सोमवार, मार्च 31, 2008

भूले मुर्दे

पत्थर की दीवारों के भग्न अवशेषों पर न आग की कालिख दिखती है न बमों की झुलस. घास पर खून के निशान नहीं, सुंदर मार्गरीता के फ़ूल खिले हैं. कोई सड़े माँस की बास नहीं आती, फ़ूलों की महक है बस. न ही कोई चीख गूँजतीं है, सन्नाटे में कभी कभी चिड़ियों की चूँ चूँ सुनाई देती है. हरियाली से ढके सुरमयी पहाड़ों की सुंदरता को देखो तो मौत की बातें सुनाई ही नहीं देतीं, सुनों भी तो लगता है कि कोई कहानी सुना रहा हो.



"यहाँ मेरे मित्र का घर था. यहाँ रसोई थी उनकी. कितनी बार बचपन में यहाँ बैठ कर मीठी चैरी खाते थे. .. इस जगह "कपरारा दी सोपरा" नाम था इस गाँव का, 29 सितंबर था उस दिन जब चालिस लोगों को मारा. उस घर में सब लाशें इक्ट्ठी थीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, सबको अंदर बंद करके अंदर बम फैंके थे, जो बाहर निकलने की कोशिश करता उसे मशीनगन से भून देते. ... यहाँ फादर फेरनान्दो की लाश मिली थी, गिरजाघर में ... इधर पड़ी थी लुईजी की लाश, साथ में उसकी बहन थी. कहता था भूख लगी है कुछ खाने का ले कर आऊँगा. हम सब लोग नौ दिनों से तहखाने में छुपे बैठे थे. ... बम से उड़ा दिया उन्होंने गिरजाघर के दरवाज़े को. साठ लोग थे भीतर छुपे हुए सबको बाहर निकाला गया. डान उबाल्दो मारकियोनी पादरी थी, रोकने लगे तो उन्हें सबसे पहले यहीं मारा. बाकी सब लोगों को वहाँ कब्रिस्तान में ले गये. बच्चे, बूढ़े, औरतें, सभी को. दीवार ऊँची थी, कहीं भागने की जगह नहीं थी. मशीनगन चलाई, सभी यही मिले. औरतें और बूढ़े, बच्चों को बचाते हुए, पर किसी को नहीं बचा पाये... ऊपर से फूस डाल कर आग लगा दी..."












बोलते बोलते पिएत्रो की आवाज़ भर्रा जाती. उन मरने वालों में उसकी चौदह साल छोटी बहन थी, गर्भवती भाभी थी और पिता थे. "बोली थी मैं भी साथ जँगल में चलूँगी तो मैंने रोक दिया. सोचा कि भाभी को ज़रूरत पड़ सकती है. फ़िर सोचा बेचारी बच्ची है, बच्ची को कुछ नहीं करेंगे...". भाभी के नौ महीने होने को थे, भागमभाग में खतरा था. पिएत्रो के आँसू नहीं रुकते थे.

पिछले साल पिएत्रो गुज़र गये. आज उन्हीं को याद करने हम लोग मारज़ाबोत्तो गये थे. यहाँ पर 1944 में द्वितीय महायुद्ध में सितंबर के अंत में और अक्टूबर के प्रारम्भ में जर्मन सिपाहियों ने 771 लोगों को मारा था, अधिकतर बच्चे, बूढ़े और औरतें. जर्मन लड़ाई हारने लगे थे. वहाँ के बहुत से नवयुवक मुसोलीनी और फासिसम के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़े थे, पहाड़ों में छुप छुप कर ज़र्मन सिपाहियों पर हमला करते थे और जर्मन सिपाही बदला लेना चाहते थे, किसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहते थे.

