मंगलवार, मई 31, 2022
धाय-माँओं की यात्राएँ
बुधवार, मई 25, 2022
अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?
नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात
अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे
नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है।
विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।
भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे
राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।
इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।
भारत में बच्चियों का गर्भपात
हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।
ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर
राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?
अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।
राज्य स्तर के आंकणे
अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।
उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य
दक्षिण भारत के राज्य
गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।उत्तरपूर्वी भारत के राज्य
उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग
अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।अंत में
अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।
राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।
बुधवार, मई 18, 2022
स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह
विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को विस्स की यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष (Innovation), पुनर्क्षमताप्राप्ति (Rehabilitation) तथा अतिलघु फ़िल्में। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।
स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में
स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (Equal Access) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।
एक अन्य फ़िल्म (Malakit) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।
पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (A simple test for Cervical cancer) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।
मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।
मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।
पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा
पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।
जैसे कि एक फ़िल्म (Pacing the Pool) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।
इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (A Model One Stop) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (Long Haul) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।
इंग्लैंड की एक फ़िल्म (Move Dance Feel) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।
अतिलघु फ़िल्में
यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (Creating Connections) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।
अंत में
अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।
बुधवार, अप्रैल 27, 2022
बिमल मित्र - दायरे से बाहर
वह बँगला में लिखते थे, लेकिन हिंदी के साहित्य पढ़ने वालों में भी बहुत लोकप्रिय थे, इसलिए उनके सभी उपन्यास हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किये जाते थे। बिमल मित्र का जन्म 18 मार्च 1912 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की शिक्षा पायी और लगभग साठ किताबें लिखीं। उनका देहांत 2 दिसम्बर 1991 को हुआ।
"पुरुष कहता है, कर्म जो पदार्थ है, वह स्थूल है, आत्मा के लिए बँधन है। लेकिन आदमी में जो नारी है, वह कहती है काम चाहिये, और काम चाहिये। इसलिए कि काम में ही आत्मा की मुक्ति है. वैराग्य भी मुक्ति नहीं है, अंधकार भी मुक्ति नहीं है, आलस्य भी मुक्ति नहीं है। ये सब भयंकर बंधन हैं। इन बंधनों को काटने का एक ही हथियार है, वह है कर्म। कर्म ही आत्मा को मुक्ति देता है और यह संसार ही कर्म का स्थल है. संसार को छोड़ने से तुम्हारा कैसे चल सकता है बिटिया! यदि मुक्ति चाहती हो तो तुम्हें इस संसार में ही रहना होगा।"
बुधवार, अगस्त 23, 2017
उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?
हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.
गाँव कनक्शन का सर्वे
इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.
सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं. 14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.
67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.
81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।
उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे
गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.
इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.
सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.
सर्वे में भाग लेने वाले
कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.
उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.
उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.
छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.
छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति
उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.
उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.
इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.
पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान
नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.
छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.
सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."
छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.
बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.
नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया
19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.
अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.
केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.
विवाह और जीवन साथी का चुनाव
छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.
बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.
जाति और भेदभाव के अनुभव
केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.
33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.
भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."
साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."
उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?
3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.
घरेलू हिँसा
छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?
10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.
उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.
केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.
इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?
4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.
तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.
5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.
परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव
12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.
32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.
उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?
3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.
फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?
11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास को समझाने की कोशिश करेंगी.
सरकारी व प्राईवेट अस्पताल
छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.
प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.
उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.
उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.
यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.
सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श
जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.
भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.
ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.
तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.
यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.
हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.
इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.
अंत में
इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.
मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.
आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?
