अगर आप समाज की किसी बात से सहमत नहीं हैं तो आप बात लोक कथाओं या लोक गीतों से कह सकते हैं. ऐसा ही कुछ अभिप्राय था मानुषी की संपादक मधु किश्वर का जिन्होंने अपने एक लेख में, गाँव की औरतों का अपने जीवन की विषमताओं का वर्णन और विरोध रामायण से जुड़े गीतों के माध्यम से करने, के बारे में लिखा था. अमोल पालेकर की निर्देशित "पहेली" देखी तो यही बात याद आ गयी.
क्योंकि "पहेली" भूत की बात करती है, एक लोक कथा के माध्यम से, इसलिए शायद अपने समाज के बारें कड़वे सच भी आसानी से कह जाती है और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को पत्थर या तलवारें उठा कर खड़े होने का मौका नहीं मिलता. फिल्म की नायिका, पति के जाने के बाद स्वेच्छा से परपुरुष को स्वीकार करती है और जब पति वापस आता है तो वह उसे कहती है कि वह परपुरुष को ही चाहती है. फिल्म की कहानी ऐसे बनी है कि पिता का आज्ञाकारी पुत्र ही खलनायक सा दिखायी देता है. यही कमाल है इस फिल्म का कि लोगों की सुहानभूती विवाहित नायिका और उसके प्रेमी की साथ बनती है, पति के साथ नहीं. सुंदर रंगों और मोहक संगीत से फिल्म देखने में बहुत अच्छी लगती है.
इस कहानी में अगर भूत की जगह हाड़ माँस का आदमी होता तो कहानी कुछ और ही हो जाती.
कल शाम को दुबाई से प्रसारित हम रेडियो सुनने लगा तो नुसरत फतह अली खान का गाया गीत "पाकिस्तान पाकिस्तान" सुन कर अच्छा नहीं लगा. कल उनका स्वतंत्रता दिवस था. ऐसा क्यों होता है कि जब रहमान जी "माँ तुझे सलाम" गायें तो अच्छा लगे और दूसरे "पाकिस्तान पाकिस्तान" गायें तो बुरा लगे ?
आज १५ अगस्त के अवसर पर, दो तस्वीरें फ़ूलों कीः
सोमवार, अगस्त 15, 2005
रविवार, अगस्त 14, 2005
छुट्टियों की थकान
छुट्टियों में मज़े उड़ाना कितना थका देता है. अभी तो इन तीन दिनों की छुट्टियों का केवल एक ही दिन बीता है पर अभी से थकान हो रही है. कल सारा दिन रिमिनी में बिताया. रिमिनी बोलोनिया के पूर्व में करीब १०० किलोमीटर पर स्थित है.
अगर आप इटली का नक्शा देखें तो सारा देश ही समुद्र तट से जुड़ा लगता है, पर पश्चिम समुद्र तट अधिक पथरीला है और रेत वाले बीच कहीं कहीं पर हैं. लेकिन, पूर्वी समुद्र तट, उत्तर में वेनिस से दक्षिण में बारी तक करीब एक हज़ार किलोमीटर तक रेत वाला बीच है, जहाँ समुद्र की लहरें अधिकतर शांत ही रहती हैं. इसलिए पूर्वी समुद्र तट छोटे छोटे शहरों से भरा है जहां गरमियों से पूरे उत्तरी यूरोप से पर्यटक छुट्टियां मनाने आते हैं.
रिमिनी को इन सब शहरों की रानी कहते हैं. महीन सफेद रेत वाले समुद्र तट के अतिरिक्त यहां छुट्टियों में मज़े करने के सभी साधन उपलब्ध हैं. सारी रात खुले रहने वाले डिस्को, सिनेमा, दुकाने, जलपार्क, थीमपार्क, डोलफिनारियम, और जाने क्या क्या. पूरा शहर एक मेला सा लगता है.
अगर आप कुछ और नहीं करना चाहते बस समुद्र तट पर ही आराम करना चाहते हैं, तो उसमें भी बहुत कुछ हैं करने और देखने के लिए. जगह जगह सुंदर लड़कियां आप को नाच सिखाने के लिए, संगीत की धुन पर कसरत करने को या खेलने के लिए प्रेरित करने के लिए नगरपालिका की तरफ से रखी गयीं हैं. पर शायद आप इस तरह समय बरबाद करने में विश्वास नहीं करते, बस आराम से आस पास देखना चाहते हैं ? हम समझ गये आप की बात. पिछले कुछ सालों से यहां समुद्र तट पर टोपलैस होने का फैशन है, इसलिए आस पास देखने का भी अपना आनन्द हैं. लगता है जैसे आप विश्वामित्र हों और मेनकांए आप की तपस्या को भंग करने की कोशिश कर हीं हों.
प्रस्तुत हैं दो तस्वीरें कल की रिमिनी यात्रा से.