मारज़ाबोत्तो छोटा सा गाँव सा है, हालाँकि आसपास के पहाड़ों पर बिखरे गाँवों के मुकाबले में उसे शहर कहा जाता है. शहर के प्रारम्भ में ही उन 771 मुर्दों की कब्रों के लिए सकरारियो यानि पूजा स्थल बना है. सँगमरमर की दीवारें हैं कब्रिस्तान की जिस पर हर मरने वाले का नाम और उम्र लिखी है. अदा 3 साल, रेबेक्का 26 साल, ज्योवानी चौदह साल, मारिया 74 साल ... उनमें से 315 औरतें और 189 बच्चे 12 साल से छोटे. यहीं पर आ कर पिएत्रो छोटी बहन के पत्थर पर हाथ रख कर बैठा रहता था. उसका बड़ा भाई जिसकी पत्नी अनजन्मे बच्चे के साथ मरी थी, कई साल पहले गुज़र चुका था. "मेरी ही गलती से वह मरी, मैं उसे अपने साथ आने देता तो बच जाती", बार बार यही कहता.

काज़ालिया गाँव के कब्रिस्तान की दीवार पर जहाँ 195 लोग मारे गये थे जिनमें से 50 बच्चे थे, बाहर लिखा है, "हिटलर ने कहा कि हमें शाँत हो कर क्रूरता दिखानी होगी, बिना हिचकिचाये, वैज्ञानिक तरीके से, बढ़िया तकनीक से यह काम करना है हमें."



जाने क्यों मेरे मन वो लोग आते हैं जिनकी मौत का कोई ज़िम्मेदार नहीं, जिनको मारने वाले खुले आम घूम रहे हैं. 1984 में दिल्ली में मरने वाले, 2002 में गुजरात में मरने वाले, 2007 में नंदीग्राम में मरने वाले. कुछ भी बात हो अपने हिंदुस्तान में सौ-दौ सौ लोग मरना मारना तो साधारण बात है. क्या नाम थे, किसने मारा, क्यों मारा, कोई बात नहीं करता. न ज़िंदा लोगों की कोई कीमत और न मरने वालों की. फ़ालतू की बातों में समय बरबाद नहीं करते. उन माओं, पिताओं, बहनो, भाभियों को कोई याद करता. उनके नाम कहीं नहीं लिखे, कानून के लिए तो शायद वह मरे ही नहीं. सोचता हूँ कि अपने जीवन की हमने इतनी सस्ती कीमत कैसे लगायी?

भारत से आने वाले समाचारों से इन दिनों बहुत निराशा हो रही है. मुंबई में गुँडागर्दी करने वाले बिहारियों पर हमला करते हैं, देश चूँ नहीं करता. मुट्ठी भर कट्टरपंथी मुसलमान दँगा करते हैं, खुले आम टेलिविज़न पर तस्लीमा को मारने की धमकी देते हैं, सरकार तस्लीमा पर शाँती भंग करने का आरोप लगाती है और खूलेआम कत्ल की धमकी देने वाले खुले घूमते हैं. हिंदू गुँडे धमकी देते हैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामनुजम की रामायण के बारे में लिखी किताब हटायी जाये. इस गुँडाराज में कोई न्याय नहीं, कोई आदर्श नहीं, सबके मुँह पर ताले लगे हैं.

जीवतों की कोई पूछ नहीं, मुर्दों की चीखों को कौन सुने?

रविवार, मार्च 16, 2008

चुरा के दिल बन रहे हैं भोले

विश्वविद्यालय का चिकित्सा विभाग शहर के पुराने हिस्से में है, वहाँ जब भी जाना पड़ता है तो साईकल से ही जाना पसंद करता हूँ. बोलोनिया के पुराने हिस्से में छोटी छोटी संकरी गलियाँ हैं, और वहाँ केवल शहर के उस हिस्से में रहने वाले ही कार से जा सकते हैं. वैसे भी अधिकतर गलियाँ वन-वे हैं और अगर कार से जायें भी तो भूलभुलईयाँ की तरह इस तरह घुमाते हें कि थोड़ी देर में ही भूल जाता हूँ कि किधर जाना था और किधर जा रहा हूँ. बस से भी जा सकते हैं पर फ़िर चिकित्सा विभाग तक थोड़ा चलना पड़ता है. क्लास समाप्त हुई और वापस आ रहा था तो प्याज़ा वेर्दी (piazza verdi) में एक सज्जन ने हाथ उठा कर कहा "एक मिनट, प्लीज, एक मिनट!"

