संदेश

भूले मुर्दे

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पत्थर की दीवारों के भग्न अवशेषों पर न आग की कालिख दिखती है न बमों की झुलस. घास पर खून के निशान नहीं, सुंदर मार्गरीता के फ़ूल खिले हैं. कोई सड़े माँस की बास नहीं आती, फ़ूलों की महक है बस. न ही कोई चीख गूँजतीं है, सन्नाटे में कभी कभी चिड़ियों की चूँ चूँ सुनाई देती है. हरियाली से ढके सुरमयी पहाड़ों की सुंदरता को देखो तो मौत की बातें सुनाई ही नहीं देतीं, सुनों भी तो लगता है कि कोई कहानी सुना रहा हो. "यहाँ मेरे मित्र का घर था. यहाँ रसोई थी उनकी. कितनी बार बचपन में यहाँ बैठ कर मीठी चैरी खाते थे. .. इस जगह "कपरारा दी सोपरा" नाम था इस गाँव का, 29 सितंबर था उस दिन जब चालिस लोगों को मारा. उस घर में सब लाशें इक्ट्ठी थीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, सबको अंदर बंद करके अंदर बम फैंके थे, जो बाहर निकलने की कोशिश करता उसे मशीनगन से भून देते. ... यहाँ फादर फेरनान्दो की लाश मिली थी, गिरजाघर में ... इधर पड़ी थी लुईजी की लाश, साथ में उसकी बहन थी. कहता था भूख लगी है कुछ खाने का ले कर आऊँगा. हम सब लोग नौ दिनों से तहखाने में छुपे बैठे थे. ... बम से उड़ा दिया उन्होंने गिरजाघर के दरवाज़े को. साठ लोग थे भीतर

चुरा के दिल बन रहे हैं भोले

विश्वविद्यालय का चिकित्सा विभाग शहर के पुराने हिस्से में है, वहाँ जब भी जाना पड़ता है तो साईकल से ही जाना पसंद करता हूँ. बोलोनिया के पुराने हिस्से में छोटी छोटी संकरी गलियाँ हैं, और वहाँ केवल शहर के उस हिस्से में रहने वाले ही कार से जा सकते हैं. वैसे भी अधिकतर गलियाँ वन-वे हैं और अगर कार से जायें भी तो भूलभुलईयाँ की तरह इस तरह घुमाते हें कि थोड़ी देर में ही भूल जाता हूँ कि किधर जाना था और किधर जा रहा हूँ. बस से भी जा सकते हैं पर फ़िर चिकित्सा विभाग तक थोड़ा चलना पड़ता है. क्लास समाप्त हुई और वापस आ रहा था तो प्याज़ा वेर्दी (piazza verdi) में एक सज्जन ने हाथ उठा कर कहा "एक मिनट, प्लीज, एक मिनट!" प्याज़ा वेर्दी पिछले कई महीनों से शहर में चर्चा का विषय बना हुआ है. विश्वविद्यालय के छात्र रोज़ रात को वहाँ हुल्लड़ करते हैं. खुली जगह है पुराने मध्ययुगीन घरों से घिरी, बीच में बैठ कर बियर पीते हैं, गप्प मारते हें और किसी को ज़्यादा जोश आया तो वह खाली बोतलें को तोड़ने लग जाता है. आसपास रहने वाले लोग शोर से, गंदगी से परेशान हैं, कहते हैं कि नशे का सामान भी लोग खुले आम बेचते हैं. वहाँ रहने वाल

अमलतास और टेसू की आग

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आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है! थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है. आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar) , वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छु

संगीत और शोर

पिछले तीन चार सालों से काम करते समय जब भी अकेला होता हूँ तो संगीत सुनने की आदत सी पढ़ गयी है. इंटरनेट का कोई भारतीय स्टेशन खोज कर दुनिया में कहीं भी भारतीय संगीत सुनना आज जितना आसान है उतना पहले कभी नहीं था. कल दिन भर घर पर था. बहुत दिनों से घर पर समय नहीं मिला था और अपनी स्टडी में बहुत सारे काम जमा हो गये थे. शेल्फ पर ढेर लगे किताबों के उन्हें ठीक करना, छाँट कर पुरानी किताबों को फैंकने के लिए निकालना, डीवीडी इधर उधर बिखरी हुई हैं उन्हें ठीक से सहेज कर रखना, फोटो को छाँटना और एल्बम में लगाना, अलमारी के द्राज साफ करना, कागज़ छाँटना, पुरानी पत्रिकाओं को छाँटना, आदि. कई घँटे लगे इस सब काम में और सारे समय संगीत बजता रहा. रात का खाना लगा तो पत्नी ने खाना खाने को बुलाया और बोली अब इस शोर को बंद करो, सारा दिन यह चीं चीं सुन कर सिर दर्द हो गया है. मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि मेरे संगीत को शोर कह रही है पर बंद कर दिया. कमरे में से आखिरी कागज कूड़ा उठा रहा था जो बिना आवाज का कमरा अजीब सा पर अच्छा लगा. सोच रहा था कि कैसे संगीत भी अधिक हो जाये तो, या उसकी ध्वनी ज़रूरत से अधिक ऊँची हो शोर बन सकता है. खा

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा? समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे म

मधु किश्वर

मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे. देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है! भारत दुनिया का

धर्म एवं आस्था

कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया. मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकत