कहीं जाने की सोच कर निकलता पर पहुँचता कहीं और ही. आखिर हार कर शहर के नक्शे को बंद करके जेब में रख लिया, सोचा किस्मत जहाँ ले जायेगी, वहीं जाऊँगा.






तंग गलियों के बीच में से गुजर कर ही शहर के प्रमुख पर्यटक स्थल देखे - ड्यूक का महल, सन लोरेंज़ो का कैथेड्रल, ओपेरा हाउस, इत्यादि. शाम के धुँधलके में जब रोशियाँ जलती हैं तो शहर और भी सुंदर बन जाता है.













शनिवार, अप्रैल 19, 2008

फ़ुल गेंदवा न मारो

शायद यहाँ बसंत का मौसम है इसलिए या न जाने क्यों, अचानक मन में गीत के शब्द आयेः

"फ़ूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ बाती ..." , फ़िल्म थी प्रेमपुजारी और इसे गा रहे थे देवआनंद. साथ में थी वहीदा रहमान और जाहिदा.

जैसे अक्सर विचारों के साथ होता है, बात शुरु कहाँ से होती है और कहाँ जाती है, पता नहीं चलता. सोचा फ़ूलों से शुरु होने वाले अन्य कौन से गाने हैं?

दो अन्य गाने तो तुरंत याद आ गयेः

"फ़ूलों का तारों का सबका कहना है, एक हज़ारों में मेरी बहना है", यह भी देवआनंद साहब की फ़िल्म थी "हरे रामा हरे कृष्णा", साथ में थीं मुम्ताज़ और ज़ीनत अमान.

और, "फ़ूलों ने कहा कलियों से, कलियों ने कहा भँवरों से...". यह कौन सी फ़िल्म का है, यह नहीं मालूम.

फ़िर बहुत सोच कर याद आया, "फ़ुल गेदवा न मारो, न मारो लगत कलेजवा में चोट..". यह कौन सी फ़िल्म से है, यह भी याद नहीं पर शायद महमूद पर फ़िल्माया गया था. बस, और कोई गीत याद नहीं आता जो फ़ूल शब्द से शुरु होता हो. अगर आप में से किसी को कोई ऐसा गीत मालूम हो तो मुझे बताईयेगा.

साथ ही कुछ फ़ूलों की तस्वीरें भी प्रस्तुत हैं.

















रविवार, अप्रैल 13, 2008

शोर्य का अर्थ

समर खान की नयी फ़िल्म "शोर्य" बार बार यही प्रश्न पूछती है कि शोर्य का क्या अर्थ है और इस प्रश्न का अपना उत्तर फ़िल्म के अंत में शाहरुख खान की आवाज़ में देती है, कि शोर्य का अर्थ है निर्बलों की, जिनकी आवाज़ न हो, उनकी रक्षा करना. फ़िल्म के बारे में कुछ अच्छा सुना पढ़ा था इसलिए शायद मन में आशाएँ अधिक थीं जिन पर यह फ़िल्म पूरी नहीं उतरी.



फ़िल्म की कहानी है सिद्धांत और आकाश की, जो आर्मी में मेजर हैं और वकील भी, और पक्के दोस्त भी. दोनो अपने आप को एक मुकदमें में पाते हैं जिसमें गुनाहगार है कप्तान जावेद खान जिसने अपने एक साथी राठौर का खून किया है, उस पर आरोप है कि वह आतंकवादियों का साथी था, राठौर द्वारा पकड़े जाने पर उसने राठौर को मार दिया. आकाश हैं आरोप पक्ष का वकील और सिद्धांत हैं बचाव पक्ष का वकील. साथ में हैं एक पत्रकार काव्या शास्त्री जो जावेद की कहानी को समझना चाहती है. जावेद जी स्वयं अपने बचाव में कुछ नहीं कहते हैं और चुपचाप आरोप को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. आर्मी के उच्च अधिकारी ब्रिगेडियर प्रताप चाहते हैं कि जावेद को कड़ी से कड़ी सजा मिले. पर सच्चाई कुछ और है और कैसे सिद्धांत उस सच्चाई तक पहुँच कर जावेद को बेकसूरवार साबित करने में सफल होता हैं यही फ़िल्म की कहानी, उसका रहस्य और उसकी दिलचस्पी का विषय है.