प्याज़ा वेर्दी पिछले कई महीनों से शहर में चर्चा का विषय बना हुआ है. विश्वविद्यालय के छात्र रोज़ रात को वहाँ हुल्लड़ करते हैं. खुली जगह है पुराने मध्ययुगीन घरों से घिरी, बीच में बैठ कर बियर पीते हैं, गप्प मारते हें और किसी को ज़्यादा जोश आया तो वह खाली बोतलें को तोड़ने लग जाता है. आसपास रहने वाले लोग शोर से, गंदगी से परेशान हैं, कहते हैं कि नशे का सामान भी लोग खुले आम बेचते हैं. वहाँ रहने वाले माँग कर रहे हैं कि वहाँ छात्रों के एकत्रित होने को मना कर दिया जाये. छात्र कहते हें कि यह लोग छात्रों को महँगे महँगे सब चीज़ बेचते हैं, घरों के किराये इतने अधिक हैं कि बेचारे छात्र परेशान हो जाते हैं, इन्हें केवल अपना लाभ दिखता है और कुछ नहीं.

जब तक इस बात का कुछ निर्णय लिया जाये, नगरपालिका ने उस इलाके में रात को दस बजे के बाद शीशे की बोतलों में बियर बेचने पर रोक लगा दी है और वहाँ के सभी पब बार आदि को एक बजे बंद होना पड़ता है.

"हाँ कहिये?", मैं तुरंत रुक गया. यही बुरी आदत है मुझमें, कोई कुछ भी कह कर रोक सकता है मुझे. सुने को अनसुना करके निकल जाना नहीं आता. इस तरह रुक कर जाने कितनी अनचाही चीज़ें, किताबें खरीद लेता हूँ क्योंकि इस तरह के बेचने वालों पर मुझे जल्दी तरस आ जाता है. फ़िर घर वापस आ कर समझ नहीं आता कि बेकार की खरीदी चीज़ो का क्या किया जाये, कहाँ फ़ैंका जाये.

कुछ अजीब सा लगा वह व्यक्ति जिसने मुझे पुकारा था. हल्के पीले रंग का रेनकोट जैसा पहने था, बाल यूँ सेट हो रहे थे मानो पुरानी होलीवुड फिल्मों में क्लार्क गेबल के या अपनी हिंदी फ़िल्मों में के एल सेहगल के होते थे. उनके पीछे पीछे एक आदमी बड़ा कैमरा लिये था, दूसरे के हाथ में लम्बा वाला माईक्रोफोन था. "एक मिनट का समय चाहिये. हम लोग मनोविज्ञान के बारे में डीवीडी बना रहे हैं, आप का थोड़ा सहयोग चाहिये. आप को एक तस्वीर को देखना है और यह बताना है कि अगर आप उस तस्वीर वाली जगह पर हों तो क्या करेंगे?"

एक क्षण के लगा कि शायद कोई बकरा बनाने वाला कार्यक्रम न हो. कुछ झिझक कर कहा कि दिखाईये कौन सी तस्वीर है?

तस्वीर में एक पहाड़ था, सुंदर फ़ूलों से भरी एक घाटी थी और सुंदर नदी थी. इस तरह की जगह पर हूँ तो मैं क्या करूँगा? इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह बोले, "आप को कहना है कि मैं चुपचाप प्रकृति की स्वर सुनूँगा".