अगर आप इटली का नक्शा देखें तो सारा देश ही समुद्र तट से जुड़ा लगता है, पर पश्चिम समुद्र तट अधिक पथरीला है और रेत वाले बीच कहीं कहीं पर हैं. लेकिन, पूर्वी समुद्र तट, उत्तर में वेनिस से दक्षिण में बारी तक करीब एक हज़ार किलोमीटर तक रेत वाला बीच है, जहाँ समुद्र की लहरें अधिकतर शांत ही रहती हैं. इसलिए पूर्वी समुद्र तट छोटे छोटे शहरों से भरा है जहां गरमियों से पूरे उत्तरी यूरोप से पर्यटक छुट्टियां मनाने आते हैं.
रिमिनी को इन सब शहरों की रानी कहते हैं. महीन सफेद रेत वाले समुद्र तट के अतिरिक्त यहां छुट्टियों में मज़े करने के सभी साधन उपलब्ध हैं. सारी रात खुले रहने वाले डिस्को, सिनेमा, दुकाने, जलपार्क, थीमपार्क, डोलफिनारियम, और जाने क्या क्या. पूरा शहर एक मेला सा लगता है.
अगर आप कुछ और नहीं करना चाहते बस समुद्र तट पर ही आराम करना चाहते हैं, तो उसमें भी बहुत कुछ हैं करने और देखने के लिए. जगह जगह सुंदर लड़कियां आप को नाच सिखाने के लिए, संगीत की धुन पर कसरत करने को या खेलने के लिए प्रेरित करने के लिए नगरपालिका की तरफ से रखी गयीं हैं. पर शायद आप इस तरह समय बरबाद करने में विश्वास नहीं करते, बस आराम से आस पास देखना चाहते हैं ? हम समझ गये आप की बात. पिछले कुछ सालों से यहां समुद्र तट पर टोपलैस होने का फैशन है, इसलिए आस पास देखने का भी अपना आनन्द हैं. लगता है जैसे आप विश्वामित्र हों और मेनकांए आप की तपस्या को भंग करने की कोशिश कर हीं हों.
प्रस्तुत हैं दो तस्वीरें कल की रिमिनी यात्रा से.
शनिवार, अगस्त 13, 2005
कोई वहाँ है, ऊपर
कल दोपहर को काम से छुट्टी ले कर जल्दी घर आ गया, क्योंकि अपने डेंटिस्ट से बात करना चाहता था. उसके क्लीनिक कई जगह हैं, जिनमें से एक घर के पास ही है, पर मुझे कभी याद नहीं रहता कि किस दिन कितने बजे हमारे घर के पास वाले क्लीनिक में रहता है. उसके कार्ड पर देखा, "शुक्रवार को शाम को ५ से ७ बजे", तो पौंने पाँच बजे घर से निकला. क्लीनिक पहुँचा तो मालूम चला कि मैंने कार्ड देखने में गलती कर थी, शुक्रवार को हमारे वाले क्लीनिक में वह शाम को साढ़े चार बजे तक ही रहता है. अब तीन दिन की छुट्टी है (१५ अगस्त इटली में राष्ट्रीय छुट्टी होती है), तो मंगलवार तक उससे मिलने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. खुद को कोसा, की कार्ड को ठीक से क्यों नहीं देखा और मायूस हो कर घर लौटा.
सोचा अब घर जल्दी आ ही गया हूँ तो पुस्ताकालय की किताबें ही लौटा आँऊ. किताबें उठायीं और बस स्टाप पर आ खड़ा हुआ. जहाँ पुस्तकालय है वह जगह सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए है और वहाँ कार से जाना संभव नहीं है. जाने क्या सोच रहा था, गलत बस में चढ़ गया जो बहुत लम्बा चक्कर लगाती है. खुद को और कोसा, और करता भी क्या. इन गरमियों की छुट्टियों की वजह से बसें भी कम ही हैं, और उस बस से उतर कर वापस बस स्टाप पर आने की कोशिश करता तो और भी समय बरबाद होता.
एक घंटा बस में बिता कर पुस्तकालय पहुँचा तो पाया कि पुस्तकालय बंद है और २५ अगस्त को खुलेगा. समझ में आ गया कि आज मेरा दिन नहीं है, वापस घर ही जाना चाहिये! और बस स्टाप पर इंतजार कर के आखिरकार बस आयी. घर के पास ही थे, जब बारिश शुरु हो गयी. जब घर से चला था, सूरज चमक रहा था, इसलिए छतरी साथ लेने का विचार ही नहीं आया था. घर का बस स्टाप आया तो लगा बारिश और भी तेज हो गयी है. बस स्टाप से घर तक के पाँच मिनट के रास्ते में पूरी तरह से भीग गया. सिर उठा कर ऊपर आसमान की ओर देखा. आसमान में, दायें और बायें तरफ साफ नीला आसमान था सिर्फ बीच में थे कुछ काले बादल, वही बरस रहे थे.