फ़िल्म अच्छे अभिनेताओं से भरी है. सिद्धांत के रुप में हैं राहुल बोस, आकाश हैं जावेद जाफरी, काव्या हैं मनीषा लाम्बा, दीपक दोब्रियाल हैं कप्तान जावेद, सीमा विश्वास बनी हैं जावेद की माँ, के के मेनन बने हैं ब्रिगेडियर प्रताप और अमृता राव हैं राठौर की विधवा. शुरु में एक गाने में नाचती हुई सैफ अली खान की भूतपूर्व मित्र रोज़ा भी हैं. सभी अभिनेताओं में राहुल बोस ही कुछ ढीले से लगे. जावेद जाफरी ठीक हैं. सीमा विश्वास दो दृष्यों में थोड़ी सी देर के लिए आती हैं पर बहुत प्रभावशाली हैं. दोब्रियाल भी अधिक डायलाग न होने पर भी अच्छे हैं. के के जी बहुत बढ़िया हैं. मनीषा और अमृता सुंदर भी लगती हैं और अभिनय भी अच्छा है.

पर इस सब के बावजूद फ़िल्म में मुझे कुछ कमी लगी, यानि लगा कि जितनी प्रभावशाली हो सकती थी, उतनी नहीं हुई. फ़िल्म का एक गुण है कि कहानी के प्रति इमानदारी है और शुरु के नाच गाने के बाद, कहानी अपनी मुख्य धारा पर ही बनी रहती है, इधर उधर की बातों में नहीं बहकती.

राठौर की हत्या के पीछे क्या रहस्य है, मुकदमें के दौरान कैसे इसकी तह तक पहुँचते हैं यह फ़िल्म के केद्रीय मुद्दा था जिसका निर्माण इस तरह का होना चाहिये था कि वह लोगों की उत्सुकता को बाँध ले, पर फ़िल्म में मुझे यह बात कुछ कमजोर से लगी. सिद्धांत बस एक सिपाही से एक सवाल ठीक पूछते हैं, वह घबरा कर भाग जाता है और उसके बाद शाम को अकेले में बुला कर वह सब कुछ पूरा सुना देता है. यानि रहस्य खुलने में कोर्टरूम में जिस तरह तरह वकील अपनी काबलियत से, तर्क से, सच को निकाल लेता है, वह बात नहीं. राठौर की विधवा द्वारा सभी कागज भेज देना जिससे वकील साहब छुपी सारी बातें समझ जायें, भी विश्वास्नीय नहीं लगा. फ़िल्म के कसूरवार बहुत सालों से निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, क्या वकील साहब इसके सबूत नहीं निकाल सकते थे?



सबसे कमज़ोर बात लगी, अंत के दृष्यों में सिद्धांत का ब्रिगेडियर साहब से सवाल करना और कोर्ट मार्शल करने वालों का सब कुछ चुपचाप देखना. जब वह बरिगेडियर जी गवाह के रूप में बुलाये गये हैं तो क्या गवाह से आप कुछ भी पूछ सकते हैं, उसके बचपन के बारे में, उसके अपने परिवार के बारे में, कोर्ट को बिना बताये कि पिछली इन बातों से केस का क्या सम्बंध है? जो व्यक्ति घटना के समय पर वहाँ नहीं था, उसे गवाह बनाना और उससे कुछ भी पूछ कर उसे दोषी साबित करना, फ़िल्मी सा लगा. यह बात नहीं कि मैं वकील हूँ या मुझे आर्मी के कोर्ट मार्शल के मुकदमों की जानकारी है पर यह सब बातें, मुझे विश्वास्नीय नहीं लगी.

और किसी आर्मी अफसर के इलाके में बेकसूर लोग, बच्चे, औरतें मारी जा रहीं हैं, और आर्मी को इस बारे में कुछ शक नहीं होता, न ही ब्रिगेडयर के जान पहचान वाले मित्रों को पता है कि उनकी सोच कैसी कट्टरवादी हैं, यह बात भी अविश्वास्नीय लगी.

न ही जावेद के चुप रहने वाली बात का तुक समझ में आया. वह जानता है कि ब्रिगेडियर निर्दोषों को मार रहा है, अत्याचार कर रहा है पर वह चुप रहते हैं क्योंकि इससे आर्मी का नाम बदनाम होगा? इससे उनकी देश भक्ती दिखायी गयी है.



