यह पत्र मेरे पिता स्व. श्री ओमप्रकाश दीपक के नाम थे, जो कि १९५०-६० की कुछ समाजवादी पत्रिकाओं, जैसे कल्पना, चौखम्बा तथा जन, से जुड़े थे, तथा स्वयं लेखक, पत्रकार, अनुवादक व आलोचक भी थे. पत्रों को लिखने वाले थे राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा शरद जोशी।
पहला पत्र, लेखक राजकमल चौधरी
वर्ष १९६१
राजकलम चौधरी, पोस्ट आफिस पुटिआरी पूर्व, कलकत्ता
प्रिय भाई,
आप का पत्र पा कर प्रसन्नता हुई, जोकि इस बात से जाहिर है कि मैं दूसरे ही दिन उसका उत्तर भेज रहा हूँ। आपने अपने पत्र में पता नहीं लिखा, खैर "जनमुख कार्यालय" से पता लगा लूँगा।
"जनमुख" में प्रकाशित मेरा लेख आपके विचारों से मतभेद रखता है। आप राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं, मैं लेखन कार्य (गैर राजनीतिक) में अधिक व्यस्त रहता हूँ। इसलिए ज़रूर आप ही ज़्यादा सही हैं। लेकिन मेरी रचनाओं या मेरी समीक्षाओं या मेरे साहित्यक लेखों से आपको असहमती है, तो मैं यहाँ हमेशा यही कहूँगा कि मैं ही ज़्यादा सही हूँ, और हमेशा सबसे ज़्यादा सही होने की कोशिश करता रहता हूँ - क्योंकि साहित्य मेरा पेशा है, साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी है।
आपने "मानवी" के बारे में लिखा है। मैंने पुस्तक पढ़ी थी और जहाँ तक याद है, जगदीश भाई की "इकाई" में उसकी समीक्षा भी लिखी थी। मैं अपनी उस समीक्षा तथा आप की बात से सहमत हूँ कि "मानवी" दूसरे दर्जे का उपन्यास है। और "मानवी" की कहानी से ज़्याद, बहुत ज़्यादा बेहतर कहानियाँ आपने १९५५-५६-५७ में "ज्ञानोदय" पत्रिका में लिखी थीं।
आप क्या हमेशा दिल्ली में ही रहते हैं? मैं समझता था कि आपका स्थायी निवास हैदराबाद में है और आप वहीं रह कर "चौखम्बा" संपादित करते हैं।
आप ने "मानवी" लिखी। जबकि मुझे पूरा विश्वास है, "मानवी" के कथा विषय तथा चरित्रों से आप का अधिक परिचय नहीं है। आप का संघर्ष आप को उस जीवन क्षेत्र से दूर ही रखता होगा। "मानवी" के विषय से उर्दू में सदाअत हसन मन्तो का परिचय था, हिन्दी में राजकमल चौधरी को परिचय है ("ये कोठेवालियाँ" में अमृतलाल नागर तक रिपोर्टर बन कर रह गये हैं।) आपको राजनीतिक उपन्यास लिखने चाहिये, नहीं तो चतुरसेन (आचार्य), गुरुदत्त, सीताराम गोयल, जैनेन्द्र ("जयवर्धन" तो आपने पढ़ा ही होगा), लक्षमी नारायण लाल ("रूपजीवा" की समीक्षा आपने ही "कल्पना" में लिखी थी), आदि की गलतियाँ स्थायी ही रह जायेंगी। और हिन्दी को अपने एक अपटन सिन्क्लेयर की बड़ी ज़रूरत है। कृपया इसे आप advice unwanted नहीं मानेगे, brotherly request ही स्वीकार करेंगे।
इधर मेरी एक मामूली सी किताब "नदी बहती थी" आयी है। अगले पत्र के साथ सेवा में भेजूँगा।
इन दिनों एक प्रकाशक के लिए अंग्रेज़ी में पूर्वीय सौन्दर्यशात्र (मेरा शिक्षा का प्रधान विषय यही रहा है) पर एक बड़ी किताब लिख रहा हूँ। वैसे पत्र पत्रिकाओं में तो लिखते रहना ही पड़ता है। कलकत्ते में स्थायी (१९५८ से, और इसी साल से मैंने हिन्दी में लिखना भी शुरु किया है) रहता हूँ। पत्नी है, दो साल की एक बच्ची भी है। कहीं नौकरी नहीं करता हूँ, करने का इरादा अब तक नहीं है।
आप क्या लिख पढ़ रहे हैं, सूचित करेंगे। अनुगत,