घर में कपड़े बदल रहा था तो धूप फिर से निकल आयी थी. सोचा कि लोग कैसे कहते हैं कि भगवान नहीं है. मुझे तो लगा कि है, वहाँ ऊपर कहीं कोई है जो मेरा उल्लु बना कर जोर जोर से हँस रहा था.
आज की तस्वीरे मैसूर के पास के शहर मँडया से हैं.
सोचा अब घर जल्दी आ ही गया हूँ तो पुस्ताकालय की किताबें ही लौटा आँऊ. किताबें उठायीं और बस स्टाप पर आ खड़ा हुआ. जहाँ पुस्तकालय है वह जगह सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए है और वहाँ कार से जाना संभव नहीं है. जाने क्या सोच रहा था, गलत बस में चढ़ गया जो बहुत लम्बा चक्कर लगाती है. खुद को और कोसा, और करता भी क्या. इन गरमियों की छुट्टियों की वजह से बसें भी कम ही हैं, और उस बस से उतर कर वापस बस स्टाप पर आने की कोशिश करता तो और भी समय बरबाद होता.
एक घंटा बस में बिता कर पुस्तकालय पहुँचा तो पाया कि पुस्तकालय बंद है और २५ अगस्त को खुलेगा. समझ में आ गया कि आज मेरा दिन नहीं है, वापस घर ही जाना चाहिये! और बस स्टाप पर इंतजार कर के आखिरकार बस आयी. घर के पास ही थे, जब बारिश शुरु हो गयी. जब घर से चला था, सूरज चमक रहा था, इसलिए छतरी साथ लेने का विचार ही नहीं आया था. घर का बस स्टाप आया तो लगा बारिश और भी तेज हो गयी है. बस स्टाप से घर तक के पाँच मिनट के रास्ते में पूरी तरह से भीग गया. सिर उठा कर ऊपर आसमान की ओर देखा. आसमान में, दायें और बायें तरफ साफ नीला आसमान था सिर्फ बीच में थे कुछ काले बादल, वही बरस रहे थे.
घर में कपड़े बदल रहा था तो धूप फिर से निकल आयी थी. सोचा कि लोग कैसे कहते हैं कि भगवान नहीं है. मुझे तो लगा कि है, वहाँ ऊपर कहीं कोई है जो मेरा उल्लु बना कर जोर जोर से हँस रहा था.
आज की तस्वीरे मैसूर के पास के शहर मँडया से हैं.
शुक्रवार, अगस्त 12, 2005
तुम मुझे खून दो...
कल रात को श्याम बेनेगल के नयी फिल्म जो उन्होंने सुभाष चंद्र बोस पर बनायी है, देखी. श्याम बेनेगल का मैं अंकुर, जुनून के दिनों से प्रशंसक रहा हूँ हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में उनकी बनायी कोई फिल्म नहीं देखी सिवाय जुबैदा के. नेता जी पर बनी यह फिल्म बहुत दिलचस्प लगी और यह भी लगा कि शायद भारत ने सुभाष बाबू के अनौखे व्यक्तित्व पर ठीक से विचरण नहीं किया और न ही उसे समाजशास्त्रियों और राजनीतिकशास्त्रों से भारत के इतिहास में सही स्थान मिला.
एक व्यक्ति का राजनितिक नेता से लड़ाई का जनरल बन जाना आम बात नहीं है. लड़ाई के समय में नेताओं को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना होता है, पर बिना जनरलों और कर्नलों के नेता यह लड़ाई अपने आप नहीं संचालित कर सकते. चर्चिल, हिटलर इत्यादि रणनीति जानने वाले जनरलों के सहारे से लड़ाईयां लड़ते थे, स्वयं रणनीति नहीं बनाते थे, पर सुभाष बाबू राजनीति के साथ साथ खुद ही रणक्षेत्र में रणनीति भी बना रहे थे. फिर भी उनके सिपाही साथी फिल्म में उन्हें कमांडर साहब या जनरल नहीं बुलाते, नेता जी ही बुलाते हैं, क्यों ? क्योंकि शायद वे उन्हें लड़ाई का कमाडंर नहीं राजनीतिज्ञ रुप में ही देखते थे ?
फिल्म में उनका काबुल निवास और बरलिन निवास लम्बे तौर से दिखाया गया है. और बरलिन में उनका एमिली शैंकर से सम्बंध और बच्चे (अनीता बोस) का होना भी लम्बे तौर से दिखाया गया है जो मुझे अच्छा लगा क्योंकि इससे उनकी साधारण मानवता स्पष्ट होती है, कि उनमें मन में देश प्रेम के साथ साथ सामान्य मानव भावनांए भी थीं.