राहुल बोस का चरित्र कुछ कुछ फरहान की फ़िल्म "लक्ष्य" में हृतिक रोशन के चरित्र से मिलता जुलता लगा, फर्क केवल इतना है कि वह वकील हो कर और आर्मी में मेजर हो कर भी निठल्ले मस्ती करना चाहते हैं. यानि आर्मी में मेजर बनना और वकील बनने में कोई मेहनत नहीं चाहिये? उसी तरह काव्या का चरित्र भी "लक्ष्य" की प्रीति ज़िन्टा से मिलता जुलता लगा. ब्रिगेडियर प्रताप का चरित्र और उनका व्यवहार निहलानी की फ़िल्म "देव" में ओम पुरी के चरित्र से मिलता लगा. यानि कि लगता है कि पटकथा लिखने वालों ने कुछ प्रेरणा इधर उधर से पायी, फ़िल्म की कहानी तो एक अँग्रेज़ी फ़िल्म से प्रभावित है ही.

फ़िल्म का संगीत है अदनान सामी का और एक गीत, "धीमे धीमे" बहुत सुंदर है. फ़िल्म के बाद जहाँ पात्रों के अच्छे अभिनय और बहुत सारे अच्छे दृष्य याद रहते हें वहाँ कहानी की पटकथा की कमज़ोरियों से दुख भी होता है कि शायद और भी बढ़िया बन सकती थी. यह नहीं कहूँगा कि फ़िल्म बुरी है, शायद आम फ़िल्मों से बहुत अच्छी है पर जितनी बढ़िया हो सकती थी, उससे कुछ कम रह गयी.

बुधवार, अप्रैल 09, 2008

हाथ न लगाना

इटली में गर्भपात के विषय में बात करना कभी कभी कठिन हो जाता है, यहाँ तक कि डाक्टर या नर्स तक इस विषय में बात नहीं करना चाहते. कैथोलिक धर्म में गर्भपात को पाप मानते हैं और कैथोलिक प्रधान देशों में बहुत समय तक किसी भी हालत में गर्भपात की अनुमति नहीं होती थी. आज भी कुछ देश जैसे कि आयरलैंड, निकारागुआ जैसे देशों में गर्भपात नहीं हो सकता, तब भी नहीं जब माँ की जान को खतरा हो या बच्चा बलात्कार का नतीजा हो या बच्चे को कोई बीमारी हो.

मैं सोचता हूँ कि जैसे भारत में हिंदु धर्म में गौ मास खाने के प्रति गहरी सामाजिक धारणाएँ हैं, कैथोलिक समाज में गर्भपात के विषय पर भी कुछ कुछ वैसा ही है और जब कोई बात हमारी भावनाओं से गहरी जुड़ी हो उस विषय पर बहुत से लोग तर्क या बिना तर्क, किसी बात को नहीं सुनना चाहते. कैथोलिक धर्म में परिवार नियोजन यानि कण्डोम या गोलियों के उपयोग से स्त्री का गर्भवति होने से बचने को भी गलत माना जाना है. जब समाज में किसी विषय पर इस तरह को सोच हो तो उस पर खुल कर बात करना कठिन हो जाता है.

बींसवीं सदी में बदलते इतालवी समाज ने सेक्स और बच्चा पैदा करना, इन दोनो बातों को अलग कर दिया. युवतियाँ काम करने लगीं, उनके विवाह करने या न करने से जुड़े सामाजिक विचार बदलने लगे, शादी करने की उम्र बढ़ गयी और बच्चे पैदा होना कम होने लगा. पिछले चालिस सालों से इटली की जनसंख्या की विकास दर नेगेटिव है यानि पैदा होने वालों की संख्या मरने वालों से कम है और हर वर्ष यहाँ की जनसंख्या कुछ कम हो जाती है. तब गर्भपात के विषय पर भी विमर्श होने लगा. लोगों को मानना पड़ा कि चाहे धर्म इसे गलत कहता है पर हज़ारों औरतें हर साल गैरकानूनी गर्भपात में जान खोती हैं या दूसरी बीमारियाँ ले लेतीं हैं, और उन्हें कानून गर्भपात की सुविधा मिलनी चाहिये.