***
रविवार, मार्च 12, 2017
लेखकों के कुछ पुराने पत्र
यह पत्र मेरे पिता स्व. श्री ओमप्रकाश दीपक के नाम थे, जो कि १९५०-६० की कुछ समाजवादी पत्रिकाओं, जैसे कल्पना, चौखम्बा तथा जन, से जुड़े थे, तथा स्वयं लेखक, पत्रकार, अनुवादक व आलोचक भी थे. पत्रों को लिखने वाले थे राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा शरद जोशी।
पहला पत्र, लेखक राजकमल चौधरी
वर्ष १९६१
राजकलम चौधरी, पोस्ट आफिस पुटिआरी पूर्व, कलकत्ता
प्रिय भाई,
आप का पत्र पा कर प्रसन्नता हुई, जोकि इस बात से जाहिर है कि मैं दूसरे ही दिन उसका उत्तर भेज रहा हूँ। आपने अपने पत्र में पता नहीं लिखा, खैर "जनमुख कार्यालय" से पता लगा लूँगा।
"जनमुख" में प्रकाशित मेरा लेख आपके विचारों से मतभेद रखता है। आप राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं, मैं लेखन कार्य (गैर राजनीतिक) में अधिक व्यस्त रहता हूँ। इसलिए ज़रूर आप ही ज़्यादा सही हैं। लेकिन मेरी रचनाओं या मेरी समीक्षाओं या मेरे साहित्यक लेखों से आपको असहमती है, तो मैं यहाँ हमेशा यही कहूँगा कि मैं ही ज़्यादा सही हूँ, और हमेशा सबसे ज़्यादा सही होने की कोशिश करता रहता हूँ - क्योंकि साहित्य मेरा पेशा है, साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी है।
आपने "मानवी" के बारे में लिखा है। मैंने पुस्तक पढ़ी थी और जहाँ तक याद है, जगदीश भाई की "इकाई" में उसकी समीक्षा भी लिखी थी। मैं अपनी उस समीक्षा तथा आप की बात से सहमत हूँ कि "मानवी" दूसरे दर्जे का उपन्यास है। और "मानवी" की कहानी से ज़्याद, बहुत ज़्यादा बेहतर कहानियाँ आपने १९५५-५६-५७ में "ज्ञानोदय" पत्रिका में लिखी थीं।
आप क्या हमेशा दिल्ली में ही रहते हैं? मैं समझता था कि आपका स्थायी निवास हैदराबाद में है और आप वहीं रह कर "चौखम्बा" संपादित करते हैं।
आप ने "मानवी" लिखी। जबकि मुझे पूरा विश्वास है, "मानवी" के कथा विषय तथा चरित्रों से आप का अधिक परिचय नहीं है। आप का संघर्ष आप को उस जीवन क्षेत्र से दूर ही रखता होगा। "मानवी" के विषय से उर्दू में सदाअत हसन मन्तो का परिचय था, हिन्दी में राजकमल चौधरी को परिचय है ("ये कोठेवालियाँ" में अमृतलाल नागर तक रिपोर्टर बन कर रह गये हैं।) आपको राजनीतिक उपन्यास लिखने चाहिये, नहीं तो चतुरसेन (आचार्य), गुरुदत्त, सीताराम गोयल, जैनेन्द्र ("जयवर्धन" तो आपने पढ़ा ही होगा), लक्षमी नारायण लाल ("रूपजीवा" की समीक्षा आपने ही "कल्पना" में लिखी थी), आदि की गलतियाँ स्थायी ही रह जायेंगी। और हिन्दी को अपने एक अपटन सिन्क्लेयर की बड़ी ज़रूरत है। कृपया इसे आप advice unwanted नहीं मानेगे, brotherly request ही स्वीकार करेंगे।
इधर मेरी एक मामूली सी किताब "नदी बहती थी" आयी है। अगले पत्र के साथ सेवा में भेजूँगा।
इन दिनों एक प्रकाशक के लिए अंग्रेज़ी में पूर्वीय सौन्दर्यशात्र (मेरा शिक्षा का प्रधान विषय यही रहा है) पर एक बड़ी किताब लिख रहा हूँ। वैसे पत्र पत्रिकाओं में तो लिखते रहना ही पड़ता है। कलकत्ते में स्थायी (१९५८ से, और इसी साल से मैंने हिन्दी में लिखना भी शुरु किया है) रहता हूँ। पत्नी है, दो साल की एक बच्ची भी है। कहीं नौकरी नहीं करता हूँ, करने का इरादा अब तक नहीं है।