जब आज़ाद हिंद फौज द्वारा भारत के उत्तरी भाग से आक्रमण होने की तैयारी हो रही होती है तो वह कहते हैं कि उन्हें ७०,००० सिपाहियों की फौज चाहिये और उनका विचार था कि जब उनके सैनिक भारत में घुसेंगे तो अंग्रेज सैना के भारतीय सिपाही बगावत कर के उनके साथ हो जायेंगे. पर जब उनकी सैना ने आक्रमण प्राम्भ किया तो वे केवल ८,००० ही थे पर भारतीय सिपाहियों ने बगावत नहीं की और न ही अंग्रेजी फौज छोड़ कर वे आजाद हिंद फौज के साथी बने. आदेश मानने वाले अंग्रेजों के वफादार भारतीय सिपाही अपने देश की आजादी चाहने वाले अपने भाईयों से कैसे लड़ते रहे, इस बारे में मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर नहीं मिला.
जापान पर एटम बम्ब गिरने के साथ ही नेता जी का भारत को लड़ाई से स्वतंत्र कराने का सपना अधूरा ही रह गया इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस लड़ाई में अपने साथी देश वो चुने थे (इटली, जरमनी और जापान) जिन्हें द्वितीय महायुद्ध में हार मिली थी. लेकिन उनका सपना इसलिए भी अधूरा रह गया क्योंकि भारतीय सिपाहियों ने स्वतंत्रा से पहले अपनी रोजीरोटी का सोचा था. क्या कारण थे इसके ? भारत की स्वतंत्रा के बाद, जहाँ तक मुझे मालूम है वही अंग्रेजों के साथ काम करने वाली सैना, स्वतंत्र भारत की सैना बन गयी. कितने कैपटेन, सारजैंट होंगे जिन्होंने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर गोली चलायी होगी, जिन्हें आजादी के बाद अपने आचरण पर कोई उत्तर नहीं देना पड़ा और शायद जिन्होंने स्वतंत्र भारत में तरक्की पायी.
बात केवल आजाद हिंद फौज की नहीं. क्या भारतीय सेना ने कभी उन सिपाहियों की जांच की जिन्होंने जलियावाला बाग में डायर के आदेश को मान कर अपने देश की औरतों, बच्चों पर गोली चलायी थी ? शायद हम लोग बहुत प्रक्टिकल हैं, सोचते हें जिस बात से कोई फायदा नहीं होना हो उसके बारे में क्या सोंचे, जो होना था तो वो तो हो ही गया है, चलो अब आगे की सोचें ? या फिर गलती सिर्फ गलत आदेश देने वाले अंग्रेजों की थी, गलत आदेश मानने वालों की नहीं ? क्या कहते हैं आप ?
फिल्म से यह भी पता चला कि काबुल से जरमनी जाने के लिए जब कोई रास्ता नहीं बन रहा था और नेताजी करीब एक साल तक वहां कोई रास्ता ढ़ूंढ़ रहे थे, तब इटली ने उन्हें एक झूठा इतालवी पासपोर्ट दिया था, काऊंट ओरलांदो मात्जेता के नाम से. जरमनी में भी, नेता जी इसी नाम से इतालवी नागरिक बन कर रहते थे. चाहे यह मुसोलीनी की फासिस्ट सरकार ने अपने ही फायदे के लिए किया हो पर यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई कि जिस देश में रह रहा हूँ उसने कभी नेता जी की सहायता की थी.
आज की तस्वीरें फिर से पिछले जून में हुए बोलोनिया के "पेर तोत" जलूस से हैं.
एक व्यक्ति का राजनितिक नेता से लड़ाई का जनरल बन जाना आम बात नहीं है. लड़ाई के समय में नेताओं को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना होता है, पर बिना जनरलों और कर्नलों के नेता यह लड़ाई अपने आप नहीं संचालित कर सकते. चर्चिल, हिटलर इत्यादि रणनीति जानने वाले जनरलों के सहारे से लड़ाईयां लड़ते थे, स्वयं रणनीति नहीं बनाते थे, पर सुभाष बाबू राजनीति के साथ साथ खुद ही रणक्षेत्र में रणनीति भी बना रहे थे. फिर भी उनके सिपाही साथी फिल्म में उन्हें कमांडर साहब या जनरल नहीं बुलाते, नेता जी ही बुलाते हैं, क्यों ? क्योंकि शायद वे उन्हें लड़ाई का कमाडंर नहीं राजनीतिज्ञ रुप में ही देखते थे ?
फिल्म में उनका काबुल निवास और बरलिन निवास लम्बे तौर से दिखाया गया है. और बरलिन में उनका एमिली शैंकर से सम्बंध और बच्चे (अनीता बोस) का होना भी लम्बे तौर से दिखाया गया है जो मुझे अच्छा लगा क्योंकि इससे उनकी साधारण मानवता स्पष्ट होती है, कि उनमें मन में देश प्रेम के साथ साथ सामान्य मानव भावनांए भी थीं.
जब आज़ाद हिंद फौज द्वारा भारत के उत्तरी भाग से आक्रमण होने की तैयारी हो रही होती है तो वह कहते हैं कि उन्हें ७०,००० सिपाहियों की फौज चाहिये और उनका विचार था कि जब उनके सैनिक भारत में घुसेंगे तो अंग्रेज सैना के भारतीय सिपाही बगावत कर के उनके साथ हो जायेंगे. पर जब उनकी सैना ने आक्रमण प्राम्भ किया तो वे केवल ८,००० ही थे पर भारतीय सिपाहियों ने बगावत नहीं की और न ही अंग्रेजी फौज छोड़ कर वे आजाद हिंद फौज के साथी बने. आदेश मानने वाले अंग्रेजों के वफादार भारतीय सिपाही अपने देश की आजादी चाहने वाले अपने भाईयों से कैसे लड़ते रहे, इस बारे में मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर नहीं मिला.
जापान पर एटम बम्ब गिरने के साथ ही नेता जी का भारत को लड़ाई से स्वतंत्र कराने का सपना अधूरा ही रह गया इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस लड़ाई में अपने साथी देश वो चुने थे (इटली, जरमनी और जापान) जिन्हें द्वितीय महायुद्ध में हार मिली थी. लेकिन उनका सपना इसलिए भी अधूरा रह गया क्योंकि भारतीय सिपाहियों ने स्वतंत्रा से पहले अपनी रोजीरोटी का सोचा था. क्या कारण थे इसके ? भारत की स्वतंत्रा के बाद, जहाँ तक मुझे मालूम है वही अंग्रेजों के साथ काम करने वाली सैना, स्वतंत्र भारत की सैना बन गयी. कितने कैपटेन, सारजैंट होंगे जिन्होंने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर गोली चलायी होगी, जिन्हें आजादी के बाद अपने आचरण पर कोई उत्तर नहीं देना पड़ा और शायद जिन्होंने स्वतंत्र भारत में तरक्की पायी.
बात केवल आजाद हिंद फौज की नहीं. क्या भारतीय सेना ने कभी उन सिपाहियों की जांच की जिन्होंने जलियावाला बाग में डायर के आदेश को मान कर अपने देश की औरतों, बच्चों पर गोली चलायी थी ? शायद हम लोग बहुत प्रक्टिकल हैं, सोचते हें जिस बात से कोई फायदा नहीं होना हो उसके बारे में क्या सोंचे, जो होना था तो वो तो हो ही गया है, चलो अब आगे की सोचें ? या फिर गलती सिर्फ गलत आदेश देने वाले अंग्रेजों की थी, गलत आदेश मानने वालों की नहीं ? क्या कहते हैं आप ?
फिल्म से यह भी पता चला कि काबुल से जरमनी जाने के लिए जब कोई रास्ता नहीं बन रहा था और नेताजी करीब एक साल तक वहां कोई रास्ता ढ़ूंढ़ रहे थे, तब इटली ने उन्हें एक झूठा इतालवी पासपोर्ट दिया था, काऊंट ओरलांदो मात्जेता के नाम से. जरमनी में भी, नेता जी इसी नाम से इतालवी नागरिक बन कर रहते थे. चाहे यह मुसोलीनी की फासिस्ट सरकार ने अपने ही फायदे के लिए किया हो पर यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई कि जिस देश में रह रहा हूँ उसने कभी नेता जी की सहायता की थी.
आज की तस्वीरें फिर से पिछले जून में हुए बोलोनिया के "पेर तोत" जलूस से हैं.
गुरुवार, अगस्त 11, 2005
रात के अनौखे यात्री
कुछ वर्ष पहले तक हम लोग बोलोनिया से करीब ४० किलोमीटर दूर, इमोला शहर में रहते थे जो अपने ग्रांड प्री फोरमूला १ की कार रेस के लिए प्रसिद्ध है. तभी, कई बार देर रात को इमोला से बोलोनिया जाने वाली रेलगाड़ी में अनौखे यात्रियों को देखने का मौका मिलता था. वे अनौखे यात्री थे वेश्याएँ, औरतें भी और पुरुष भी.
अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो. हँसी मजाक के बदले में उनके चेहरे पर गम्भीरता आ जाती.
पुरुष वैश्याओं में अगर पुरुष बन कर काम करने वाले युवक होते थे, तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि शायद उन्हें इस तरह तैयार नहीं होना पड़ता. पर स्त्रिरुप धारण करने वाले पुरुष उन लड़कियों से किसी बात में कम नहीं थे. वह रेल में पहले से ही तैयार हो कर आते. शायद उन्हें घर से निकलते समय, अड़ोसी पड़ोसियों के कहने सुनने का कुछ भय नहीं होता ? उनके कपड़े और भी भड़लीले, मेकअप और भी चमकीला और रंगबिरंगा होता. आपस में इतनी जोर जोर से बातें करते और हँसते. देख कर लगता मानों शीशे के बने हों, जोर से कोई चोट लगे तो टूट कर बिखर जायेंगे. लगता वह शोर उनकी अपनी उदासी छुपाने का तरीका था. ऐसा बच्चा बन कर, पुरुष शरीर में स्त्री मन वाला बच्चा बन कर, बड़े होना कितना कठिन होता होगा, लोगों के खासकर अपने साथियों के मज़ाक और व्यंग के बीच, अपने घर वालों की शर्म और ग्लानी के बीच.
