शुक्रवार, नवंबर 21, 2025

नशीले पदार्थ और आध्यात्मिक सोच

यह बात 1990 के दशक के प्रारम्भ की है। मैं ब्राज़ील के उत्तर-पश्चिमी भाग में मनाउस शहर में एक मित्र से उसके यानोमामी जनजाति से जुड़े अनुभवों की बात कर रहा था। यानोमामी जनजाति के लोग अमेज़न जंगल में रहते हैं और बाहर के लोगों से बहुत कम मिलते या सम्पर्क बनाते हैं। मेरा मित्र उनके एक गुट के साथ कुछ समय तक रह कर आया था। वह बोला, "एक दिन एक झोपड़ी में उनके शमान (पारम्परिक वैद्य) और अन्य कुछ लोग बैठ कर एक नशीले पौधे की पत्तियों की चिल्लम पी रहे थे। चिल्लम के कश लगा कर, वह शमान आँखें बंद करके समाधी में चला गया। कुछ देर बाद उसने आँखें खोल कर कहा कि मेहमानों के स्वागत की तैैयारी करो, क्योंकि दूर गाँव का एक यानोमामी गुट उनके यहाँ आ रहा है।" कुछ घंटे बाद सचमुच जब दूसरे गाँव के लोग वहाँ पहुँचे तब मेरे मित्र की समझ में आया कि शमान ने नशे से मिली दूर-दृष्टि से उन्हें वहाँ आते हुए देखा था।

इसका अर्थ है कि सचमुच कुछ मादक पौधों की सहायता से हमें शरीर के बंधनों से ऊपर उठ कर विशेष शक्तियाँ मिल सकती हैं, जैसे कि दूर-दृष्टि की शक्ती? कुछ दिन पहले इस विषय पर एक वैज्ञानिक शोध के बारे में पढ़ा। 

मई 2025 की अमरीकी पत्रिका 'द न्यू योर्कर' में माईकल पोल्लान के आलेख 'हाइ प्रीइस्टस' (उच्च पुजारी) में आध्यात्मिक अनुभवों और नशीली खुम्बों (मशरूम) तथा अयाहुआस्का (Ayahuasca) जैसे कुछ अन्य नशीले पदार्थों के सम्बंधों पर शोध की बात है। शोध के लिए, कुछ पुजारियों-पादरियों-इमाम आदि व्यक्तियों को, मध्य तथा दक्षिण अमरीका के पारम्परिक वैद्यों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले कुछ नशीले पौधों दिये गये। वह जानना चाहते थे कि क्या इन मादक पदार्थों से लोगों को आध्यात्मिक अनुभव आसान हो जाता है? उनका निष्कर्ष निकला कि हाँ, ऐसे पदार्थों के सेवन से लोगों के लिए आध्यात्मिक अनुभव आसान हो जाते हैं। विभिन्न धर्मों के व्यक्ति जिन्होंने इस शोध में हिस्सा लिया, ने कहा कि उनके अधिकाँश अनुभव अपने धर्मों की विशिष्ठ सोच वाले ईश्वर के नहीं थे, बल्कि उन्हें निरंकार, निर्गुण परमात्मा का अहसास हुआ। इस शोध में किसी हिंदू पुजारी ने भाग नहीं लिया था।

आलेख को पढ़ कर एक अन्य बात याद आयी कि 1950-60 के दशकों में पश्चिमी देशों के युवाओं में नशीले पदार्थों के सेवन का फैशन चला था। तब भारत में भाँग-चरस-गाँजे के सेवन की परम्परायें थीं इसलिए हिप्पी बन कर बहुत से पश्चिमी युवा भारत आते थे। कुछ सालों के बाद, पहले पश्चिमी देशों और फ़िर भारत ने भी, ऐसे पदार्थों के सेवन को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। लेकिन पिछले एक-दो दशकों में ऐसे कुछ पदार्थ, जैसे कि सिलोसाइब, एलएसडी, आयाहुआस्का, आदि, के विभिन्न बीमारियों जैसे कि मानसिक रोग, कैंसर, पीड़ा आदि की दवाओं के रूप में प्रयोग तथा शोध किये जा रहे हैं।

मादक द्रव्य और आध्यात्म
 

भारतीय आध्यात्मिक सोच के विकास में मादक पेय की भूमिका?

इस बारे में सोचते हुए मेरे मन में एक अन्य प्रश्न उठा - वेदों तथा उपनिषद की आध्यात्मिक सोच दुनिया में सबसे निराली और अलग क्यों है? अन्य धर्मों में भगवान को पिता जैसे रूप में देखा गया है, जो अपने अनुयायियों से नियमित निष्ठा, अर्चना, बलिदान माँगता है और दैनिक जीवन के नियम पालन करने के लिए कहता है। जबकि हिंदू शास्त्रों में एक ओर अन्य धर्मों की तरह से मन्दिर, देवी-देवता, रीति-रिवाज़ और नियम हैं तो साथ ही, दूसरी ओर, वेद-उपानिषदों में भगवान का सर्वव्यापी, निरंकार, निर्गुण समस्त ब्रह्माँड को जोड़ती हुई चेतना वाला रूप भी है।

तब मेरे मन में ऋग्वेद के सोम रस की बात आयी। ऋग्वेद में सोम रस को बहुत महत्व दिया गया है, यह उसके नौंवे मंडल का प्रमुख विषय है, उसमें सोम रस पर 120 सूक्त और करीब ग्यारह सौ ऋचाएँ हैं। इस तरह से ऋग्वेद में सोम रस का स्थान, अग्नि और इन्द्र के बाद तीसरे नम्बर पर आता है।

ऋग्वेद में सोम रस का वर्णन एक विशेष
औषधी पौधे के रूप में किया गया है, जिसे यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाता था और जिसका उपयोग स्वास्थ्य, बल और आयु बढ़ाने के लिए होता था। इसे मूसल से कुचलकर, छानकर और फिर दूध, शहद आदि के साथ मिलाकर बनाया जाता था। इसकी पहचान आज तक स्पष्ट नहीं है, लेकिन कुछ लोग इसे एफैड्रीन के पौधे जैसा मानते हैं। एफैड्रीन दवा है जो मस्तिष्क तथा तंत्रियों की क्रिया शक्ति को उकसाती और बढ़ाती है और एलोपैथी में इसका उपयोग विभिन्न रोगों के लिए किया जाता है।

मैंने सोचा कि शायद इस सोम रस के उपयोग ने ही प्राचीन भारत के ऋषियों को ऐसी अंतर्दृष्टि, ज्ञान और समझ दी जिनसे भारतीय अध्यात्म में ब्रह्म और ब्रह्मण विचारधारों का ऐसा विकास हुआ, जिसका वर्णन उपानिषदों में है।

अंत में

कहते हैं कि सही मानों में मानव सभ्यता का विकास खेती-बाड़ी के साथ हुआ था, क्योंकि जब आदि-मानव खेती करने लगा तो उसे हर रोज भूख मिटाने के उपाय खोजने की चिंता से मुक्ति मिली और कुछ अन्य सोचने-समझने का समय मिला। कुछ दिन पहले मानव विकास से सम्बंधित एक किताब में मैंने पढ़ा था कि खेती का आविष्कार मानव समूहों ने भूख मिटाने के लिए नहीं, बल्कि शराब बनाने के लिए किया था। मादक शराब का लालच था तभी आदि-मानव मेहनत से अन्न बोते थे और महीनों तक उसकी देखभाल करते थे।

क्या वैसे ही सोमरस के मादक पेय ने मानव सभ्यता को वेद-उपनिषदों के निर्गुण, निरंकार परमात्मा से मिलने का रास्ता भी दिया था? आप की क्या राय है?

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शनिवार, अक्टूबर 18, 2025

हड़प्पा की मोहरें और वैदिक संस्कृति

कुछ माह पहले मैंने अमरीका में रहने वाले भरत कुमार (यजन्देवम) के बारे में अपने अंग्रेज़ी ब्लाग में लिखा था, जिनका दावा है कि कृत्रिम बुद्धि की सहायता से उन्होंने हड़प्पा (सिंधु घाटी सभ्यता) की मोहरों की भाषा को समझा है। उनके अनुसार, उन मोहरों चिन्हों में संस्कृत में लिखी वेद-ऋचाओं का संक्षिप्त रूप हैं। उनकी यह खोज अभी तक किसी वैज्ञानिक जर्नल में नहीं छपी है और अन्य भाषाविदों ने उनके शोध से सम्बंधित बहुत से प्रश्न और संदेह उठाये हैं, इसलिए यह खोज सही साबित होगी या नहीं, यह समय ही बतायेगा।

आज मैं हड़प्पा की मोहरों के विषय में एक अन्य शोधकर्ता की बात करना चाहता हूँ, जिनका नाम है सुश्री रेखा राव। रेखा जी की धारणा है कि हड़प्पा की मोहरों पर वेदों की, विषेशकर ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओ और उनसे जुड़े धार्मिक अनुष्ठानों की बाते हैं। अपने व्यक्तिगत शोध के आधार पर वह कहती हैं कि यह मोहरें पुरोहितों के लिए मंत्रों, उनके पाठ तथा अनुष्ठानों को याद करने के लिए बनायी गई थीं। 

रेखा जी ऐसे परिवार से हैं जहाँ वैदिक मंत्र तथा यज्ञ जैसे अनुष्ठान उनके दैनिक जीवन का हिस्सा रहे हैं। वह कहती हैं, "मैं अपने उन अनुभवों के आधार पर शोध के इस निष्कर्ष तक पहुँची हूँ।"

करीब पाँच साल पहले उन्होंने बँगलौर के एक संग्रहालय में अपने शोध की प्रस्तुती की थी जिसे आप इंटरनेट पर देख सकते हैं। उन्होंने इस विषय में कई किताबें भी लिखी हैं। मुझे उनसे बात करने का मौका मिला और मैंने उनको विचारों के बारे में जाना तो मुझे थोड़ी सी हैरानी हुई कि इसके बारे में पहले कहीं सुना क्यों नहीं था? मुझे उनकी बातें बहुत दिलचस्प और नयीं लगीं, शायद इसलिए भी कि मैंने ऐसी बात पहले कभी नहीं सुनी थी। यह आलेख उनके शोध के निष्कर्ष और उनके विचारों की बात करना चाहता हूँ। आप इस आलेख की सभी तस्वीरों पर क्लिक करके उन्हें बड़ा करके देख सकते हैं, अधिकाँश तस्वीरें उनके प्रैज़ेन्टेशन से ली गयी हैं।

सुश्री रेखा राव: संक्षिप्त परिचय

रेखा जी भारतनाट्यम नृत्य की सुविख्यात नृत्यांगना रही हैं। उन्होंने नृत्य के लिए नाट्यरत्न प्राप्त किया, तथा कर्णाटक में कोलार गोल्ड फील्ड, और जकार्ता व मुम्बई में भरतनाट्यम सिखाया भी है। आजकल वह भारतीय प्राचीन प्रतिमाओं में नृत्य-मुद्राओं के चित्रण के विषय पर शोध कर रही हैं।

उन्होंने मैसूर विश्वविद्यलय से भारतीय ज्ञान परम्परा में उच्चतर शिक्षा की डिग्री ली है। उन्होंने कुछ वर्षों तक भारत पुरातत्व सर्वे के उपाध्यक्ष डॉ. एस आर राव की छत्रछाया में शोध किया और सन् 2010 से स्वतंत्र शोधकर्ता की तरह काम कर रही हैं। उन्होंने भारतीय सास्कृतिक परम्पराओं से जुड़े विषयों पर बहुत सी किताबें और आलेख लिखे हैं जो अमेज़न पर उपलब्ध हैं।

रेखा जी ने कहा कि करीब बीस-पच्चीस साल पहले हड़प्पा की एक मोहर में उन्हें पक्षी जैसा एक चिन्ह दिखा, जिसका आकार उन्हें एक विषेश यज्ञ-वेदिका जैसा  लगा - शयन पक्षी आकार की यज्ञ-वेदिका। वह जानती थीं कि अलग-अलग वैदिक धार्मिक अनुष्ठानों में भिन्न आकारों वाली यज्ञ-वेदिकाएँ बनायी जाती हैं। वेदों तथा वेदांगों में विभिन्न आकारों की यज्ञ-वेदिकाओं में यज्ञ करने के वर्णन हैं और तैत्तरीय ब्राह्मण ग्रंथ में शयन पक्षी के आकार की वेदिका बनाने की बात की जाती है। चूँकि उन्होंने इस आकार की एक वेदिका कुछ समय पहले देखी थी, वह इसे मोहर में पहचान गयीं। जिस पहली मोहर से उनके मन में यह बात आयी, वह नीचे की तस्वीर में है।इस बात से  उनमें इन मोहरों का अध्ययन करने की इच्छा जागी। इसके बाद उन्होंने करीब दो सौ मोहरों का अध्ययन किया।  


उनके विचार इस विषय में प्रचलित अन्य सब लोगों के विचारों से भिन्न हैं, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि इस विषय के विशेषज्ञ आप की इन धारणाओं के बारे में क्या कहते हैं तो उन्होंने बहुत सरलता से कहा कि वह कोई प्रोफैसर नहीं हैं, किसी विश्वविद्यालय या संस्था से भी नहीं जुड़ी हैं, शायद इसलिए उनकी बातों को भारतीय विशेषज्ञ गम्भीरता से नहीं लेते।

उनकी सोच उनके अपने परिवार की वैदिक संस्कृति के वातावरण और ज्ञान पर आधरित है। वह कहती हैं कि आजकल वैदिक संस्कृति की बात करने का मतलब है कि लोग आप को हिन्दुत्ववादी कहेंगे या बीजेपी की समर्थक, इसलिए आप की बातों को गम्भीरता से नहीं लिया जायेगा। वैसे भी अक्सर लोग उन्हें परम्परावादी स्त्री की तरह की तरह से देखते हैं, इसलिए उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया जाता।

मेरे विचार में, हड़प्पा के बारे में देश-विदेश के बहुत से विशेषज्ञों ने पहले से बहुत किताबें लिखी हैं और जेनेक्टिकस जैसे आधुनिक शोधों से भी इंदो-आर्य तथा हड़प्पा के मूल निवासियों के बारे में अलग तरह की समझ बनी है, इसलिए भी उनके वैदिक संस्कृति की बात करने को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। लेकिन हमेशा से मेरी सोच रही है कि कोई भी नयी बात सुनने को मिले, मैं उसका मूल्यांकन अपनी दृष्टि और समझ से करना चाहता हूँ। मेरी आशा है कि इस आलेख को पढ़ने वाले भी उनकी बातों और विचारों को बिना पूर्वाग्रहों के पढ़ेंगे और तभी इस पर अपने विचार बनायेगे।   

यह आलेख रेखा जी की प्रैज़ेन्टेशन पर आधारित है जिसे आप यूट्यूब पर देख सकते हैं।

हड़प्पा की मोहरों का रहस्य

रेखा जी मानती हैं कि हड़प्पा की मोहरों में वैदिक अनुष्ठानों की जानकारी छिपी है।

वह कहती हैं कि वेदों में देव-पूजा का अर्थ यज्ञ करना है और हर यज्ञ में तीन बातें होती हैं - देवी-देवता, मंत्र-पाठ और आहूती। वेदों और वेदांगों में हज़ारों की संख्या में ऋचाएँ और मंत्र हैं, जिनका विभिन्न अनुष्ठानों में सही क्रम, तरीके और स्वर से उच्चारण करना आवश्यक है। उनके अनुसार, जिस काल में यह मोहरें बनीं, तब वेदों का प्रभाव पश्चिम में गांधार तक था, जहाँ नवयुवा पुरोहितों को भेजा जाता था, उस समय यह मोहरें उन युवा पुरोहितों की सहायता के लिए बनीं। मोहरें नवयुवा पुरोहितों को याद दिलाती थीं कि किस यज्ञ में, उसके उद्देश्य के अनुसार, कौन से अनुष्ठान हों जिनमें कौन से मंत्र और छंद, किस तरह से पढ़े जायें। उनके अनुसार यह सब जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता की मोहरों में संकेतिक रूप में दिखायी गयी है। 

वह बताती हैं कि उनके शोधानुसार, सिंधु घाटी सभ्यता में तीन तरह की मोहरें मिलती हैं - (1) मोहरें जिनमें आकृतियाँ और चिन्ह दोनों हों (2) जिनमें केवल चिन्ह हों (3) जिनमें केवल देवी-देवता या मानव या अन्य आकृतियाँ हों। हर सील छोटी होती है, उनका आकार 3x3 सें.मीटर और भार 9-10 ग्रा. होता है। नीचे की तस्वीर में तीनों तरह की सील (मोहरें) दिखायी गयी हैं।


हड़प्पा की मोहरों में वेदिक देवता, पुरोहित तथा अनुष्ठान 

देवताओं की पहचान के लिए वृषभ के सींग: उन्होंने ऋग्वेद की ऋचाओं के कई उदाहरण दिये जिनमें इन्द्र और अग्नि की तुलना वृषभ यानि बैल से की गयी है। इसलिए वह कहती हैं कि मोहरों पर देवताओं के सिर पर या सिर के पास बैल के सींग बनाये गये, जिनसे हम देवताओ को पहचान सकते हैं। उदाहरण के लिए नीचे वाली तस्वीर में ध्यान-मुद्रा में बैठी मानव-आकृति के सिर के ऊपर बने सींगों को लाल परिधि में दिखाया गया है।