आप क्या लिख पढ़ रहे हैं, सूचित करेंगे। अनुगत,
कमल, १५.१२.६१
दूसरा पत्र, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क
वर्षः १९६२
उपेन्द्रनाथ अश्क, ५ खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद
प्रिय दीपक,
आशा है तुम सपरिवार स्वस्थ और सानन्द हो।
तुम्हारा एक पत्र आया था, पर उस पर तुमने कोई पता नहीं लिखा, जिस कारण मैं उसका उत्तर नहीं दे सका। पित्ती साहब से तुम्हारा पता मिल गया है तो यह चन्द पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।
पत्र तो तुम्हारा अब कहीं ढूँढ़े से नहीं मिल रहा। याद से ही उत्तर दे रहा हूँ।
पहली बात तो भाई यह है कि पत्र जो "कल्पना" में छपा, छपने के ख्याल से नहीं लिखा गया था। मेरा ख्याल था कि तुम कहीं राजा दुबे के पास रहते हो, मेरी बात वह तुम तक मज़ाक मज़ाक में पहुँचा देगा। छपने के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, वे दूसरी तरह के होते हैं। यदि उसे छापना अभीष्ट था तो उसमें कुछ पंक्तियाँ काट देनी चाहिये थीं। बहरहाल मुझे तुम्हारी आलोचनाएँ अच्छी लगी थीं। नया नाम होने के कारण तुम्हारा एक नोट पढ़ कर मैं दूसरा भी पढ़ गया था और तब जो impression था, मैंने राजा दुबे को लिख दिया था।
मेरी कहानियों के बारे में तुम जो सोचते हो, हो सकता है वह ठीक हो। गत पैंतिस वर्षों से लिखते लिखते मेरी कुछ निश्चित धारणाएँ बन गई हैं और मैं उन्हीं के अनुसार लिखता हूँ। एक आध बार सरसरी नज़र से पढ़ कर जो लोग फतवे दे देते हैं, वे प्रायः गलत सिद्ध हो जाते हैं। इधर "पलंग" की कहानियों को ले कर पत्र पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा है। कभी कोई कहानी की गहराई को पकड़ लेता है, तब खुशी होती है, नहीं पकड़ पाता तो दुख नहीं होता, क्योंकि यह हर किसी के बस की बात नहीं है।
"सड़कों पे ढ़ले साये" की भूमिका मैंने व्यंग विनोद की शैली में ही लिखी थी। कुछ लोगों ने समझ लिया कि सचमुच में इस बात पर परेशान हुआ कि "आचार्य जी" ने मुझे "नया कवि" नहीं सकझा और मैं परेशान हुआ। हालाँकि यह लिखने का और गहरी बातों को मनोरंजक ढ़ंग से कहने का एक स्टाइल है। मैंने जो बातें अपनी भूमिका में उठायीं - इतनी आलोचनाओं में किसी लेखक ने भी उन पर बहस नहीं की। सवाल सही या गलत का नहीं है, नयी कविता के क्राइसिस का है। क्या यह सही नहीं है कि नयी कविता महज़ form पर ज़ोर दे रही है, या पश्चिम की स्थितियों और मनोभावों को अपने ऊपर नये कवि टूटन की निराशा की कविताएँ कर रहे हैं, या नया कवि शब्दों को अप्रयास समझ रहा हो, वगैरह वगैरह ... चूँकि ऐसी सभी बातें मैंने कहानी के ढ़ंग से कहीं, लोगों ने समझ लिया कि सचमुच कहीं मेरा अपमान हुआ है और मैं अपने आपको नया कवि मनवाने के लिए हाथ पैर पटक रहा हूँ।
कुछ ऐसी ही बात कहानियों के सम्बन्ध में भी है। कहानियों के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ, उसे जानने के लिए दो एक बार कहानियों को ध्यान से तो पढ़ना पड़ेगा ही। इस पर भी हर लेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन्हें पार करना कई बार कठिन होता है।
पता नहीं तुमने मेरा नया कथा संग्रह "पलंग" या कविता संग्रह "सड़कों पे ढले साये" पढ़ा कि नहीं। न पढ़ा हो तो लिखना.
