रविवार, अप्रैल 13, 2008

शोर्य का अर्थ

समर खान की नयी फ़िल्म "शोर्य" बार बार यही प्रश्न पूछती है कि शोर्य का क्या अर्थ है और इस प्रश्न का अपना उत्तर फ़िल्म के अंत में शाहरुख खान की आवाज़ में देती है, कि शोर्य का अर्थ है निर्बलों की, जिनकी आवाज़ न हो, उनकी रक्षा करना. फ़िल्म के बारे में कुछ अच्छा सुना पढ़ा था इसलिए शायद मन में आशाएँ अधिक थीं जिन पर यह फ़िल्म पूरी नहीं उतरी.



फ़िल्म की कहानी है सिद्धांत और आकाश की, जो आर्मी में मेजर हैं और वकील भी, और पक्के दोस्त भी. दोनो अपने आप को एक मुकदमें में पाते हैं जिसमें गुनाहगार है कप्तान जावेद खान जिसने अपने एक साथी राठौर का खून किया है, उस पर आरोप है कि वह आतंकवादियों का साथी था, राठौर द्वारा पकड़े जाने पर उसने राठौर को मार दिया. आकाश हैं आरोप पक्ष का वकील और सिद्धांत हैं बचाव पक्ष का वकील. साथ में हैं एक पत्रकार काव्या शास्त्री जो जावेद की कहानी को समझना चाहती है. जावेद जी स्वयं अपने बचाव में कुछ नहीं कहते हैं और चुपचाप आरोप को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. आर्मी के उच्च अधिकारी ब्रिगेडियर प्रताप चाहते हैं कि जावेद को कड़ी से कड़ी सजा मिले. पर सच्चाई कुछ और है और कैसे सिद्धांत उस सच्चाई तक पहुँच कर जावेद को बेकसूरवार साबित करने में सफल होता हैं यही फ़िल्म की कहानी, उसका रहस्य और उसकी दिलचस्पी का विषय है.



फ़िल्म अच्छे अभिनेताओं से भरी है. सिद्धांत के रुप में हैं राहुल बोस, आकाश हैं जावेद जाफरी, काव्या हैं मनीषा लाम्बा, दीपक दोब्रियाल हैं कप्तान जावेद, सीमा विश्वास बनी हैं जावेद की माँ, के के मेनन बने हैं ब्रिगेडियर प्रताप और अमृता राव हैं राठौर की विधवा. शुरु में एक गाने में नाचती हुई सैफ अली खान की भूतपूर्व मित्र रोज़ा भी हैं. सभी अभिनेताओं में राहुल बोस ही कुछ ढीले से लगे. जावेद जाफरी ठीक हैं. सीमा विश्वास दो दृष्यों में थोड़ी सी देर के लिए आती हैं पर बहुत प्रभावशाली हैं. दोब्रियाल भी अधिक डायलाग न होने पर भी अच्छे हैं. के के जी बहुत बढ़िया हैं. मनीषा और अमृता सुंदर भी लगती हैं और अभिनय भी अच्छा है.

पर इस सब के बावजूद फ़िल्म में मुझे कुछ कमी लगी, यानि लगा कि जितनी प्रभावशाली हो सकती थी, उतनी नहीं हुई. फ़िल्म का एक गुण है कि कहानी के प्रति इमानदारी है और शुरु के नाच गाने के बाद, कहानी अपनी मुख्य धारा पर ही बनी रहती है, इधर उधर की बातों में नहीं बहकती.

राठौर की हत्या के पीछे क्या रहस्य है, मुकदमें के दौरान कैसे इसकी तह तक पहुँचते हैं यह फ़िल्म के केद्रीय मुद्दा था जिसका निर्माण इस तरह का होना चाहिये था कि वह लोगों की उत्सुकता को बाँध ले, पर फ़िल्म में मुझे यह बात कुछ कमजोर से लगी. सिद्धांत बस एक सिपाही से एक सवाल ठीक पूछते हैं, वह घबरा कर भाग जाता है और उसके बाद शाम को अकेले में बुला कर वह सब कुछ पूरा सुना देता है. यानि रहस्य खुलने में कोर्टरूम में जिस तरह तरह वकील अपनी काबलियत से, तर्क से, सच को निकाल लेता है, वह बात नहीं. राठौर की विधवा द्वारा सभी कागज भेज देना जिससे वकील साहब छुपी सारी बातें समझ जायें, भी विश्वास्नीय नहीं लगा. फ़िल्म के कसूरवार बहुत सालों से निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, क्या वकील साहब इसके सबूत नहीं निकाल सकते थे?