पुरोहितों को एक सींग वाले वृषभ के रूप में दिखाना: उनका दूसरा प्रस्ताव है कि मोहरों पर होत्र-पुरोहितों (यज्ञ करने वाले पुरोहित) को एक सींग वाला बैल दिखाया गया। वह कहती हैं कि आज भी यज्ञ करने वाले पुरोहितों को अपने नाखूनों से पीठ खुजाने की मनाही होती है और बहुत से यज्ञ कई दिन या लम्बे समय के लिए भी चलते हैं। इस समय में अग्नि के पास बैठे परोहितों को पीठ खुजाने के लिए, उन्हें काले मृग के एक सींग, जिसे कंडुयानी कहते हैं, दिया जाता है। कंडुयानी को उनकी पीठ के वस्त्र के ऊपरी भाग में लगा दिया जाता है। चूँकि वृषभ यानि अग्नि देवता, स्वयं सभी देवताओ के पुरोहित हैं, इसलिए हड़प्पा की मोहरों में एक सींग वाले वृषभ को पुरोहित का प्रतीक बना कर दिखाया गया है।


इसके अतिरिक्त मोहरों में इन एक-सींग वाले वृषभों की पीठ पर एक, दो या तीन तार वाला जनेऊ बना दिखता है, यह भी उनके पुरोहित का चिन्ह होने का प्रमाण है। जैसे के ऊपर वाली मोहरों में वृषभों की पीठ पर दो तार वाले जनेऊ दिखते हैं। 

इन मोहरों में एकसिंगा वृषभ के सिर की मुद्रा से मंत्र पढ़ने वाले पुरोहितों को अन्य जानकारियाँ दी जाती थीं - उसका सिर अगर ऊपर की दिशा में है तो उन मंत्रों को उदात्त यानि ऊँचे स्वर में पाठ करते हैं, अगर सिर निचली दिशा में है तो मंत्रों का अनुदात्त यानि नीचे स्वर में पाठ करते हैं और अगर सिर सीधा है (यानि स्वरिता हो) तो उन मंत्रों और छंदों का समान्य स्वर में पाठ करते हैं (नीचे की तस्वीर में तीनों तरह की मुद्राएँ दिखायी गयी हैं)।


वृषभ के सिर के नीचे चारा-स्तम्भ जैसी आकृति: जितनी भी एकसिंगा वृषभ वाली मोहरें हैं, उनमें बैल के सिर के नीचे एक स्तम्भ पर कुछ बना हुआ लगता है, जैसे कि वृषभ के चारा रखा हो। लेकिन अपने शोध से रेखा जी ने देखा कि वृषभ के सामने रखे स्तंभों की यह आकृतियाँ आपस में बहुत भिन्न बनी हैं, यह ऊपर से ढकी हुई हैं और किसी मोहर में वृषभ को इसमें खाता हुआ नहीं दिखाया गया है। इसलिए उनका निष्कर्ष है कि यह चारा-स्तम्भ नहीं हैं, बल्कि यह आकृतियाँ ऋग्वेद के विभिन्न भागों और उनके छंदों के बारे में बताती हैं ताकि यज्ञ करने वाले पुरोहित को पता रहे कि उस यज्ञ में वेद के किस भाग और छन्द का पाठ करना है। नीचे तस्वीर में इन स्तम्भों की आकृतियों के कुछ नमूने हैं, जिन्हें वह भिन्न छंदों से जोड़ती हैं।

मोहरों पर बने चिन्ह: उनका कहना है कि मोहरों के चिन्ह, आकृतियाँ आदि सब मिला कर देखने चाहिये, केवल चिन्हों के अर्थ अलग से खोजना सही नहीं है। उनके अनुसार मोहरों के चिन्हों से यज्ञ और अनुष्ठान के बारे में अन्य जानकारी दी जाती है जैसे कि कौन सा यज्ञ, कैसी वेदिका, किस कड़छी से आहुती दी जाये, आदि।

दो प्रश्न

रेखा जी की इन बातों से मेरे मन में दो प्रश्न उठे जो मैंने उनसे पूछे:

पहला प्रश्न: अगर मोहरों का काम पुरोहितों को जानकारी देना है कि यज्ञ कैसे किया जाये, कौन से छंद और मंत्र कैसे पढ़े जायें, आदि तो उन्होंने यह केवल छोटी-छोटी मोहरों से क्यों किया, जिन्हें देखना उतना आसान नहीं है? उन्होंने कुछ बड़ी मोहरें क्यों नहीं बनायीं?

रेखा राव: जिस समय हड़प्पा की संस्कृति बन रही थी, वैदिक संस्कृति भारत के पश्चिम में गंधार तक फैली थी। नये क्षेत्रों में जाने वाले कम अनुभवी युवा पुरोहितों के लिए आवश्यक था कि वे हज़ारों मंत्रों और अनुष्ठानों को सही विधियों से याद रखें और करवायें। यह मोहरें वे अपने साथ ले कर जाते थे। तब यात्रा करना आसान नहीं था, उनके लिए छोटी मोहरों को सामान में ले जाना अधिक आसान था। 

मेरी टिप्पणी:  कुछ ऐसी मोहरें भी मिली हैं जिनके पीछे छेद बने हैं, शायद ऐसी मोहरों को रस्सी या धागे में पिरो कर यात्रा में ले जाना सुविधाजनक होता होगा, जैसे इस अगली तस्वीर में देख सकते हैं।


दूसरा प्रश्न: अपनी प्रेज़ेनटेशन में एक जगह पर नीचे सिर किये हुए एकसिंगा वृषभ और उसके नीचे छोटे से स्तम्भाकार आकृति के बारे में आप कहतीं हैं कि यह जिन छंदों के पाठ की मोहर है उन्हें बहुत धीमे अनुदात्त स्वर में पढ़ा जाता है, जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है। इस बात से मेरे मन में प्रश्न उठा कि यजुर्वेद तो बहुत बाद में लिखा गया था, तब उन्होंने इसकी मोहर हड़प्पा काल में कैसे बनाई?

रेखा राव: मंत्र और ऋचाएँ तो ऋग्वेद की ही थीं, यजुर्वेद में उन रीति-रिवाज़ों की सही विधियाँ बाद में लिखी गयीं, लेकिन यह विधियाँ प्राचीन थीं। ग्रंथ जब भी लिखे गये हैं, उनके अनुभव उस समय से बहुत पुराने थे। मंत्र पढ़ते समय कुछ शब्द सपाट स्वर में बोले जाते हैं, अन्य शब्दों में आवाज़ को ऊपर ले जाते हैं, कुछ अन्य मंत्र ऐसे होते हैं जिन्हें इतना धीमे बोलते हैं कि पास में खड़ा व्यक्ति भी नहीं सुन पाता। यह सब बातें कि कब, कहाँ पर कौन सा मंत्र और छंद कैसे बोलना है, यह ज्ञान मोहरों में अंकित है। 

कुछ दिलचस्प मोहरें

रेखा जी की प्रेज़ेन्टेशन में कुछ मोहरें मुझे बहुत दिलचस्प लगीं। इस बारे में मैं उनके प्रैज़ेन्टेशन से कुछ स्लाइड दिखाना चाहता हूँ।

(1)  वज्रबाहू इन्द्र की मोहर: वह बताती हैं कि ऋग्वेद में इंद्र को वज्रबाहू कहा गया है, वह बारिश रोकने वाले असुर से लड़ते हैं और बारिश करवाते हैं। इस मोहर को देखें तो स्पष्ट दिखता है मानो उनकी बाहों से वज्र निकल रहे हों, इसलिए उनका इस मोहर का वज्रबाहू नाम देना सही लगता है।


(2) प्रजापति मोहर: मैंने इस मोहर को दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में देखा था, वहाँ इसे योगमुद्रा में बैठे  शिव का पशुपति रूप कहा गया है। जबकि रेखा जी का कहना है कि यह पशुपति मोहर नहीं है, बल्कि यह स्वर्णकंगन पहने प्रजापति हरण्यबाहू की मोहर है, क्योंकि इसमें विभिन्न जँगली पशुओं को दिखाया गया है। उनके अनुसार ऋग्वेद में पशुपति को पालतू पशुओं का स्वामी कहा गया है, वह दैविक चिकित्सक हैं जो मनुष्यों और पालतु गाय, भैंस जैसे पशुओं की रक्षा करते हैं। जबकि इस मोहर में पालतू पशु नहीं बल्कि जँगली पशु दिखाये गये हैं। इसलिए वह कहती हैं कि इसे पशुपति नहीं प्रजापति की मोहर कहना चाहिये।