इधर नीलाभ से मेरी ५९वीं वर्षगाँठ पर एक बड़ी मनोरंजक पुस्तक निकली है। उसकी एक प्रति तुम्हें भेजने के लिए मैंने दफ्तर में फोन किया है, मिले तो पहुँच और राय कौशल्या को भेजना.
स. उपेन्द्र
दो पत्र, लेखक शरद जोशी
वर्षः १९६३
नवलेखन, हनुमानगंज, भोपाल
प्रिय भाई,
बहुत दिनों से नवलेखन को रचना भेजने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। पर ऐसा वोट आफ नो विश्वास पास न करें। नवलेखन का सातवाँ अंक निकल रहा है, आठवां प्रेस में जा रहा है। अब से हम कहानियों की संख्या बढ़ाएगे और थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी देंगे। बहुत अधिक तो नहीं होगा, पर कुछ अवश्य की शुरुआत हो। नवलेखन के लिए यह साहसी कदम है। दाद दीजिये और शीघ्र वैसी ही एक घाटी कहानी भेजें कि आइना देखूँ तो जिस्म अपना ही ...
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कुछ शीघ्र भेजेंगे। नवलेखन का विषेशाँक भी निकाला जाना है, उसके लिए कुछ सुझाव भेजो। आशा है प्रसन्न हो।
कथा संकलन उत्तर की प्रतीक्षा में,
तुम्हारा
शरद जोशी
वर्षः १९६३
भोपाल से
डीअर दीपक,
लेख दुरस्त कर दिया है, जैसा तुम चाहते थे। पत्र नहीं लिख पाया क्योंकि बुरा फँसा हूँ. इस कार्ड को भी पत्र न मानना और गालियाँ देना ही। दिवाली बाद लिखूँगा। संपादक की खसलत नहीं यह दोस्त की खसलत है कि जवाब नहीं देता। संपादक तो साले तुरंत उत्तर देते हैं "आपकी रचना प्राप्त हुई ... यों ... यों ... कृपा बनाए रखे वगैरा" + मैं अभी कहाँ हुआ संपादक। महेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम कुल तीन गाली नामें अब तक प्राप्त हो चुके हैं, दो इस बार छाप रहा है। "जन" कब निकल रहा है? ओमप्रकाश निर्मल यहाँ आये थे, चर्चा कर रहे थे। प्रसन्न है न।
तु. शरद जोशी
एक आमन्त्रण कार्ड
वर्षः १९६५, दिल्ली
"कृतिकार और उसका संसार" विषय पर रविवार १९ दिसम्बर १९६५ को प्रातः साढ़े नौ बजे श्री शामलाल की अध्यक्षता में दिल्ली के सृजनात्मक कलाकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी है।
आप सादर आमन्त्रित हैं।
स्थानः विट्ठल भाई पटेल भवन, रफी मार्ग, नयी दिल्ली
भवदीयः मकबूल फ़िदा हुसेन, राम कुमार, मोहन राकेश, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, जितेन्द्र सिंह, अम्बा दास, जे. स्वामीनाथन, श्रीकांत वर्मा
कार्यक्रम
उद्घाटन भाषणः आक्टेवियो पाँज
विषय प्रस्तावनाः अज्ञेय
प्रमुख वक्ताः देवीशंकर अवस्थी, जे. स्वामीनाथन, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, मोहन राकेश, ओमप्रकाश दीपक, रभुवीर सहाय, कृष्ण खन्ना, इब्राहीम अलकाज़ी, सुरेश अवस्थी तथा श्रीकांत वर्मा
***
मंगलवार, फ़रवरी 21, 2017
झाँकियों का अनूठा गाँव
कुछ वर्ष पहले संत अंतोनियो के निवासियों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मोम की मूर्तियाँ बनाने की सोची. नीचे की तस्वीर में आप इन मूर्तियों का एक नमूना देख सकते हैं जिससे आप उनकी जीवंत कला का अन्दाज़ लगा सकते हैं.
