सोमवार, अक्तूबर 22, 2007

मेधा पटकर की लड़ाई

शुक्रवार को हमारे शहर में कामगार यूनियन के द्वारा आयोजित एक सभा में मुख्य अतिथि थीं भारत में नर्मदा आंदोलन की प्रसिद्ध नेता सुश्री मेधा पटकर. मैं मेधा से कुछ वर्ष पहले एक अन्य सभा में मिल चुका था. जब वह सभा में पहुँचीं तो मुझे देख कर रुक गयीं और मुस्कुरा कर पूछा, "हरीश भाई? आप हरीश भाई ही हैं न?" (नीचे तस्वीर में मेधा और बोलोनिया कामगार यूनियन के सचिव वितोरियो सिलिनगारदी)



जब तक सभा शुरु हो, उनसे कुछ देर बात करने का मौका मिला. मेरा कहना था कि वह इतनी प्रसिद्ध हैं, बहुत सा समय सभाओं में लोगों से मिलने को जाता होगा तो यह याद रखना कि कौन कौन है, क्या नाम है, वगैरा बहुत कठिन होगा. पर उनका कहना था नहीं वह बहुत कम अंतर्राष्ट्रीय सभाओं में जातीं हैं और इस बार बहुत समय के बाद भारत से निकली हैं. इतालवी वामपंथी कामगार यूनियन चीजीएल (CGIL) के निमंत्रण पर वह यहाँ आयीं हैं और यूनियन वाले चाहते हैं कि शनिवार को वह रोम में कामगारों के एक जलूस में भाग लें. इस जलूस के बारे में वह कुछ चिंतित लगीं यह जाने के लिए कि कौन लोग आयोजित कर रहे हैं, क्या माँगें हैं उनकी इत्यादि. नहीं, मैं इस जलूस में भाग नहीं लेना चाहतीं, बोलीं.

सभा प्रारम्भ हुई तो सबसे पहले मेधा को ही बोलने के लिए कहा गया. उन्होंने बात नर्मदा आंदोलन के इतिहास से शुरु की. बीस बाईस साल हो गयें हैं उनके संघर्ष को. आज सबसे बड़ा सवाल है कि कैसे विस्थापित होने वाले लोगों को उनका हक दिला सकें. उनका कहना था कि उनकी माँग थी कि लोगों को ज़मीन के बदले में ज़मीन ही मिले, केवल कुछ पैसा दे कर उन्हें न छोड़ दिया जाये. पर राज्यसरकार के अधिकारी इस मामले में भ्रष्टाचार का फायदा उठा कर फ़िर से गरीब लोगों को ठग रहे हैं.

उन्होंने दूसरी बात उठायी विषेश आर्थिक क्षेत्रों (Special economic zones - SEZ) की और उनमें निहित विकास के विचार की. विदेशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दिये जाने वाले इन विषेश आर्थिक क्षेत्रों में जमीन, पहाड़, घाटियाँ, नदियाँ सब कुछ दिया जा रहा है, उन क्षेत्रों में कामगरों के कानून, अन्य कानून भी लागू नहीं होते, उनका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी कोई जाँच नहीं, इत्यादि. इस तथाकथित विकास में हमेशा से उनका साथ देने वाली वामपंथी पार्टयाँ भी अब रुख बदल रहीं हैं, जैसे कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने फियट और टाटा की फैक्टरी को लगाने के लिए किया. सरकारी अफसर दो साल की छुट्टी ले कर इन्हीं कम्पनियों में मोटी तनखाह पर नौकरी पाते हैं और अपने सरकारी सम्पर्कों से कम्पनियों का काम आसान करते हैं.

मैं मेधा का भाषण अंत तक नहीं सुन पाया, किसी से मिलना था इसलिए बीच में ही सभा छोड़ कर जाना पड़ा. जितना सुना उससे लगा मेधा जी जनसाधारण के लिए अच्छा बोलती हैं, बहुत ताकत है उनके बोलने में. हर बात को सीधा सपाट बोलती हैं. बोलने का अंदाज कुछ कुछ चुनाव रैलियों की याद दिला रहा था. लगा कि अगर जनता के बीच में खड़ी हो कर जब वह बोलती होंगी तो अवश्य बहुत प्रभावित करती होंगी.


4 टिप्‍पणियां:

  1. आपने लिखा नहीं कि आप उनके विचारों से प्रभावित हैं।(!)
    अच्छा है - जन साधारण के लिये बोलना और सर्वकल्याणकारी बोलना दो अलग बाते हैं।

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  2. क्या बात है, एक के बाद एक भारतीय दिगज्जो से मिल रहे हैं. इनके भाषण के हिस्से भी पढ़ने को मिलते तो क्या बात थी?

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  3. आशा करता हू की मेधा जी अपने इस कार्य मे एक दिन जरूर सफल होंगी और मे उनको एक सुझाव अपनी तरफ़ से देना चाहता हू, कृपया राजनीतिक पार्टीयौ से दूर रहे, नही तो वो कभी भी अपने इस कार्या को अंजाम तक नही पहुचा पाएँगी.

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  4. hazaro saal roti hai kismat apni benuri par, tab jaakar hota hai chman mein deedawar paida!

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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