 (3) अग्न्याधेया यज्ञ के अग्नि कुंड: उनके अनुसार इस विषेश यज्ञ में जिस तरह से भिन्न अग्नि कुँड बनाये जाते हैं, वैसे ही कुँड हड़प्पा की मोहरों में भी दिखते हैं। नीचे की तस्वीर में आप अग्न्याधेया यज्ञ के आजकल बनने वाले कुँड और हड़प्पा की मोहरों में उनका चित्रण, दोनों देख सकते हैं।


(4) प्रावर्ग्या यग्न: रेखा जी कहती हैं कि इस यग्न में सप्तहोत्री यानि सात पुरोहितों द्वारा अग्नि का आवाह्न किया जाता है जिसमें बहुत गर्म घी को दूध में मिलने से अग्नि विस्फोट जैसा हो कर अग्निस्तम्भ बनता है, जिसकी उन्होंने केरल प्रदेश से पंजल नाम की जगह की तस्वीर दिखायी। वह मानती हैं कि नीचे वाली हड़प्पा की मोहर में इसी यज्ञ को दिखाया गया है। इसमें अध्वर्यू यानि अग्नि देवता पूजा कर रहे हैं, नीचे सप्तहोत्री खड़े हैं, बायीं ओर खारा नाम की गोल वेदी पर रखे महावीर कुम्भ में बृहस्पति बने हैं जोकि यज्ञ में अग्नि-स्तम्भ रूप में प्रकट होते हैं। आप सभी तस्वीरों पर पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं।

(5) श्राध की मोहरें: रेखा जी कहती हैं कि जब पितृों का श्राध करते हैं तो उसमें तीन पुजारी तीन भिन्न दिशाओं से आते हैं और भिन्न दिशाओं में ही रीति अनुसार यजमान की तीन पीढ़ियों के श्राध के लिए मंत्रों का पाठ करते हैं। इसलिए वह कहती हैं कि जिन मोहरों पर तीन अलग दिशाओं की ओर मुँह किये हुए तीन वृषभ बने हैं, यह श्राध की रीति और मंत्र समझाने वाली मोहरें हैं। 


अंत में

मुझे सुश्री रेखा राव की हड़प्पा की मोहरों की बातें कि यह वैदिक मंत्रों, छंदों और अनुष्ठानों को अंकित करती हैं, बहुत दिलचस्प और नयी लगीं। शायद अगर मोहरों के चिन्हों के अर्थ समझ में आ जायें तो उनकी बातों के प्रमाण भी मिल जायें, वरना उनके प्रस्ताव रोचक लग सकते हैं, लेकिन शायद उनके प्रमाण मिलना कठिन है।

उनकी बातों में अपना तर्क है लेकिन यह सब बातें आज के जाने-माने विशेषज्ञों से इतनी भिन्न हैं कि मेरे विचार में इन्हें स्वीकार किया जाना कठिन लगता है। जेनेटिक्स और अन्य प्रमाणों से इंदो-आर्य के आने की जो बातें की जाती है, उनमें और हड़प्पा की मोहरों के इस तरह के अर्थ के बीच में सामंजस्य नहीं बिठा सकते। नीचे की तस्वीर में रेखा जी की कुछ पुस्तकें जो अमेज़न पर उपलब्ध हैं।


जहाँ तक मैंने पढ़ा है, सारी बहसें मोहरों पर बने चिन्हों को भाषा मान कर उनके अर्थ समझने के बारे में हैं, उनके तीनों भागों को मिला कर, उनके आंतरिक अंतर-सम्बंधों को जोड़ कर नहीं देखा गया है। जबकि रेखा जी की बातों में तर्क है और उनकी बातों से स्पष्ट है कि उन्हें वेदिक अनुष्ठानों की बहुत अच्छी जानकारी है, इसलिए वह उन पहलुओं को देख-समझ सकती हैं जिन्हें अन्य विशेषज्ञ नहीं देख पाते। 

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मंगलवार, अक्टूबर 14, 2025

यात्रा की तैयारी

मेरी दिल्ली जाने की तैयारी शुरु हो गयी है। अगले सप्ताह भारत पहुँच रहा हूँ। तैयारी करते हुए सोच रहा था कि पहले की यात्राओं और अब की यात्राओं में कितना कुछ बदल गया है।

लाने-ले जाने वाली बदलती दुनिया 

एक ज़माना था जब भारत जाने से पहले लम्बी लिस्टें बनाता था कि कौन से मसाले, कौन सी दालें, कौन से गानों के कैसेट, कौन सी फिल्मों के वीडियो कैसेट, वगैरा लाना भूलना नहीं है। उन लिस्टों में और भी न जाने क्या क्या होता था। तब सबसे बड़ी चिन्ता होती थी कि सूटकेस का वज़न अधिक हो गया तो सामान एयरपोर्ट पर न छोड़ना पड़े।

फ़िर समय बीता, सन् दो हज़ार के आसपास कैसेट के बदले में सी.डी. या डी.वी.डी. आ गयीं। तभी यहाँ इटली में भी प्रवासी आने लगे तो यहाँ भी एशिआई दुकाने खुलने लगीं। इसलिए पहले दालों और मसालों को लाना कम हुआ फ़िर बिल्कुल समाप्त हो गया। फ़िर हर तरह के फ़ल-सब्जियाँ भी यहाँ मिलने लगे। 

जैसे-जैसे समय बीत रहा है, अधिक चीज़े यहाँ मिलने लगी हैं और उनकी क्वालिटी बेहतर हो रही है। एक उदाहरण आमों का। वैसे तो सुपरमार्किट में ब्राज़ीली या अफ्रीकी आम भी मिलते हैं, लेकिन पिछले दस-पंद्रह सालों से पाकिस्तानी आम भी आने लगे थे, जो स्वाद में अच्छे थे लेकिन बहुत मँहगे होते थे, सात-आठ यूरो का एक किलो। इस साल यहाँ स्पेन से एक बहुत बढ़िया आम मिल रहा है, ढाई यूरो का एक किलो। हर साल इस तरह से कुछ न कुछ अन्य चीज़ें बिकने लगी हैं, जैसे कि हल्दीराम के गोलगप्पे के डिब्बे। 

हमारे छोटे से शहर में भारतीय दो ही हैं लेकिन यहाँ बँगलादेश और पाकिस्तान के बहुत से प्रवासी हैं, इसलिए यहाँ उनकी दुकाने भी खुली हैं और हर तरह का सामान भी मिलने लगा है। पहले जाने से, दो पहीने पहले से सपने आने लगते थे कि आम खाने हैं, मिठाई खानी है, मेथी, भिंडी और करेले की सब्ज़ी खानी है, इन दुकानों की वजह से अब वह सब बहुत कम हो गया है।

एक ओर लाने वाले सामान में कमी हुई है तो दूसरी ओर भारत ले जाने वाले सामान में बड़ा बदलाव आया है। 

सबसे बड़ी दिक्कत है कि घर के लोगों के लिए क्या गिफ्ट ले कर जाओ?  वहाँ पर अब सब कुछ मिलने लगा है। पहले चॉकलेट, व्हिस्की जैसी गिफ्ट ले कर जाता था, अब बहुत सोचना पड़ता कि किसके लिए क्या ले कर जाऊँ, अधिकाँश के लिए कुछ नहीं ले कर जाता। कई बार कपड़े ले कर गया हूँ लेकिन अक्सर उन पर भी "मेड इन इंडिया", या बंगलादेश या चीन या वियतनाम का नाम लिखा होता है, इसलिए लगता है कि उन्हें ले कर जाना बेकार है। 

वहाँ हिन्दुस्तान की शहर-सड़कें इतनी तेज़ी से बदल रहीं हैं कि मन में थोड़ा सा यह डर भी होता कि वहाँ जाऊँगा तो सब कुछ बदला-बदला दिखेगा। पहले प्लैन बनते थे कि इस दोस्त से मिलना है, वहाँ रिश्तेदार के यहाँ जाना है, वगैरा। वह भी अब बहुत कम हो गया है क्योंकि व्हाटसएप्प और फेसबुक से सबकी खबर मिलती रहती है, कभी कभी वीडियो कॉल से बात भी हो जाती है, तो लगता नहीं कि उनसे बहुत दिनों से नहीं मिले, अब मिलना चाहिये।

लेकिन अभी भी कुछ चीज़ें हैं 

इटली में हमारे शहर में अभी दोसा, पूरी-भाजी और छोले-भटूरे जैसी चीज़ें नहीं मिलती, इसलिए सोचता हूँ कि उन्हें खाना है। आयुर्वेदिक दवाएँ खरीद कर लानी हैं। सिनेमा हॉल में जा कर नयी फ़िल्में देखने का आकर्षण भी है। वैसे तो यहाँ सब फ़िल्में देखने को मिल जाती हैं लेकिन हिन्दुस्तान में सिनेमा हॉल में कोई हिट फ़िल्म देखने का मज़ा कुछ और है, बस एक बात अच्छी नहीं लगती कि लोग अक्सर वहाँ भी मोबाइलों पर लगे दिखते हैं।