संत अंतोनियों का गाँव स्कियो (Schio) शहर की नगरपालिका का हिस्सा है. इसी स्कियो शहर में हमारा घर है जहाँ मैं रहता हूँ.
पाज़ूबियो (Pasubio) की पर्वत की छाया में बसे छोटे से शहर स्कियो में उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण हुआ. यहाँ का सबसे बड़ा उद्योग था ऊन बनाने की फैक्टरियाँ. आसपास के पहाड़ों पर भेड़े तथा पहाड़ी बकरियाँ पालीं जाती जिनका फर कट कर स्कियो की फैक्टरियों में पहुँचता जहां उसकी रंगबिरंगी ऊन बनती. ऊनी कपड़े बुनने की भी फैक्टरियाँ थीं. इस सब की वजह से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध था.
उस समय इटली की राष्ट्रसीमा स्कियो में पाज़ूबियो पर्वत पर थी, पहाड़ के उत्तर की ओर आस्ट्रिया था, दक्षिण में इटली. 1914 में यह क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध की लपेट में आ गया, जब इटली तथा आस्ट्रिया (Austria) के बीच में भी लड़ाई छिड़ी. अमरीकी फौज की छावनी स्कियो में थी. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक अमरीकी सिपाही अरनेस्ट हेमिगवे, स्कियो की एक ऊन की फैक्टरी में बने अस्पताल में एम्बूलैंस चालक थे, और युद्ध के बाद में प्रसिद्ध लेखक बने.
युद्ध का शहर पर तथा आसपास के गाँवों पर बहुत असर पड़ा लेकिन फ़िर धीरे धीरे, ऊन की फैक्टरियों का काम दोबारा से निकल पड़ा. युद्ध में आस्ट्रिया की हार हुई थी, इसलिए पाजूबियो पर्वत के उत्तर का हिस्सा भी इटली में जुड़ गया.
लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में वैश्वीकरण की वजह से नयी समस्याएँ खड़ी हो गयीं थीं. चीन से आने वाली सस्ती ऊन तथा स्वेटरों की वजह से यहाँ बनने वाली स्थानीय ऊन का बाज़ार नहीं रहा और एक एक करके सारी ऊन की फैक्टरियाँ बन्द हो गयीं. नये तकनीकी विकास से जुड़े कुछ उद्योग उभर कर आये पर पहाड़ी गाँवों में भेड़ों बकरियों से जुड़े जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कुछ नया खोजना आवश्यक था.
विभिन्न देशों में छोटे पहाड़ी गाँवों में पर्यटन से जुड़े विकास की कई कहानियाँ हैं. कहीं पर मेले आयोजित किये जाते हैं, कहीं पर नये खेल तो कहीं पर गाँवों को रंगबिरंगा बनाया जाता है. इस सब में आवश्यक है कि कुछ ऐसा किया जाये तो अन्य जगह न हो, जिससे गाँव की अपनी, अनूठी पहचान बने और पर्यटक वहाँ आने के लिए आकर्षित हों. संत अंतोनियो के गाँव ने भी ऐसा ही कुछ करने का सोचा.