यानि, मुझे केवल उनका बताया डायलाग बोलना था. सचमुच में मैं वहाँ क्या करूँगा, इसकी उन्हें परवाह नहीं थी. जब उन्होंने "एक्शन" कहा तो मैंने कुछ सोचने का अभिनय करते करते, वही उनका कहा बोल दिया.

"अच्छा, क्या मैं आप की तस्वीर ले सकता हूँ?", मैंने थैले से कैमरा निकाला, पर उत्तर देने का उनके पास समय नहीं था, कैमरा और माईक ले कर वह किसी और से कोई अन्य डायलाग बुलवाने चल पड़े थे.

मैं मन में बोला, सचमुच उस तरह की जगह पर होता तो क्या करता? ज़ोर ज़ोर से गाना गाता, "सुहाना सफ़र और यह मौसम हसीन" या फ़िर, "भीगी भीगी हवा, सन सन करता जिया".

उस शाम को घर पर बेटे और पुत्रवधु को यह बात सुना रहा था तो बात हिंदी संगीत पर जा अटकी. कोई भी बात हो, कुछ भी स्थिति हो, हर स्थिति के लिए मेरे मन में कोई न कोई हिंदी गाना है और वह गाने ही तो मन की बात को अभिव्यक्त करते हैं! लता, किशोर, रफ़ी, आशा के गाये गीत हमारी भावनाओं के साथ इस तरह जुड़े हैं कि अगर गाना न हो तो भावना अधूरी सी लगती है.

मैंने कहा कि आर डी बरमन मेरे सबसे प्रिय संगीतकार थे, उनके हर गाने के शब्द मुझे याद थे. कुछ और बात बढ़ी तो मैंने बताया कि उनकी पहली फ़िल्म "छोटे नवाब" के गाने मुझे बहुत अच्छे लगते थे, जैसे "चुरा के दिल बन रहे हैं भोले, जैसे कुछ जानते नहीं" और कैसे मैंने इस फ़िल्म के कैसेट को कितने सालों तक दिल्ली की दुकानों में खोजा पर नहीं मिला. बेटे ने पूछा, "क्या नाम बोला आप ने उस संगीत निर्देशक का?"

कल मीटिंग में फ्लोरेंस गया था. शाम को घर लौटा तो बेटा मुस्करा रहा था, "आप के लिए आर डी बरमन के सभी गाने खोज लिये हैं, इंटरनेट पर सब मिल जाता है."

विश्वास नहीं हुआ पर सचमुच एसा ही है. जाने कहाँ से, कैसे, वह आर डी बरमन के सारे गाने खोज लाया है, सौ से भी अधिक फ़िल्में हैं, उनमें से बहुत सी हैं जिनका नाम भी पहले नहीं सुना कभी, शायद रिलीज़ ही न हुई हों, जैसे कि जलियाँवाला बाग, मज़ाक, मर्दोंवाली बात, आदि. कुछ प्रसिद्ध निर्देशकों भी फ़ल्में हैं जैसे विजय आनंद की "घुघरू की आवाज़" जिनके नाम भी मुझे नहीं मालूम थे. एक गाना है "मज़दूर" फिल्म से सलमा आगा का गाया हुआ जो पहले कभी नहीं सुना था. अभी तो चार या पाँच फ़िल्मों के गाने ही सुने हैं, सभी गानों को एक बार सुनते सुनते कई सप्ताह लग जायेंगे. 8 जिगाबाईट हैं उन गानों के.

और सबसे अच्छी बात, रात को बहुत सालों के बाद "चुरा के दिल बन रहे हें भोले" भी सुना.

कई बार मन में आता था कि जब कोई फ़िल्म नहीं रिलीज़ हुई हो या पूरी ही न हुई हो, तो उसका संगीत, उसकी रील कहाँ जाती होगी? जाने कितना काम हो सकता है हमारे प्रिय संगीतकारों का, निर्देशकों का, इस तरह से छुपा हुआ. शायद उनका बाज़ार न हो पर इंटरनेट के माध्यम से उनके प्रेमी उनका आनंद तो ले सकते हैं?

शुक्रवार, मार्च 14, 2008

अमलतास और टेसू की आग

आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है!

थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.

आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.

बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.

बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)



बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)



देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.

दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?

सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.

मंगलवार, मार्च 11, 2008

संगीत और शोर

पिछले तीन चार सालों से काम करते समय जब भी अकेला होता हूँ तो संगीत सुनने की आदत सी पढ़ गयी है. इंटरनेट का कोई भारतीय स्टेशन खोज कर दुनिया में कहीं भी भारतीय संगीत सुनना आज जितना आसान है उतना पहले कभी नहीं था.

कल दिन भर घर पर था. बहुत दिनों से घर पर समय नहीं मिला था और अपनी स्टडी में बहुत सारे काम जमा हो गये थे. शेल्फ पर ढेर लगे किताबों के उन्हें ठीक करना, छाँट कर पुरानी किताबों को फैंकने के लिए निकालना, डीवीडी इधर उधर बिखरी हुई हैं उन्हें ठीक से सहेज कर रखना, फोटो को छाँटना और एल्बम में लगाना, अलमारी के द्राज साफ करना, कागज़ छाँटना, पुरानी पत्रिकाओं को छाँटना, आदि. कई घँटे लगे इस सब काम में और सारे समय संगीत बजता रहा.

रात का खाना लगा तो पत्नी ने खाना खाने को बुलाया और बोली अब इस शोर को बंद करो, सारा दिन यह चीं चीं सुन कर सिर दर्द हो गया है. मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि मेरे संगीत को शोर कह रही है पर बंद कर दिया. कमरे में से आखिरी कागज कूड़ा उठा रहा था जो बिना आवाज का कमरा अजीब सा पर अच्छा लगा. सोच रहा था कि कैसे संगीत भी अधिक हो जाये तो, या उसकी ध्वनी ज़रूरत से अधिक ऊँची हो शोर बन सकता है.

खाना खा कर कुत्ते को लिया और बाग में सैर को निकला. पहले दो दिन बारिश हो रही थी और सर्दी वापस लौट आई थी पर कल रात को न तो बारिश थी न ही वह हड्डियों तक घुसने वाली सर्दी. थोड़ी देर तक ही चला था कि पड़ोस के एक वृद्ध सज्जन दिखे, उनसे हैलो हुई तो वे भी साथ चलने लगे. वैसे तो मुझे तेज चलना अच्छा लगता है पर कुत्ता साथ हो तो तेज नहीं चल सकते, जहाँ कुत्ते को रुकना होता है, वहाँ रुकना ही पड़ता है. वे वृद्ध सज्जन जिनका नाम है अंतोनियो, उनका दायें कूल्हे का ओपरेशन हुआ है तो छड़ी के सहारे धीरे धीरे चलते हैं, उनके साथ साथ चलते हुए, और भी धीमे चलना पड़ रहा था.

अंतोनियो बहुत बातें करते हैं, लगता है कि सारा दिन घर में किसी से बात नहीं कर पाते या शायद घर पर अकेले रहते हैं, पर जब मिलते हैं, सारा समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. उनके कूल्हे के ओपरेशन के बारे में तो पहले ही बहुत सुन चुका हूँ. कल रात को बात हो रही थी बदलते पर्यावरण के बारे में कि कैसे मौसम बदल रहे हैं, गर्मियों में गर्मी बढ़ गयी है और सर्दियों में सर्दी कम पड़ती है. तभी सामने से जोगिंग करता हुआ एक लड़का आया. अंतोनियो ने उसे हैलो बोला पर वह कानो में आईपोड लगाये संगीत सुनने में मस्त था, उसने शायद नहीं सुना और आगे निकल गया.