मुझे संग्रहालय जाने, चिड़ियाघर जाने, बाज़ार में घूमने, संगीत और नृत्य के कार्यक्रम देखने आदि भी बहुत अच्छे लगते हैं, इसलिए इसकी लिस्ट भी बनती है कि कौन सी जगहों पर जाना है। पिछली बार गया था तो इंडिया गेट के पास नये सैनिक स्मारक को और मैहरोली पुरात्तव पार्क को देखने गया था। इस बार के.एम. कला संग्रहालय और दिल्ली आर्ट गैलरी की नयी प्रदर्शनी को देखना है। करीब दो-तीन दशकों के बाद इस बार मैडिकल कॉलेज के कुछ पुराने साथियों से मिलने की योजना भी है। चूँकि घुटनों में दर्द रहता है, लम्बी यात्रा करने का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया।

लेकिन हिन्दुस्तान जाने में घरवालों से मिलने की चाह अभी भी सबसे प्रबल होती है, सबके साथ बैठना, बतियाना, गप्प मारना, वहाँ जाने का सबसे बड़ा सुख और आकर्षण यही लगता है। अमरीका से मेरी दूसरी बहन भी वहाँ आयेगी, तब भाई-बहन साथ में बैठ कर खूब गप्प मारेंगे, अतीत की बातों और जो लोग नहीं रहे उन्हें याद करेंगे, कुछ बहसें और लड़ाईयाँ भी होंगी। घर लौटने का सबसे बड़ा सुख यही होगा। नीचे वाली तस्वीर पिछली यात्रा से है।


 

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रविवार, सितंबर 14, 2025

शब्दों की हिंसा

कुछ दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने टीवी के प्रोग्राम वाले श्री समय रैना और अन्य विदूषकों को आदेश दिया कि वे अपने कार्यक्रम में विकलांग और बीमार व्यक्तियों की खिल्ली उड़ाने के लिए उनसे क्षमा माँगें।

हर भाषा में कमज़ोर, अल्पसंख्यक, नीचे देखे-माने जाने वाले समुदायों के व्यक्तियों के लिए ऐसे शब्द होते हैं जिनसे उनकी कमज़ोर तथा अवाँछनीय सामाजिक स्थिति पर ज़ोर दिया जाता है। वैश्या, अँधा, बहरा, लूला, अछूत, गँवार, पागल जैसे शब्द इनके कुछ उदाहरण हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद १९४८ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने सार्वभौमिक मानव अधिकारों के घोषणापत्र को अपनाया। उसके बाद से विभिन्न वंचित समुदायों ने शब्दों की हिंसा के बारे में बात करनी शुरु की और कहा कि उनके लिए नये शब्द होने चाहिए जिनसे उनकी मानव अस्मिता को स्वीकारा जाये और उनकी छवि सकारात्मक बने।

लेकिन यह संघर्ष बहुत पहले से चल रहे थे। जैसे कि गाँधीजी ने "हरिजन" शब्द का प्रयोग १९३२ में किया था क्योंकि वह सोचते थे कि अछूत की जगह हरिजन कहने से अस्पृश्यता निवारण में मदद मिलेगी।

लेकिन केवल भाषा बदलने से व्यक्तियों की स्थिति नहीं सुधरती और कई बार, समय के साथ नये शब्द भी नकारात्मक बन जाते हैं। जैसे कि समय के साथ 'हरिजन' शब्द के बदले 'दलित' शब्द का उपयोग बेहतर माना गया, जबकि आजकल कुछ लोग भीमटा या भीमवादी शब्द का प्रयोग भी करते हैं।

इस तरह के समय के साथ नये शब्दों के नकारात्मक बदलाव एक अन्य उदाहरण है मन्दबुद्धि बच्चों के लिए अंग्रेज़ी में पहले 'इम्बेसाईल' (नासमझ) शब्द का प्रयोग होता था, उसे बदल कर 'ईडियट' (बेवकूफ) किया गया, फ़िर जब ईडियट शब्द को बुरा माना गया तो 'लो इटेलिजैंस' (मन्द बुद्धि), 'इटेलेक्चुअल डिसएबिल्टी' (मानसिक विकलाँता) जैसे शब्द खोजे गये। आजकल इन सभी शब्दों का प्रयोग न करने के लिए कहते हैं और उनकी जगह पर 'लर्निन्ग डिसएबिल्टी' (सीखने की विकलाँगता)  शब्द का प्रयोग करने के लिए कहते हैं। (नीचे की छवि इसी विषय पर हुई मंगोलिया में एक मीटिन्ग से है)

विकलाँगता के सही शब्द कौन से हों, मंगोलिया की मिटिन्ग - छवि डॉ. सुनील दीपक की

  

शब्दों के बदलाव में जिस समुदाय की बात हो रही हो, उसके लोग स्वयं अपने लिए शब्द चुनना पसंद करते हैं। जैसे कि कुछ वर्ष पहले भारत सरकार ने 'विकलाँग' के बदले 'दिव्याँग' शब्द का प्रयोग रखा, लेकिन बहुत से विकलाँग व्यक्तियों ने इस नये शब्द का विरोध किया है।

शब्दों से जुड़ी हिंसा की बहसें सबसे अधिक अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, विषेशकर संयुक्त राष्ट्र संघ के स्तर पर होती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्रों और समझौतों में कौन से शब्दों का प्रयोग होना चाहिये। कई बार मुझे लगता है कि सालों तक इन बहसों में लड़ने-झगड़ने वाले लोगों को अपने आप को बड़ा एक्टिविस्ट दिखाने और बढ़-चढ़ कर बोलने में अधिक दिलचस्पी होती है, जबकि उनके देशों में गाँवों-शहरों में रहने वाले लोगों को इस सबसे कुछ फायदा नहीं होता क्योंकि इन बहसों का उनकी अपनी भाषाओ में कुछ सार्थिकता नहीं होती।

जैसे कि विकलांगों के सम्बंध में मैंने सालों तक 'डिसएब्लड पर्सन' (विकलाँग व्यक्ति) और 'पर्सन विद डिसएबिलिटी' (व्यक्ति जो विकलाँग है) में से कौन सा शब्द बेहतर है इस पर हज़ारों अंतर्राष्ट्रीय बहसें देखी हैं। अंत में यह फैसला हुआ कि 'पर्सन विद डिसएबिल्टी' का प्रयोग होना चाहिेये क्योंकि इसमें पर्सन (व्यक्ति) शब्द पहले आता है, जिससे उसकी विकलाँगता को नहीं बल्कि उसके व्यक्ति होने को अधिक महत्व देते हैं। आज अगर आप किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में गलती से 'डिसएब्लड पर्सन' बोल दें तो कुछ लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं, आप को निकालने की धमकियाँ देते हैं।

मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस का हमारे देशों में रहने वाले लाखों विकलाँग व्यक्तियों पर क्या असर पड़ता है? कितने हिंदी बोलने वाले, 'विकलाँग व्यक्ति' के बदले में 'व्यक्ति जो विकलाँग हैं' बोलना चाहेंगे?

मेरे विचार में भाषाओं में हिंसा होती है, क्योंकि समाजों में हिँसा होती है और भाषाएँ समाजों के प्रतिबिम्ब होती हैं। समाज की हिंसा से लड़े बिना, भाषा की हिंसा से लड़ने का क्या फायदा है?

मेरे विचार में व्यक्तियों को नीचा दिखाने वाले शब्दों को बदलने का पहला कदम उन व्यक्तियों की आत्मचेतना है जिससे उन्हें अपनी स्थिति की समझ आये, वह स्वयं उस शब्द को अस्वीकार करें। यह पहला कदम आसान नहीं है क्योंकि हम जिन समाजों में पलते और बड़े होते हैं, वह बचपन से हमारी सोच को प्रभावित करता है। बचपन से अपने लिए सुनी नकारत्मक बातें हमारे भीतर घर बना कर रहती हैं, हम खुद अपने आप को नीचा, कमज़ोर, मानने लगते हैं। 

इसका दूसरा कदम है कि अपने लिए नया शब्द चुनना और उसके लिए लड़ना, लेकिन वह केवल शब्द बदलने की लड़ाई नहीं होती। उसके साथ एक दूसरी बड़ी लड़ाई भी होती है जिसमें वह अपनी सामाजिक स्थिति के बदलाव तथा उत्थान के लिए भी लड़ते हैं। 

अगर आप किसी ऐसे समुदाय से हैं जिनके लिए नकारात्मक शब्दों का प्रयोग होता है, तो आप इस बारे में अपनी राय टिप्पणी के माध्यम से अवश्य दें कि आप  इस विषय में क्या सोचते हैं और आप का व्यक्तिगत अनुभव क्या बताता है? 