जब लोगों की माँगे बढ़ीं तो इतालवी सरकार ने स्वयं निर्णय न लेने के लिए जनमत का आयोजन किया जिसका निर्णय था कि इटली की अधिकाँश जनता कानूनी गर्भपात की सुविधा चाहती है. इसकी वजह से नया कानून बनाया गया जिसका नाम है कानून नम्बर 194. इस कानून के अनुसार अस्पतालों को गर्भवती औरतों को सलाह और सहारा देना होगा, वह अगर चाहे तो अपना नाम बिना बताये बच्चा पैदा होने के बाद उसे अस्पाल में छोड़ सकती है या गोद लेने के दे सकती है, पर अगर वह गर्भपात का निर्णय लेती है तो यह भी संभव है.

तीस साल पहले बने इस कानून पर चर्चा होती ही रहती है, बहुत से धार्मिक लोगों का कहना है कि यह कानून गलत है और इस पर पुनर्विचार होना चाहिये. हालाँकि स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार धीरे धीरे इटली में गर्भपात कराना बहुत कम हो गया है और इसका अर्थ है कि यह कानून अच्छा काम कर रहा है. आजकल अधिकतर गर्भपात प्रवासी स्त्रियाँ करवातीं हैं क्योंकि उनके पास परिवार का सहारा नहीं होता और पैसा भी कम होता है. पर फ़िर भी कुछ राजनीतिक दल चुनावों में इस बात को उछाल रहे हैं कि अगर वह जीतेंगे तो इस कानून को बदला जायेगा. इस तरह की बातों का विरोध करने वाले भी मैदान में उतर आये हैं, जिनमें से एक ने नया वेबपृष्ठ बनाया है "हाथ न लगाना" (Non Toccarla) जिस पर जाने माने लोग जैसे अभिनेत्रियाँ, लेखक, आदि अपने पेट पर लिखते हैं "194 को हाथ न लगाना" और उनकी फोटो इस वेबपृष्ठ पर लगा दी जाती है.






विश्व स्वास्थ्य संघ के अनुसार दुनिया में हर वर्ष हज़ारों औरतें गैरकानूनी गर्भपात की वजह से मरती हैं, बहुत सी औरतों को इंफैक्शन हो सकता है जिससे भविष्य में उन्हें कठिनाईयाँ हो सकती हैं. इस लिए मैं कानूनी गर्भपात के पक्ष में हूँ.

भारत में स्थिति कुछ उलटी है. कानूनी गर्भपात को परिवार नियोजन का हिस्सा बनाया गया है. और अल्ट्रासाउँड से टेस्ट करवा कर लड़की हो तो गर्भपात करवाना इतना अधिक बढ़ गया है कि देश के बहुत से हिस्सों में लड़कों के अनुपात में लड़कियों की सँख्या बहुत कम होती जा रही है. अर्थशास्त्री अमर्तयासेन के अनुसार भारत में एक करोड़ गुमशुदा लड़कियाँ हैं, यानि वे लड़कियाँ जिन्हें गर्भपात द्वारा पैदा नहीं होने दिया गया. इसके विरुद्ध कानून बना कर भी कुछ करना कठिन है और जनता की सोच को बदलने के लिए औरतों का आर्थिक विकास और स्वतंत्रता बहुत आवश्यक हैं.

रविवार, अप्रैल 06, 2008

खुरदरी आवाज़ का जादू

बेटे ने इंटरनेट से खोज कर राहुलदेव बर्मन के संगीत वाली बहुत से फ़िल्मों का संगीत डाउनलोड कर के दिया, उनमें कुछ बँगाली संगीत भी था. कुछ अलग सुनने को मिलेगा सोच कर उनमें से कुछ बँगला गाने मैंने अपने आईपोड में डाले. साईकल पर जा रहा था संगीत सुनते हुए कि अचानक बहुत सालों के बाद वह खुरदरी, मस्त आवाज़ सुनी जिसका कभी दीवाना था, यानि कि उषा उत्थप की आवाज़.

मुझे जहाँ तक याद था वह दक्षिण भारत की रहने वाली थीं और अँग्रेज़ी में गाने गाती थीं. फ़िर उन्होंने कुछ हिंदी फ़िल्मों में हिंदी गाने भी गाये थे, पर वह बँगाली में भी गाती हैं, यह नहीं सोचा था. उनका बँगला गाना "मानो, मानो ना.." बहुत बढ़िया लगा. फ़िर सुना "शुखो नाईं गो गो गोपाले" तो और भी अचरज हुआ, बँगाली शब्द और दक्षिण का कर्नाटक संगीत एवं धुन, मज़ा आ गया.