अंतोनियो मुझसे बोले, "आज कि दुनिया में साथ साथ कितने काम करते हैं, पर ध्यान किसी तरफ नहीं दे पाते. अगर पूछो कि कौन सा गाना सुना तो बता नहीं पायेगा कि क्या सुना, क्या बोल हैं उसके. आजकल संगीत सुनना इतना आसान हो गया है कि उसकी सुंदरता को हम समझ ही नहीं पाते. जब संगीत सुनने को नहीं मिलता था तो उसको कितने ध्यान से सुनते थे, उसके महत्व को समझते थे. जब मैं छोटा था तो संगीत सुनने का मौका साल में एक दो बार ही मिलता था, चर्च में कभी कोई आरगन बजाने वाला आता या कोई धार्मिक गानों को गाने वाला दल आता तब. हम लोग खुद ही अपने लोकगीत गाते, गिटार के साथ. न रेडियो था, न टीवी, न वाकमैन."

करीब अठ्ठासी वर्ष के हैं अंतोनियो और उनकी बात शायद द्वितीय महायद्ध से पहले की थी. जब उन्हें छोड़ कर घर की ओर आ रहा था तो उनकी बातों पर सोच रहा था.

मुझे याद है जब घर में पहला ट्राँज़िस्टर आया था और कैसे सिलोन रेडियो को मुश्किल से खोज कर गाने सुनते थे, तब विविध भारती नहीं होता था. तब किसी नये गीत को सुन कर कितना उत्साह होता था. पर कल सारा दिन संगीत सुनता रहा, क्या सुना, कुछ याद नहीं. आजकल हर समय बस यही चिंता रहती है कि कैसे नया सुना जाये. दो दिनों में ही नये का नयापन गुम हो जाता है और नये की तलाश चलती ही रहती है.

आज की दुनिया में संगीत सुनना तो बहुत छोटी सी बात है, शायद इसी लिए उसका महत्व कम हो गया है?

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2008

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा?

समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे मिट्टी से भरे बाँध की धरती पर वापस लौट रहे हैं जहाँ उनके घर थे.

समाचार का निष्कर्श है कि इस तरह के निर्णय जिनसे प्रकृति, लोगों पर इतना प्रभाव पड़ेगा, उन्हें लम्बा सोच कर लेना चाहिये न कि छोटे समय में क्या मिलेगा यह सोच कर. तो क्या यह जान कर नर्मदा पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध के बारे में कुछ दोबारा सोचा जा सकता है? उसका विरोध करने वालों को प्रगति का विरोधी मान कर चुप करा जायेगा?

रविवार, फ़रवरी 24, 2008

मधु किश्वर

मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे.

देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है!

भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र है, आने वाले समय का सुपरपावर है और मुट्ठी भर लोगों के हाथ में कबुतर की तरह फड़फड़ाता है, अन्याय के सामने सिर झुका लेता है?

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2008

धर्म एवं आस्था

कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया.

मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?

वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.

ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."
हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है. कुछ सप्ताह पहले फ्राँस के समाचार पत्र "ले मोंड २" की पत्रकार सिल्वी लासेर्र ने ताजिकिस्तान में पेंटेकोस्टल ईसाई धर्म के मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी है. उनके अनुसार, पिछले पंद्रह सालों में ताजिकिस्तान में इस धर्म के अनुयायिओं की संख्या करीब पच्चीस हजार से बढ़ कर दो सौ पैंतीस हजार हो गयी है. धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान सकते हैं पर दिक्कत यह है कि ताजिकिस्तान मुसलमान देश हैं और यहाँ धर्म परिवर्तन को नहीं माना जाता बल्कि धर्म बदलने वाले को मौत की सजा भी हो सकती है. यानि तनाव बढ़ने तथा बड़े स्तर पर झगड़े हो सकने की संभावना बढ़ गयीं हैं.

मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.

जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.

दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.

मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?

वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.

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