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बुधवार, जुलाई 02, 2025

यौन दुराचरण और हमारी चुप्पियाँ

पिछले कुछ दिनों में फेसबुक पर साहित्यकारों से जुड़ी यौन दुराचरण की एक बहस चल रही है। मैं फेसबुक पर कम ही जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि नकारात्मक बातें न पढ़ू, फ़िर भी इस बहस के कुछ हिस्सों पर मेरी नज़र पड़ी। उस बहस में जिन व्यक्तियों की और जिस घटना की बात हो रही है, मैं दोनों से अपरिचित हूँ, इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता।

लेकिन इस बात से मुझे अपने कार्य-जीवन से जुड़ीं यौन दुराचरण की बातें याद आ गईं। यह आलेख मेरी उन यादों, अनुभवों, तथा विचारों के बारे में है।


आप क्या करेंगे?  

अगर आप को पता चले कि आप का मित्र या ऐसा व्यक्ति जिसे आप बहुत मानते हैं वह यौन-दुराचरण कर रहा है तो आप क्या करेंगे? यह बातें फ़िल्मों में देख कर या दैनिक या पत्रिका में पढ़ कर आसान लगती है, और हम सोचते हैं कि इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए। 

जैसे कि मीरा नायर की फ़िल्म "मॉनसून वेडिन्ग" में यह प्रश्न उठता है, जब पता चलता है कि परिवार का एक सम्मानित आदमी जिसने परिवार की कई अवसरों पर मदद की है, घर की बच्ची के साथ जबरदस्ती यौन सम्बंध करता था। उस फ़िल्म में परिवार के वरिष्ठ लोग उस आदमी को वहाँ से चले जाने के लिए कहते हैं। लेकिन फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में क्या होता है? वहाँ अक्सर इस विषय पर चुप्पियाँ मिलती हैं, और लोग इस बारे में बात करने में असहज हो जाते हैं।

मेरे व्यक्तिगत अनुभव भी यही बताते है कि सामान्य जीवन में इस तरह के निर्णय लेना कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। अगर आप को यौन विषय पर पढ़ने-सुनने से परेशानी होती है, तो मेरी सलाह है कि आप इस आलेख को आगे नहीं पढ़िये।

दो जाने-माने नाम

एब्बे पिएर फ्राँस में १९१२ में पैदा हुए थे और उनकी मृत्यु सन् २००७ में हुई थी। उन्हें लोग संत मानते-बुलाते थे। सन् १९४९ में एब्बे पिएर ने यूरोप में एम्माउस नाम की संस्था बनाई थी जो गरीबों, विकलांगों, कुष्ठ रोगियों, शरणार्थियों आदि के साथ सक्रिय थीं। उनकी संस्था से प्रभावित हो कर बहुत सी अन्य एम्माउस एसोसियेशन भी बनीं। चूँकि मैं भी कुष्ठ रोग और विकलांगता के क्षेत्र में सक्रिय था, उनमें से कई संस्थाओं के साथ मेरे सम्पर्क बने और उनके साथ बहुत बार काम भी किया।

करीब तीस-पैंतीस साल पहले, नब्बे के दशक में मैं एब्बे पिएर से एक बार मिला था और उनकी बातों और सोच से बहुत प्रभावित हुआ था। इसलिए जब पिछले वर्ष (२०२४ में), एब्बे पिएर के बारे में खबरें आईं कि उन्होंने बहुत सी बच्चियों के साथ यौन दुराचार किया था, तो मुझे बहुत धक्का लगा था। इस विषय पर एक नई किताब आई है जिसकी लेखिकाओं ने इस विषय पर छानबीन की है जिससे स्पष्ट होता है कि उनके यौन दुराचार की बातें लोगों को बहुत पहले से मालूम थीं लेकिन इसके बारे में कोई खुल कर नहीं बोलता था। ३३ स्त्रियों ने बचपन में उनके इस तरह के व्यवहार के व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में गवाही दी है।

जब इस तरह की बातें पता चलती हैं तो पहला प्रश्न जो मेरे मन में उठता है वह है - उस व्यक्ति के अच्छे कामों के बारे में क्या किया जाये? उन्हें भुला दिया जाना चाहिये? किसी व्यक्ति की बात करते हुए  उसके अच्छे और बुरे कर्मों को किस तराजू में कैसे तोला जाये?

दूसरी बात है समय की। एब्बे पिएर को गुज़रे हुए सतरह साल हो चुके हैं तो अब यह बातें कहने का क्या लाभ है? मेरे विचार में सच्ची बात को अभिव्यक्त करना भी आवश्यक है। इस समाचार के बाद कुछ एम्माउस संस्थाओं ने अपनी वेबसाईट आदि से एब्बे पिएर का नाम हटा दिया है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इतने सालों के बाद की उन औरतों की स्मृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता, या फ़िर किसी को मानसिक रोग हो तो वह गलत सम्बंध की बात की कल्पना भी कर सकता है, इसलिए इन बातों पर पूरा विश्वास करना कठिन है। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी सारी औरतों की शिकायतों को मानसिक रोग कहना सच्चाई से मुँह छुपाना है।

दूसरी बात डेविड वर्नर की है। पिछड़े और विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले बहुत सारे लोग डेविड वर्नर की दो किताबों को जानते हैं, "जहाँ कोई डॉक्टर नहीं है" और "गाँव के विकलांग बच्चे"। १९८०-९० के समय में यह दोनों किताबें बहुत प्रसिद्ध थीं और इनसे प्रेरणा पा कर इस तरह की अन्य कई किताबें भी लिखी गईं जैसे कि "जहाँ कोई डैंटिस्ट नहीं है", "जहाँ कोई मनोरोग विषेशज्ञ नहीं है", आदि।

मैंं डेविड से पहली बार १९८८ में मिला था और विकलांगता से सम्बंधित विषयों पर उसकी सोच-समझ को प्रेरणादायक पाया था।

२००३-४ के आसपास मैंने सुना कि उस पर आरोप लगा है कि मैक्सिको के जिस गाँव में रहता और काम करता था, वहाँ के कई बच्चों के साथ उसके यौन सम्बंध भी थे। मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मेरी एक अंग्रेज़ी मित्र ने मुझे उसकी एक चिट्ठी दिखायी जिसमें वह इस तरह के "प्रेम सम्बंधों" को वह बच्चों के मानसिक विकास के लिए सही बता रहा था। हमारे मित्रों के गुट ने उस समय उससे सब सम्बंध तोड़ लिए थे। बाद में मैंने सुना कि वह अपनी बात से पलट गया है, वह इंकार करता है कि उसने ऐसा कुछ किया था।

डेविड मुझसे करीब बीस साल बड़ा था, अगर वह आज जीवित है तो नब्बे साल का होगा। बहुत सालों से मेरा उससे सम्पर्क नहीं है। लेकिन इसके बारे में मेरे मन में दुविधा है। उसकी जिन किताबों की वजह से लाखों लोगों को लाभ भी हुआ था और आज भी होता होगा, उनके लिए उसके योगदान को कैसे देखा जाये? मैं कई विकलांग लोगों को जानता हूँ जो कहते हैं कि उसकी किताबों में उन्होंने अपना जीवन जीने की राह पाई है।

मी टू - व्यस्कों में सम्बंधों की जटिलताएँ

कुछ वर्ष पहले "मी टू" (मुझे भी) के नाम से यौन दुराचार की बहुत सी बातें बाहर निकलीं, कई लोगों पर आरोप लगे जिसमें बड़ी उम्र के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध या उच्चे पद के अफसरों-अधिकारियों ने अपने नीचे काम करने वाली युवतियों को सैक्स के लिए मजबूर किया था। कानूनी जाँच में बहुत से ऐसे आरोप सही निकले और कुछ में आरोपितों को सजा मिली या नौकरी से निकाला गया। कुछ ऐसे आरोप झूठे भी निकले। 

कुछ स्त्रियों का कहना है कि जिस समय यह हादसा हुआ था, यह इतना अप्रत्याशित था कि उस समय वह कुछ नहीं कह पायीं। अगर महिला ने रोका नहीं या स्पष्ट मना नहीं किया तो क्या इसे गलतफहमी का नतीजा भी माना जा सकता है?

यह भी सच है कि नीचे काम करने वाले को दबाव महसूस होता है कि अगर वह ऐसे सम्बंधों को नहीं स्वीकारेंगे तो उनके केरियर पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि इस तरह के सम्बंध हमेशा गलत होते हैं। लेकिन ऐसे कई दम्पत्ति हैं जिनकी जानपहचान और प्रेम साथ में काम करने की वजह से हुए, जब उनमें से एक ऊँचे पदवे पर था और दूसरा नीचे। इसलिए यह सोचना कि ऊँचे और नीचे पद वालों के बीच किसी तरह के सम्बंध नहीं बने, को लागू करना कठिन होगा।

यह भी हो सकता है कि कैरियर में आगे बढ़ने के लिए या किसी लाभ की आशा से कुछ व्यक्ति इस तरह के सम्बंध सोच-समझ कर बनायें, लेकिन बाद में प्रमोशन या लाभ न मिलने पर गुस्सा हो जायें और बदला लेने के लिए कहें कि उनके साथ जबरदस्ती हुई है। यह बात सोच कर मुझे व्यस्क व्यक्तियों के बीच हुए सम्बंधों का मामला अधिक कठिन लगता है। 

समलैंगिक यौन दुराचरण की जटिलतायें

नब्बे के दशक में एक अधेड़ उम्र की नर्स हमारे एक प्रोजेक्ट में काम करने तीन महीने के लिए विदेश गईं। उन्होंने लौट कर मुझसे शिकायत की वहाँ काम करने वाली, उनसे दस वर्ष बड़ी हमारे प्रोजेक्ट की प्रमुख ने उनसे यौन सम्बंध बनाने की कोशिश की। वह चाहती थीं कि हम उस प्रोजेक्ट प्रमुख को नौकरी से निकाल दें। जहाँ तक मुझे समझ में आया शिकायत करने वाली महिला के साथ किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं हुई थी, बल्कि वह सोचती थीं कि लेसबियन होना गलत है और ऐसी औरतों को प्रोजक्ट में ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं रखना चाहिए। जबकि मुझे लगा कि लेसबियन होना और व्यस्क महिला से सम्बंध के लिए कहना या पूछना कोई जुर्म नहीं है। अंत में मैंने इस शिकायत के बारे में कुछ नहीं किया।

एक बार भारत में एक कुष्ठआश्रम के काम करने वाली यूरोपीय मूल की नर्स-नन के बारे में भी मुझे यही शिकायत मिली कि वह लेसबियन है। मैं उन्हें बहुत सालों से जानता था और मुझे लगा कि वह बहुत मेहनत तथा प्यार से रोगियों की सेवा करती थीं। मैंने सोचा कि लेसबियन होना अपराध नहीं है, और अगर वह किसी से जबरदस्ती नहीं कर रहीं तो यह उनका निजि मामला है। बाद में मुझे खबर मिली कि उनकी संस्था (कोनग्रेगशन) ने उन्हें संस्था से निकाल दिया है और वह यूरोप वापस लौट आईं।

कुछ साल पहले अमरीकी अभिनेता केविन स्पेसी पर भी कुछ पुरुषों ने आरोप लगाये थे कि कुछ दशक पहले जब वह नाबालिग थे तब स्पेसी ने उनके साथ जबरदस्ती सम्बंध बनाये थे। इन आरोपों की वजह से स्पेसी को कई फिल्मों और सीरियल से निकाल दिया गया, लेकिन बाद में न्यायालय ने उन आरोपों को सही नहीं माना। एक ओर से यह हो सकता है कि इतने पुराने ज़ुर्म को अदालत में साबित करना आसान नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि प्रसिद्ध और पैसे वाले व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाने का कारण व्यक्तिगत लाभ की आशा हो। 

एक और अनुभव

मेरा तीसरा अनुभव एक यूरोपी पुरुष से जुड़ा है जो करीब बीस साल से अफ्रीका में काम करते थे। उन्होंने वहाँ की महिला से विवाह किया था और उनके बच्चे भी थे, जिनमें वहाँ के कुछ गोद लिए हुए बच्चे भी थे। उन्होंने बहुत से बच्चों को छात्रवृति दिलवा कर यूरोप पढ़ने भेजा था। एक दिन उनके विरुद्ध शिकायत आई कि वह वहाँ अनाथाश्रम के बच्चों से यौन सम्बंध बनाते हैं। इस बात की जाँच के लिए वहाँ एक व्यक्ति को भेजा गया। तीन सप्ताह तक उस व्यक्ति ने वहाँ के बच्चों से, वहाँ काम करने वालों से, आदि से साक्षात्कार किये, और इस बारे में प्रश्न पूछे। पता चला कि आरोप लगाने वालों में कुछ लोगों का उनसे झगड़ा हुआ था, लेकिन किसी बच्चे से इसके बारे में बातचीत से कोई संदेहजनक बात नहीं निकली। आखिर में कुछ सबूत नहीं मिलने से यह जाँच बंद कर दी गयी और उनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही नहीं की गई।

इस बात के चार-पाँच साल के बाद उस देश की सरकार ने उन्हें अपने देशवासियों की सेवा के लिए विषेश पुरस्कार दिया। इस बात को बीस-पच्चीस साल हो गये हैं और वह सज्जन, जो अब वृद्ध हैं, आज भी उसी देश में रहते हैं और उसी अनाथाश्रम में स्वयंसेवक की तरह काम करते हैं।

सच कहूँ तो आज भी मेरे मन में इस घटना के बारे में दुविधाएँ हैं, हालाँकि उनके अपने गोद लिए हुए बच्चे, जो अब व्यस्क हैं, कहते हैं कि उनके पिता पर लगे आरोप झूठे थे। आप बताईये कि आप इस मामले में क्या करते?

अंत में

मेरे लिए, व्यक्तिगत स्तर पर, इस विषय पर सबसे बड़ी दुविधा का कारण है कि जहाँ बलात्कार जैसे सबूत नहीं हों, किसी पर लगे आरोपों को कैसे जाँचा जाये? बाद में मन में संदेह रह जाता है, उसे निकालना असम्भव होता है, तो यह लगता है कि आरोप लगाना बहुत आसान है, लोग कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू है कि जब कोई औरत, अतीत में हुई किसी बात को बताती है, तो उसके लिए यह कहना आसान नहीं होता, उसे कैसे गम्भीरता से न लिया जाये?

अंत में बात घूम-फ़िर कर वहीं आ जाती है कि उपन्यासों, फ़िल्मों या अखबारों या फेसबुक में यह बातें आसान लग सकती हैं, कि यह हुआ, ऐसा या वैसा करना चाहिए था। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में कुछ भी लिखना आसान है। लेकिन जब आप को निर्णय लेना पड़े तो यह कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। 

पटना की घटना से जुड़ी बहस पर साहित्यकारों और साहित्य की बात करते हुए, मित्र ओम थानवी ने लिखा है, "अच्छा या बड़ा लेखक जाति, विचार, चरित्र, आचरण के बावजूद अच्छा या बड़ा होता है। कम-से-कम इस तरह के आधारों पर उसे त्याज्य या उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।" कुछ यही बात अन्य क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए भी कही जा सकती है।

आप बताईये आप इस विषय के बारे में क्या सोचते हैं? 

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शुक्रवार, जून 20, 2025

राशन की चीनी

आज सुबह चाय बना रहा था तो अचानक मन में बचपन की एक याद कौंधी। 

यह बात १९६३-६४ की है। मैं और मेरी छोटी बहन, हम दोनों अपनी छोटी बुआ के पास मेरठ में गर्मियों की छुट्टियों पर गये थे। १०१ नम्बर का उनका घर साकेत में था। साथ में और सामने बहुत सी खुली जगह थी। बुआ के घर में पीछे पपीते का पेड़ लगा था और साथ वाले घर में अंगूर लगे थे। एक बार दोपहर में जब अन्य लोग सो रहे थे, पड़ोसी घर से अंगूर चुरा कर खाने की सजा भी मिली थी। बुआ के यहाँ अजीत नाम के गढ़वाली सज्जन रसोईये का काम करते थे।

तब मैं नौ-दस साल का था और सुबह दूध पीता था। दिल्ली में घर पर दूध में चीनी मिला कर पीते थे। उन दिनों में चीनी राशन से मिलती थी और शायद मेरठ में उसकी कमी चल रही थी, इसलिए वहाँ दूध फीका पीना पड़ता था। ऐसी आदत पड़ी थी कि बिना चीनी का दूध पीया ही नहीं जाता था, मतली आने लगती थी। तब अजीत कहता कि गुड़ का टुकड़ा मुँह में रख लो और साथ में दूध का घूँट पीयो, चीनी की कमी महसूस नहीं होगी।

पिछले दस-पंद्रह सालों से मैं दूध, चाय और कॉफी बिना चीनी के पीता हूँ। मसूढ़ों में तकलीफ रहती थी तब डैन्टिस्ट ने कहा कि शायद मेरे मसूढ़ों को चीनी और कॉफी का सम्मिश्रिण सूट नहीं करता, इसलिए मुझे कुछ दिन तक बिना चीनी की कॉफी पी कर देखना चाहिए। एक बार कॉफी से शुरु किया तो चाय और दूध में भी चीनी डालना छोड़ दिया।

तब से फीका पीने की ऐसी आदत पड़ी है कि अगर चाय में चीनी हो तो मुझसे पी नहीं जाती, मतली आने लगती है। भारत में छोटे-बड़े शहरों में घूमते हुए कई बार ऐसा होता है कि वह लोग चाय बना कर रख लेते हैं जिसमें चीनी मिली होती है और आप उनसे बिना चीनी की चाय माँगिये तो वह मना कर देते हैं। रेल में भी यही होता है।

कर्णटक में एक पशु मेले में चाय बेचने वाली - Image by Sunil Deepak

तब सोचता हूँ कि जीवन भी कितना विचित्र है। कभी चीनी न होने पर उसके लिए तरसते थे और आज चीनी होने पर तरसते हैं।

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साठ-सत्तर के दशक के बारे में सोचो तो मन में प्रश्न उठता है कि अगर गुड़ मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी तो चीनी क्यों नहीं मिलती थी? गुड़ से चीनी बनाना ऐसा कठिन नहीं है। शायद तब बात गन्ने या गुड़ की कमी की नहीं थी बल्कि फैक्टरियों को चीनी बनाने के कोटा मिलना की थी, क्योंकि कोई फैक्टरी वाला, जितनी अनुमति मिली हो उससे अधिक चीनी का उत्पादन नहीं कर सकता था। अगर वह कोटे से अधिक उत्पादन करते थे तो सरकारी बाबू उन पर जुर्माना लगा देते थे।

यह कोटे वाली बात आज की पीढ़ी के लिए समझना आसान नहीं है। एक बार मैंने विक्स बनाने वाली कम्पनी के अधीक्षक का एक साक्षात्कार सुना था जिसमें उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी की सरकार के समय में एक साल फ्लू का बुखार बहुत फ़ैला। इसलिए विक्स की माँग बहुत थी तो कम्पनी ने उत्पादन बढ़ा दिया। इस बात के कुछ महीने बाद उन्हें दिल्ली के एक अफसर ने बुलाया, वह अपने वकील के साथ गये। उन्हें कहा गया कि तुमने कोटे से अधिक विक्स बना कर अपराध किया है, उसका जुर्माना देना पड़ेगा।

आज का हिन्दुस्तान में बहुत सी बातें बदली हैं, अब फैक्टरियों को कोटे से अधिक बनाने का जुर्माना नहीं लगता, क्योकि अब कोटे नहीं होते। लेकिन कई क्षेत्रों में कुछ सरकारी बाबूओं की सोच में बहुत बदलाव नहीं हुआ है। उनका ध्येय जनसेवा नहीं, जब तक आप उनके हाथ गर्म नहीं करें तब तक उनका काम आप के काम में अड़चने डालना है।

आप की क्या राय है, हिन्दुस्तान में क्या बदलना चाहिए जो अभी भी नहीं बदला?

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बुधवार, जून 11, 2025

लेखक की दुविधाएँ

बारह ड्राफ्ट के बाद, मेरा दूसरा उपन्यास लगभग तैयार है। इसे आज से इक्कीस साल पहले अंग्रेज़ी में लिखना शुरु किया था और तब इसमें कहानी थी एक नवयुवक की जो दिल्ली में अपनी नानी के पास बड़ा हुआ है और जिसने बचपन से सुना है कि उसके माता-पिता की विदेश में मृत्यु हो गई थी। 

समय के साथ, बार-बार लिखने से इसके कथानक में कुछ बदलाव आये हैं। जैसे कि नवयुवक के बदले, यह बीसवीं सदी के प्रारम्भ की उसकी नानी की कहानी बन गई है, जिसकी पृष्ठभूमि में आसाम के चाय बागान में काम करने वाली एक गिरमिटिया युवती की कहानी भी है। इस उपन्यास की कहानी सुन कर नीचे वाला कवर मेरी मित्र विमला दीपक ने बना कर दिया है।

इस आलेख के माध्यम से मैं आप से सलाह माँगना चाहता हूँ कि अगर मुझे लेखन से पैसा कमाने की आवश्यकता न हो, तो क्या उपन्यास को किसी प्रकाशक से छपवाना महत्वपूर्ण है या उसे अमेज़न जैसे आनलाईन पोर्टल से छपवाना भी चल सकता है?

मेरे फेसबुक मित्रों में बहुत से अनुभवी लेखक हैं, मैंने पहले सोचा कि उन्हें सीधा लिख कर सलाह माँगनी चाहिये, फ़िर मुझे लगा कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि कोई जब मेरे साथ ऐसा करता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता, जबरदस्ती सी लगती है।  इसलिए सोचा कि इसके बारे में ब्लाग पर लिखूँ।

उपन्यास लिखने की यात्रा

इक्कीस साल पहले लिखा उपन्यास अधूरा था। उसके बाद, कई बार इस उपन्यास को लिखने की कोशिशें कीं लेकिन हर बार यह अधूरा ही रह जाता था।

तब मैं अपने आप से कहता था कि जब रिटायर होऊँगा, तब इसे लिखूँगा। रिटायर हुए भी सात-आठ साल बीत गये, लेकिन मेरा काम और यात्राएँ समाप्त नहीं हुईं। दो-ढाई साल पहले दो ऐसी बातें हुईं जिनसे मुझे लगा कि अगर सचमुच मैं अपने उपन्यास को लिखना चाहता हूँ तो मुझे बाकी के सब काम छोड़ने पड़ेंगे।

पहली बात काम से जुड़ी थी। मुझे एक देश में विकलांगों के लिए नई स्वास्थ्य सेवाओं को लागू करने का बड़ा काँट्रेक्ट मिला था, जिसके लिए तीन साल तक मैंने बहुत मेहनत की। मेरा काम पूरा हुआ लेकिन उस देश में चुनावों के बाद नयी सरकार आयी, तो उन्होंने हमारे सारे काम को रोक दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में वह काम महत्वपूर्ण नहीं था। मुझे लगा कि मैंने जीवन के तीन साल बेकार कर दिये, मैंने पैसा कमाया पर मेहनत का कुछ फायदा नहीं हुआ।

दूसरी बात मेरे अपने स्वास्थ्य से जुड़ी थी। मेरी आँखों में रेटिना में घाव हो गये जिनसे दिखना कम हो गया और डर था कि वह घाव बढ़ेंगे तो लिखना-पढ़ना पूरा बन्द हो जायेगा। सौभाग्य से अभी तक वह घाव जैसे थे वैसे ही हैं, बढ़े नहीं हैं, इसलिए दिखता कुछ कम है लेकिन मेरा लिखना-पढ़ना जारी है।

इसलिए मैंने फैसला किया कि अब उपन्यास पूरे करने पर ही ध्यान दूँगा और हिन्दी में लिखूँगा। इस तरह से मैंने २०२३ में अपना पहला उपन्यास पूरा किया था। मित्र अरविंद मोहन जी की सहायता से दिल्ली के एक प्रकाशक ने दो साल पहले उसे छापने के लिए स्वीकार भी किया था, लेकिन पता नहीं कब छपेगा। अब मेरा दूसरा उपन्यास भी लगभग तैयार है।

मन की दुविधाएँ

मैं चाहता हूँ कि अधिक से अधिक लोग मेरे लिखे को पढ़ें, लेकिन मैं इन किताबों से कुछ कमाना नहीं चाहता। तो क्या मुझे अपने उपन्यास को प्रकाशकों के पास भेजना चाहिए? मुझे चिंता है कि प्रकाशक निर्णय लेने में कई महीने लगायेंगे और फ़िर छापने में न जाने कितने साल निकाल देंगे।

क्या इसे सीधा अमेज़न या उसके जैसे किसे भारतीय पोर्टल पर मुफ्त देना बेहतर नहीं होगा, ताकि जो इसे ईबुक रूप में पढ़ना चाहते हैं वह इसे मुफ्त डाउनलोड करें और अगर कोई छपी हुई किताब पढ़ना चाहे तो वह इसकी छपाई की कीमत दे कर छपवा ले? जिन्हें अनुभव है वह बतायें कि किस पोर्टल पर डालना बेहतर होगा?

उपन्यास पढ़ना चाहने वाले

अगर आप मेरे उपन्यास को ई-बुक या पीडीएफ रूप में पढ़ना चाहते हैं तो मुझे ईमेल भेजिये, मेरा पता है sunil(at)kalpana.it (ईमेल भेजते समय '(at)' के बदले में '@' लगा दीजिये)। अगर आप उसे पढ़ कर उसके बारे में अपनी आलोचना या सुझाव देंगे तो मुझे और भी अच्छा लगेगा। 

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