अपने आस पास के वातावरण से भिन्न होना कभी आसान नहीं होता. अगर कोई अंत में उनकी तरह इतना भिन्न हो जाता है कि लोग उसे समाज के हाशिये पर जगह देते हैं तो शायद उसके पास भिन्न होने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता ? भारत में हिजँड़ों का भी तो यही हाल होता है.
यह सब बातें मैं मन में ही सोचता. कभी किसी अनौखे यात्री से कुछ बात करने का साहस ही नहीं जुटा पाया.
आज कि तस्वीरें जितेंद्र के भारत यात्रा ब्लोग से प्रेरित हैं, मसूरी की १९८७ में की एक यात्रा से.
अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो. हँसी मजाक के बदले में उनके चेहरे पर गम्भीरता आ जाती.
पुरुष वैश्याओं में अगर पुरुष बन कर काम करने वाले युवक होते थे, तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि शायद उन्हें इस तरह तैयार नहीं होना पड़ता. पर स्त्रिरुप धारण करने वाले पुरुष उन लड़कियों से किसी बात में कम नहीं थे. वह रेल में पहले से ही तैयार हो कर आते. शायद उन्हें घर से निकलते समय, अड़ोसी पड़ोसियों के कहने सुनने का कुछ भय नहीं होता ? उनके कपड़े और भी भड़लीले, मेकअप और भी चमकीला और रंगबिरंगा होता. आपस में इतनी जोर जोर से बातें करते और हँसते. देख कर लगता मानों शीशे के बने हों, जोर से कोई चोट लगे तो टूट कर बिखर जायेंगे. लगता वह शोर उनकी अपनी उदासी छुपाने का तरीका था. ऐसा बच्चा बन कर, पुरुष शरीर में स्त्री मन वाला बच्चा बन कर, बड़े होना कितना कठिन होता होगा, लोगों के खासकर अपने साथियों के मज़ाक और व्यंग के बीच, अपने घर वालों की शर्म और ग्लानी के बीच.
अपने आस पास के वातावरण से भिन्न होना कभी आसान नहीं होता. अगर कोई अंत में उनकी तरह इतना भिन्न हो जाता है कि लोग उसे समाज के हाशिये पर जगह देते हैं तो शायद उसके पास भिन्न होने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता ? भारत में हिजँड़ों का भी तो यही हाल होता है.
यह सब बातें मैं मन में ही सोचता. कभी किसी अनौखे यात्री से कुछ बात करने का साहस ही नहीं जुटा पाया.
आज कि तस्वीरें जितेंद्र के भारत यात्रा ब्लोग से प्रेरित हैं, मसूरी की १९८७ में की एक यात्रा से.
बुधवार, अगस्त 10, 2005
एक और कहानी
पत्नि और बेटा छुट्टियों के लिए एक सप्ताह के लिए बाहर गये हैं. शाम को, काम से लौट कर घर में अकेला होने से, एक फायदा यह हुआ है कि लिखने के लिए समय अधिक मिल रहा है. न कुत्ते को घुमाने ले जाने का काम, न किसी से बात करने की सम्भावना. इसीलिए कल शाम को अपनी दूसरी कहानी पूरी कर डाली.
यह सब हिंदी चिट्ठे के कारण ही हुआ है जिसने मेरे लिए भूलती हुई हि्दी के और सृजन के, द्वार खोल दिये. पहले जुलाई में लिखी "अनलिखे पत्र". इससे पहले अंतिम हि्दी की कहानी लिखी थी सन् १९८३ में, जो धर्मयुग नाम की पत्रिका में "जूलिया" नाम से छपी थी. तब इटली में आये बहुत समय नहीं हुआ था. इन वर्षों में सब कुछ बदल गया. धर्मयुग को बंद हुए भी बरसों हो गये.
"क्षमा" नाम है नयी कहानी का और आज उसी का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत हैः
"...वह आगे बढ़ ही रहीं थीं, जब नयी आयी लेडी डाक्टर उनकी तरफ मुड़ी. वसुंधरा को देख कर एक क्षण में ही उसके चेहरे का रंग उतर गया, और वसुंधरा भी पत्थर की तरह खड़ी रह गयी. इतने वर्षों के बाद मिलने के बाद भी दोनों ने एक दूसरे को तुरंत पहचान लिया था. इस तरह अचानक इतने सालों के बाद ऐसे मिलना होगा मिरियम से, यह तो कभी नहीं सोचा था.