कमल, १५.१२.६१
दूसरा पत्र, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क
वर्षः १९६२
उपेन्द्रनाथ अश्क, ५ खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद
प्रिय दीपक,
आशा है तुम सपरिवार स्वस्थ और सानन्द हो।
तुम्हारा एक पत्र आया था, पर उस पर तुमने कोई पता नहीं लिखा, जिस कारण मैं उसका उत्तर नहीं दे सका। पित्ती साहब से तुम्हारा पता मिल गया है तो यह चन्द पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।
पत्र तो तुम्हारा अब कहीं ढूँढ़े से नहीं मिल रहा। याद से ही उत्तर दे रहा हूँ।
पहली बात तो भाई यह है कि पत्र जो "कल्पना" में छपा, छपने के ख्याल से नहीं लिखा गया था। मेरा ख्याल था कि तुम कहीं राजा दुबे के पास रहते हो, मेरी बात वह तुम तक मज़ाक मज़ाक में पहुँचा देगा। छपने के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, वे दूसरी तरह के होते हैं। यदि उसे छापना अभीष्ट था तो उसमें कुछ पंक्तियाँ काट देनी चाहिये थीं। बहरहाल मुझे तुम्हारी आलोचनाएँ अच्छी लगी थीं। नया नाम होने के कारण तुम्हारा एक नोट पढ़ कर मैं दूसरा भी पढ़ गया था और तब जो impression था, मैंने राजा दुबे को लिख दिया था।
मेरी कहानियों के बारे में तुम जो सोचते हो, हो सकता है वह ठीक हो। गत पैंतिस वर्षों से लिखते लिखते मेरी कुछ निश्चित धारणाएँ बन गई हैं और मैं उन्हीं के अनुसार लिखता हूँ। एक आध बार सरसरी नज़र से पढ़ कर जो लोग फतवे दे देते हैं, वे प्रायः गलत सिद्ध हो जाते हैं। इधर "पलंग" की कहानियों को ले कर पत्र पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा है। कभी कोई कहानी की गहराई को पकड़ लेता है, तब खुशी होती है, नहीं पकड़ पाता तो दुख नहीं होता, क्योंकि यह हर किसी के बस की बात नहीं है।
"सड़कों पे ढ़ले साये" की भूमिका मैंने व्यंग विनोद की शैली में ही लिखी थी। कुछ लोगों ने समझ लिया कि सचमुच में इस बात पर परेशान हुआ कि "आचार्य जी" ने मुझे "नया कवि" नहीं सकझा और मैं परेशान हुआ। हालाँकि यह लिखने का और गहरी बातों को मनोरंजक ढ़ंग से कहने का एक स्टाइल है। मैंने जो बातें अपनी भूमिका में उठायीं - इतनी आलोचनाओं में किसी लेखक ने भी उन पर बहस नहीं की। सवाल सही या गलत का नहीं है, नयी कविता के क्राइसिस का है। क्या यह सही नहीं है कि नयी कविता महज़ form पर ज़ोर दे रही है, या पश्चिम की स्थितियों और मनोभावों को अपने ऊपर नये कवि टूटन की निराशा की कविताएँ कर रहे हैं, या नया कवि शब्दों को अप्रयास समझ रहा हो, वगैरह वगैरह ... चूँकि ऐसी सभी बातें मैंने कहानी के ढ़ंग से कहीं, लोगों ने समझ लिया कि सचमुच कहीं मेरा अपमान हुआ है और मैं अपने आपको नया कवि मनवाने के लिए हाथ पैर पटक रहा हूँ।
कुछ ऐसी ही बात कहानियों के सम्बन्ध में भी है। कहानियों के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ, उसे जानने के लिए दो एक बार कहानियों को ध्यान से तो पढ़ना पड़ेगा ही। इस पर भी हर लेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन्हें पार करना कई बार कठिन होता है।
पता नहीं तुमने मेरा नया कथा संग्रह "पलंग" या कविता संग्रह "सड़कों पे ढले साये" पढ़ा कि नहीं। न पढ़ा हो तो लिखना.
इधर नीलाभ से मेरी ५९वीं वर्षगाँठ पर एक बड़ी मनोरंजक पुस्तक निकली है। उसकी एक प्रति तुम्हें भेजने के लिए मैंने दफ्तर में फोन किया है, मिले तो पहुँच और राय कौशल्या को भेजना.
स. उपेन्द्र
दो पत्र, लेखक शरद जोशी
वर्षः १९६३
नवलेखन, हनुमानगंज, भोपाल
प्रिय भाई,
बहुत दिनों से नवलेखन को रचना भेजने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। पर ऐसा वोट आफ नो विश्वास पास न करें। नवलेखन का सातवाँ अंक निकल रहा है, आठवां प्रेस में जा रहा है। अब से हम कहानियों की संख्या बढ़ाएगे और थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी देंगे। बहुत अधिक तो नहीं होगा, पर कुछ अवश्य की शुरुआत हो। नवलेखन के लिए यह साहसी कदम है। दाद दीजिये और शीघ्र वैसी ही एक घाटी कहानी भेजें कि आइना देखूँ तो जिस्म अपना ही ...
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कुछ शीघ्र भेजेंगे। नवलेखन का विषेशाँक भी निकाला जाना है, उसके लिए कुछ सुझाव भेजो। आशा है प्रसन्न हो।
कथा संकलन उत्तर की प्रतीक्षा में,
तुम्हारा
शरद जोशी
वर्षः १९६३
भोपाल से
डीअर दीपक,
लेख दुरस्त कर दिया है, जैसा तुम चाहते थे। पत्र नहीं लिख पाया क्योंकि बुरा फँसा हूँ. इस कार्ड को भी पत्र न मानना और गालियाँ देना ही। दिवाली बाद लिखूँगा। संपादक की खसलत नहीं यह दोस्त की खसलत है कि जवाब नहीं देता। संपादक तो साले तुरंत उत्तर देते हैं "आपकी रचना प्राप्त हुई ... यों ... यों ... कृपा बनाए रखे वगैरा" + मैं अभी कहाँ हुआ संपादक। महेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम कुल तीन गाली नामें अब तक प्राप्त हो चुके हैं, दो इस बार छाप रहा है। "जन" कब निकल रहा है? ओमप्रकाश निर्मल यहाँ आये थे, चर्चा कर रहे थे। प्रसन्न है न।
तु. शरद जोशी
एक आमन्त्रण कार्ड
वर्षः १९६५, दिल्ली
"कृतिकार और उसका संसार" विषय पर रविवार १९ दिसम्बर १९६५ को प्रातः साढ़े नौ बजे श्री शामलाल की अध्यक्षता में दिल्ली के सृजनात्मक कलाकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी है।
आप सादर आमन्त्रित हैं।
स्थानः विट्ठल भाई पटेल भवन, रफी मार्ग, नयी दिल्ली
भवदीयः मकबूल फ़िदा हुसेन, राम कुमार, मोहन राकेश, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, जितेन्द्र सिंह, अम्बा दास, जे. स्वामीनाथन, श्रीकांत वर्मा
कार्यक्रम
उद्घाटन भाषणः आक्टेवियो पाँज
विषय प्रस्तावनाः अज्ञेय
प्रमुख वक्ताः देवीशंकर अवस्थी, जे. स्वामीनाथन, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, मोहन राकेश, ओमप्रकाश दीपक, रभुवीर सहाय, कृष्ण खन्ना, इब्राहीम अलकाज़ी, सुरेश अवस्थी तथा श्रीकांत वर्मा
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पत्रों का भी अपना महत्व रहता था. कई बातें जो चैट पे नहीं हो सकती वो पत्र में की जा सकती थी. ये हमारी पीढी का दुर्भाग्य ही है कि हमे न अब पत्र मिलते हैं और न हम ही किसी को पत्र लिखते हैं. मुझे भी एक मेल लिखे हुए ज़माना हो गया. खैर, पत्रों को पढ़कर अच्छा लगा. बस दुःख इस बात का है कि आने वाली पीढी के पास ऐसे दस्तावेज न के बराबर होंगे.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विकास जी. मेरे विचार में हम जिस वातावरण में बड़े होते हैं, हमारी दृष्टि में वह जीवन और उसकी बातें महत्वपूर्ण होती हैं और उनका न होना हमें क्षति लगता है.