संत अंतोनियो का खुली हवा में बना क्रिसमस की मूर्तियों का संग्रहालय
जैसे भारत में कृष्ण जन्माष्टमी पर अक्सर लोग घरों के बाहर झाँकियाँ बनाते हैं, इटली में क्रिसमस के अवसर में घर घर में छोटी छोटी झाँकियाँ बनायी जाती हैं.
संत अंतोनियों के लोगों ने सोचा कि इसी प्रथा को बड़े पैमाने पर तथा उसमें कुछ नया जोड़ कर बनाया जाये. चूँकि गाँव में कुछ मूर्तिकार रहते थे, उन्होंने कहा कि मानव आकार की ऐसी मूर्तियाँ बनायी जायें जो देखने में जीती जागती लगें.
उनका दूसरा निर्णय था कि सदियों से जिस तरह गाँव में परिवार रहते आये थे, वे जीवन शैलियाँ लुप्त होने लगी थीं, तो उनकी याद को जीवित रखा जाये जिससे आजकल के बच्चे यह जान सकें कि उनके दादा परदादा किस तरह रहते थे, किस तरह काम करते थे. यह भी निर्णय लिया गया कि उन मूर्तियों में वहां के रहने वालों की छवि दिखनी चाहिये, यानी उनके चेहरे तथा वस्त्र वहाँ के निवासियों पर आधारित होने चाहिये.
नीचे की छवियों में आप इस संग्रहालय की कुछ मूर्तियों को देख सकते हैं. मानव आकार की इन मूर्तियाँ को देख कर अक्सर धोखा हो जाता है कि यह सचमुच के व्यक्ति तो नहीं. पर असली आश्चर्य तो तब होता है जब अब मूर्ति के पास उस व्यक्ति को देखते हैं जिसकी प्रेरणा ले कर वह बनायी गयी थी, लगता है कि दो जुड़वा लोग कहीं से निकल आये हैं.
हर वर्ष यह संग्रहालय करीब 20 दिसम्बर से ले कर जनवरी के अन्त तक सजता है. यहाँ आने का, मूर्तियाँ देखने का, कार पार्किन्ग आदि का, फोटो या वीडियो खींचने का, किसी का कोई शुल्क नहीं है. शायद इसी लिए दूर दूर से बसों में तथा कारों में भर के लोग यहाँ आते हैं. इससे इस क्षेत्र के होटल, रेस्टोरेंट, हस्तकला तथा कला के दुकान वालों के काम तथा आय दोनो बढ़ जाते हैं और गाँव का नाम आसपास सब जगह प्रसिद्ध हो गया है.
यहाँ के रहने वाले इसका एक अन्य फायदा बताते हैं. इस मूर्तियाँ बनाने के कार्य में छोटे बड़े सभी लोग मिल कर काम करते हैं. एक पुरानी कला को जीवित करने का मौका मिला है जिसे वहाँ के नवयुवकों ने सीखा है. आपस में मित्रता तथा जानपहचान के भी नये मौके मिले हैं जिनसे उनका समुदाय सुदृढ़ हुआ है.
वैसे तो यहाँ की मूर्तियों में कई मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे कि घर की बालकनी में कपड़े सुखाने डालने वाली युवती की या फ़िर एक नवयुवती की खिड़की के नीचे खड़े उपर निहारते उसके प्रेम में पागल युवक की मूर्ति.
इन मूर्तियों में मध्यकालीन जीवन की वह छवि बनी है जब घरों में टायलट नहीं होते थे. तब लोग रात को कमरे में पिशाब करने का बर्तन रखते थे और सुबह उठ कर वह मूत्र सड़क पर फ़ैंक देते थे.
तो बताना नहीं भूलियेगा कि संत अन्तोनियो की मोम की मूर्तियों का खुली हवा का यह संग्रहालय आप को कैसा लगा.
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अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
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पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
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पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
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सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
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हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
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हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
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२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
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गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...