पहले मिरियम ने ही स्वयं पर काबू किया. गंभीर मुख से बिना कुछ कहे, मुड़ कर मेज पर रखे कागज उठा कर उन्हें पढ़ने लगी, मानो उन्हें जानती ही न हो. "प्लीज सिट डाऊन मिसिज वडावन", नर्स फिर बोली तो वह चुप चाप कुर्सी पर बैठ गयीं. मिरियम यहाँ है, इस अस्पताल में! अब क्या होगा ? अगर मधुकर ने उसे देख लिया तो क्या होगा ? उनके मन में तूफान सा उठ आया था. सिर घूम गया. लगा चक्कर खा कर गिर जायेंगी.
"डाक्टर थोमस हमारी एन्स्थटिस्ट हैं, अंतिम निर्णय इनका ही है कि हम आप का आप्रेशन कर सकते हैं या नहीं !" एक डाक्टर ने हँस कर मिरियम की तरफ इशारा कर के कहा, पर वसुंधरा कुछ सुन समझ नहीं पा रही थी. बार बार एक ही विचार आता मन में, मिरियम यहाँ है, अगर मधु ने देख लिया तो अनर्थ हो जायेगा.
मिरियम ने उनकी तरफ एक बार भी नहीं देखा. कुछ देर बाकी डाक्टरों से बात कर बोली कि दाखिल होने के बाद वार्ड में जा कर देखेगी क्योंकि अभी उसे एक जरुरी काम था, और फिर चली गयी. जाते जाते भी उनकी तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा..."
अगर कहानी को पूरा पढ़ना चाहें तो इसे कल्पना पर मेरे पृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अफ्रीका के केप टाऊन के टेबल माऊंटेन यानि मेज़ पहाड़ की. दूर से देखो तो सचमुच मेज़ जैसा ही लगता है हालाँकि अधिकतर इसकी सतह बादलों से ढ़की रहती है और स्पष्ट दिखायी नहीं देती.
यह सब हिंदी चिट्ठे के कारण ही हुआ है जिसने मेरे लिए भूलती हुई हि्दी के और सृजन के, द्वार खोल दिये. पहले जुलाई में लिखी "अनलिखे पत्र". इससे पहले अंतिम हि्दी की कहानी लिखी थी सन् १९८३ में, जो धर्मयुग नाम की पत्रिका में "जूलिया" नाम से छपी थी. तब इटली में आये बहुत समय नहीं हुआ था. इन वर्षों में सब कुछ बदल गया. धर्मयुग को बंद हुए भी बरसों हो गये.
"क्षमा" नाम है नयी कहानी का और आज उसी का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत हैः
"...वह आगे बढ़ ही रहीं थीं, जब नयी आयी लेडी डाक्टर उनकी तरफ मुड़ी. वसुंधरा को देख कर एक क्षण में ही उसके चेहरे का रंग उतर गया, और वसुंधरा भी पत्थर की तरह खड़ी रह गयी. इतने वर्षों के बाद मिलने के बाद भी दोनों ने एक दूसरे को तुरंत पहचान लिया था. इस तरह अचानक इतने सालों के बाद ऐसे मिलना होगा मिरियम से, यह तो कभी नहीं सोचा था.
पहले मिरियम ने ही स्वयं पर काबू किया. गंभीर मुख से बिना कुछ कहे, मुड़ कर मेज पर रखे कागज उठा कर उन्हें पढ़ने लगी, मानो उन्हें जानती ही न हो. "प्लीज सिट डाऊन मिसिज वडावन", नर्स फिर बोली तो वह चुप चाप कुर्सी पर बैठ गयीं. मिरियम यहाँ है, इस अस्पताल में! अब क्या होगा ? अगर मधुकर ने उसे देख लिया तो क्या होगा ? उनके मन में तूफान सा उठ आया था. सिर घूम गया. लगा चक्कर खा कर गिर जायेंगी.
"डाक्टर थोमस हमारी एन्स्थटिस्ट हैं, अंतिम निर्णय इनका ही है कि हम आप का आप्रेशन कर सकते हैं या नहीं !" एक डाक्टर ने हँस कर मिरियम की तरफ इशारा कर के कहा, पर वसुंधरा कुछ सुन समझ नहीं पा रही थी. बार बार एक ही विचार आता मन में, मिरियम यहाँ है, अगर मधु ने देख लिया तो अनर्थ हो जायेगा.
मिरियम ने उनकी तरफ एक बार भी नहीं देखा. कुछ देर बाकी डाक्टरों से बात कर बोली कि दाखिल होने के बाद वार्ड में जा कर देखेगी क्योंकि अभी उसे एक जरुरी काम था, और फिर चली गयी. जाते जाते भी उनकी तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा..."