हटाएंआजकल के लोगों के दस्तावेज़ों के बारे में मुझे लगता है कि यह लोग सोशल मीडिया पर अपने बारे में बहुत कुछ छोड़ जायेंगे, जोकि इन पत्रों से भिन्न होगा पर उनसे यह समझ सकेंगे कि वह कैसे व्यक्ति थे और क्या सोचते हैं. इन पत्रों को महत्व इसलिए है कि इनमें से कुछ लोग, जैसे राजकमल चौधरी जिनका देहांत १९६६ में हुआ, उनके बारे में जानकारी बहुत कम है।
इसकी स्कैन्ड इमेज मुझे भेजें तो मैं इन्हें रचनाकार में प्रकाशित कर दूंगा.
जवाब देंहटाएंअवश्य भेज दूँगा रवि। तुम्हें व रेखा जी को होली की शुभकामनाएँ :)
हटाएंधन्यवाद. मूल पत्र यहाँ प्रकाशित हैं - http://www.rachanakar.org/2017/03/blog-post_49.html साहित्य सृजकों के दस्तावेज़ी प्रतीक, घरोहर हैं ये.
हटाएंधन्यवाद रवि :)
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (14-03-2017) को
जवाब देंहटाएं"मचा है चारों ओर धमाल" (चर्चा अंक-2605)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चामंच पर जगह देने के लिए धन्यवाद रूपचन्द्र जी :)
हटाएंप्रिय ब्लॉगर,
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लॉगर्स को अपना समर्थन देने के लिए गाँव कनेक्शन एक छोटा सा प्रयास करने जा रहा है। उम्मीद है आप इससे जुड़ना चाहेंगे।
हमारा मानना है कि दुःख, अवसाद और आपसी द्वेष फैलाती ख़बरों के इस युग में किताबों और लेखकों का काम नासमझों को समझ का मरहम लगाने का है और इसके लिए मंच कम नहीं, ज़्यादा होने चाहिए।
हम रोज़ अपने वेब्सायट में (हर महीने जिस पर अट्ठाईस लाख पेज व्यूज़ आ रहे हैं) एक कॉलम और गाँव कनेक्शन दैनिक अख़बार में रोज़ एक पूरा पन्ना ब्लॉग और सोशल मीडिया को समर्पित करेंगे। इसमें हम आपके ब्लॉग, जिसमें आप किसी सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दे या गांव से जुड़े मुद्दों या कोई नई जानकारी को प्रकाशित करना चाहेंगे। इस तरह हम आप लेखकों का लिखा रोज़ लाखों नए पाठकों तक पहुँचा पाएँगे।
हम आपके लेख के साथ ब्लॉग का लिंक जोड़ेंगे इससे आपके ब्लॉग के पाठकों में भी इजाफा हो सकेगा।
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अनुशा मिश्रा 8393-000032
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सादर
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