साठ-सत्तर के दशकों में उनकी बड़ी गोल बिंदी, भारी आवाज़, खुल कर पटाखे फटने जैसी हँसी, साड़ी पहने हुए अँग्रेजी गाना गाती वे, अज़ीब सी भी लगतीं और आकार्षित भी करतीं. तभी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने शुरु किये थे और दिल्ली बी रेडियो स्टेशन पर "ए डेट विद यू" और "फोर्सिस रिक्वेस्ट" जैसे कार्यक्रमों में अंग्रेज़ी के गाने सुनते थे. जेएस यानि जूनियर स्टेटसमेन की अँग्रेज़ी पत्रिका निकलती, तो आधुनिकता और प्रगति उसमें दिये गये अँग्रेज़ी गायकों, फ़िल्मों, फैशनों में ही दिखती थी. उस समय लगता था कि अँग्रेज़ी तो अँग्रेज़ो की भाषा है. तब उषा उत्थप का कुछ भारतीय आवाज़ और अंदाज़ में साड़ी पहन कर अँग्रेज़ी में गाना अनौखा लगता, मानो वह किसी अदृष्य सीमा को तोड़ कर उससे बाहर निकल गयीं थीं, जहाँ अँग्रेज़ी संगीत भी भारतीय हो सकता था.

शाम को इंटरनेट पर उषा उत्थप के बारे में खोजा तो उनका वेबपृष्ठ मिला. उनकी कुछ ताज़ी तस्वीरें भी देखीं जैसे कि नीचे वाली तस्वीर (from Mallupride dot com) जिसमें वे अभिनेत्री मालायका अरोड़ा खान के साथ हैं. तस्वीर देख कर लगता है कि मानो वह बिल्कुल बदली नहीं. उनके वेबपृष्ठ पर उनके बारे में पढ़ा उन्हें परिवार के लोग और काम करने वाले दीदी बुलाते हैं, कि वह बम्बई में बड़ी हुईं और 1969 से गा रहीं हैं, तेरह भारतीय भाषाओं में और आठ विदेशी भाषाओं में गा सकती है. उन्होंने कुछ फ़िल्मों में काम भी किया है, गीत लिखे हैं, फ़िल्मों में सगींत भी दिया है. यानि बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं. पर यह पढ़ कर कुछ आश्वर्य हुआ कि उन्होंने एक फ़िल्म में मिथुन चर्कवर्ती यानि हीरो के लिए भी गाना गाया है.



गूगल पर उनके बारे में खोजा. सत्तर के दशक में ही कलकत्ता आ कर रहने लगीं. कलकत्ता क्यों आईं इस बारे में कुछ नहीं लिखा पर अवश्य इसमें प्रेम या विवाह की बात ही होगी. उनका पहला नाम उषा अईय्यर होता था. एक अन्य साक्षत्कार में लिखा है कि वे चार बहनें थीं, उषा, उमा, इंदिरा और माया, चारों का गाने का शौक था पर केवल उषा ओर इंदिरा ने गाने को गम्भीरता से लिया. पर इस साक्षात्कार में उनका नाम "सामी" बहने और उनके पिता का नाम बम्बई के पुलिस कमिश्नर वी. एस. सामी था. शायद इसका मतलब है कि उषा जी का पहला विवाह किसी अय्यर से हुआ था और बाद में उन्होंने किसी उत्थप से विवाह किया? एक अन्य साक्षात्कार में लिखा है कि वह बाह्मण परिवार में पैदा हुई और शाकाहारी हैं पर कलकत्ता में उनके पति का परिवार माँसाहारी है इस लिए उन्होंने माँसाहारी भोजन बनाना भी सीखा और उनकी एक बेटी भी है.

इंटरनेट पर यह सब खोजते हुए सोच रहा था कि जीवन कितना बदल गया. तीस पैंतीस साल पहले के प्रिय कलाकार के गाने सुनना, उसके जीवन के बारे में समाचार खोज कर पढ़ना, सब कुछ दूर विदेश में अपने घर में बैठे बैठे, शायद यह सब बातें एक ज़माने में कोई कहता कि इस तरह होगा तो विश्वास नहीं होता. यही आज के जीवन का आम चमत्कार है, फर्क केवल इतना है कि इसकी भी आदत हो गयी है ओर इसमें कुछ विषेश नहीं लगता, न ही इस बारे में कोई सोचता है!

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