अगर कहानी को पूरा पढ़ना चाहें तो इसे कल्पना पर मेरे पृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अफ्रीका के केप टाऊन के टेबल माऊंटेन यानि मेज़ पहाड़ की. दूर से देखो तो सचमुच मेज़ जैसा ही लगता है हालाँकि अधिकतर इसकी सतह बादलों से ढ़की रहती है और स्पष्ट दिखायी नहीं देती.
मंगलवार, अगस्त 09, 2005
उकियो-ए का तैरता संसार
उकियो-ए यानि वैश्याओं, अभिनेताओं, कलाकारों, नटों, आदि का संसार जिसे सोलहवीं शताब्दी के एडो (आज का टोकियो) से शहर निकाला मिला था और वह लोग शहर के किनारे नदी पर नावों में रहने को मजबूर थे. कहते थे कि वे लोग शहर में गंदगी फैला रहे थे और जिनकी बजह से शहर में कानून और व्यवस्था बनाये रखने में कठिनाई हो रही थी. जापानी बादशाह का तो सिर्फ नाम था जबकि असली ताकत थी शोगुनों की जो अपने समुराईयों की तलवारों की शक्ती से राज करते थे. जापान के मध्यम युग के इस इतिहास के लिए मेरे मन में बहुत आकर्षण है. उकियो-ए में ही विकास हुआ गैइशा जीवन और काबुकी नाटक कला का. उकियो-ए कला इसी जीवन का चित्रण करती है. अगर आप उकियो-ए कला और जीवन के बारे में जानना चाहते हैं तो अमराकी संसद के पुस्तकालय के अंतरजाल पृष्ठ पर लगी एक प्रदर्शनी अवश्य देखिये, यहाँ क्लिक करके.
बचपन में बुआ के यहाँ एक विवाह में मेरी मुलाकात हुई थी एक जापानी छात्र श्री तोशियो तनाका से, जो भारत में हिंदी सीखने आये थे. बुआ दिल्ली विश्व विद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं. चालिस वर्ष पहले हुई उस मुलाकात की बहुत सी बातें मुझे आज भी याद हैं और शायद वहीं से प्रारम्भ हुआ था मेरा जापान के लिए आकर्षण. तोशियो ने बताया था सूशी के बारे में, चावल और कच्ची मछली का बना. कच्ची मछली ? सोचने से ही, मितली सी आने लगी थी. आज भी जब कभी सूशी खाने का मौका मिलता है, तो वह बात याद आ जाती है.
कुछ वर्षों के बाद पिता के एक जापानी बौद्ध भिक्षुक मित्र से मिलना हुआ. बौद्धगया में रहते थे वो और जब भी दिल्ली में घर पर आते, जापान के बारे में मेरे कौतुहल को जान कर, मुझे जापान के बारे में बताते.
देश विदेश बहुत घूमा पर कभी जापान जाने का मौका नहीं मिला. फ़िर दो वर्ष पहले जापान से एक निमंत्रण मिला भी तो मैंने बहाना बना कर मना कर दिया. मुझे प्रिय है मध्यम युग का जापान, लगा कि गगनचुंबी भवनों के आज के जापान को देख कर कहीं यह सपना न टूट जाये. कुछ बातों के लिए कल्पना में ही रहना अच्छा है.
आज प्रस्तुत है उकियो-ए की कला का एक नमूना.
बचपन में बुआ के यहाँ एक विवाह में मेरी मुलाकात हुई थी एक जापानी छात्र श्री तोशियो तनाका से, जो भारत में हिंदी सीखने आये थे. बुआ दिल्ली विश्व विद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं. चालिस वर्ष पहले हुई उस मुलाकात की बहुत सी बातें मुझे आज भी याद हैं और शायद वहीं से प्रारम्भ हुआ था मेरा जापान के लिए आकर्षण. तोशियो ने बताया था सूशी के बारे में, चावल और कच्ची मछली का बना. कच्ची मछली ? सोचने से ही, मितली सी आने लगी थी. आज भी जब कभी सूशी खाने का मौका मिलता है, तो वह बात याद आ जाती है.
कुछ वर्षों के बाद पिता के एक जापानी बौद्ध भिक्षुक मित्र से मिलना हुआ. बौद्धगया में रहते थे वो और जब भी दिल्ली में घर पर आते, जापान के बारे में मेरे कौतुहल को जान कर, मुझे जापान के बारे में बताते.
देश विदेश बहुत घूमा पर कभी जापान जाने का मौका नहीं मिला. फ़िर दो वर्ष पहले जापान से एक निमंत्रण मिला भी तो मैंने बहाना बना कर मना कर दिया. मुझे प्रिय है मध्यम युग का जापान, लगा कि गगनचुंबी भवनों के आज के जापान को देख कर कहीं यह सपना न टूट जाये. कुछ बातों के लिए कल्पना में ही रहना अच्छा है.
आज प्रस्तुत है उकियो-ए की कला का एक नमूना.
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