सबसे कमज़ोर बात लगी, अंत के दृष्यों में सिद्धांत का ब्रिगेडियर साहब से सवाल करना और कोर्ट मार्शल करने वालों का सब कुछ चुपचाप देखना. जब वह बरिगेडियर जी गवाह के रूप में बुलाये गये हैं तो क्या गवाह से आप कुछ भी पूछ सकते हैं, उसके बचपन के बारे में, उसके अपने परिवार के बारे में, कोर्ट को बिना बताये कि पिछली इन बातों से केस का क्या सम्बंध है? जो व्यक्ति घटना के समय पर वहाँ नहीं था, उसे गवाह बनाना और उससे कुछ भी पूछ कर उसे दोषी साबित करना, फ़िल्मी सा लगा. यह बात नहीं कि मैं वकील हूँ या मुझे आर्मी के कोर्ट मार्शल के मुकदमों की जानकारी है पर यह सब बातें, मुझे विश्वास्नीय नहीं लगी.

और किसी आर्मी अफसर के इलाके में बेकसूर लोग, बच्चे, औरतें मारी जा रहीं हैं, और आर्मी को इस बारे में कुछ शक नहीं होता, न ही ब्रिगेडयर के जान पहचान वाले मित्रों को पता है कि उनकी सोच कैसी कट्टरवादी हैं, यह बात भी अविश्वास्नीय लगी.

न ही जावेद के चुप रहने वाली बात का तुक समझ में आया. वह जानता है कि ब्रिगेडियर निर्दोषों को मार रहा है, अत्याचार कर रहा है पर वह चुप रहते हैं क्योंकि इससे आर्मी का नाम बदनाम होगा? इससे उनकी देश भक्ती दिखायी गयी है.



राहुल बोस का चरित्र कुछ कुछ फरहान की फ़िल्म "लक्ष्य" में हृतिक रोशन के चरित्र से मिलता जुलता लगा, फर्क केवल इतना है कि वह वकील हो कर और आर्मी में मेजर हो कर भी निठल्ले मस्ती करना चाहते हैं. यानि आर्मी में मेजर बनना और वकील बनने में कोई मेहनत नहीं चाहिये? उसी तरह काव्या का चरित्र भी "लक्ष्य" की प्रीति ज़िन्टा से मिलता जुलता लगा. ब्रिगेडियर प्रताप का चरित्र और उनका व्यवहार निहलानी की फ़िल्म "देव" में ओम पुरी के चरित्र से मिलता लगा. यानि कि लगता है कि पटकथा लिखने वालों ने कुछ प्रेरणा इधर उधर से पायी, फ़िल्म की कहानी तो एक अँग्रेज़ी फ़िल्म से प्रभावित है ही.

फ़िल्म का संगीत है अदनान सामी का और एक गीत, "धीमे धीमे" बहुत सुंदर है. फ़िल्म के बाद जहाँ पात्रों के अच्छे अभिनय और बहुत सारे अच्छे दृष्य याद रहते हें वहाँ कहानी की पटकथा की कमज़ोरियों से दुख भी होता है कि शायद और भी बढ़िया बन सकती थी. यह नहीं कहूँगा कि फ़िल्म बुरी है, शायद आम फ़िल्मों से बहुत अच्छी है पर जितनी बढ़िया हो सकती थी, उससे कुछ कम रह गयी.

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगी समीक्षा । मौका लगा तो ज़रूर देखेंगे ।

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  2. समीक्षा पढकर फिल्म की थीम तो अच्छी लगी, मौका मिलते ही देखूंगा।

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  3. समीक्षा padha , film kai din se dhkhna chahtu,, time hee nahee mila, but aaj jarur dekhunga, phir aap ki समीक्षा per kuch likunga,

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  4. File dekha, acchi lagi, aap ki समीक्षा se sahmat nahi hu, muche film bhut hi acchi lagi,

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  5. May i know... Shorya film is based on Court Martial (Drama of Swadesh Deepak ??)

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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